tag:blogger.com,1999:blog-77361305559169677452024-03-10T11:27:06.028+05:30अभिव्यक्तिशोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.comBlogger252125tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-79256003278731471322022-07-29T22:23:00.000+05:302022-07-29T22:23:15.361+05:30नन्हा शिशु<div>माँ दे रही</div><div>शिशु को अपनी</div><div>साँसे</div><div>माँ </div><div>पुलक रही</div><div>अपने शिशु की साँसों से</div><div>नवयौवना हो,</div><div>प्रौढा हो,</div><div>या वृद्धा हो</div><div>माँ की साँसे</div><div>महकती है</div><div>सिर्फ अपने</div><div>शिशु से</div><div>जैसे साँसों</div><div>का कोई </div><div>मोल नहीं?</div><div>वैसे ही ममता</div><div>का मोल नहीं----</div><div>उषा जी का टास्क</div><div><br></div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-59881802188156786662022-07-29T22:21:00.000+05:302022-07-29T22:21:36.816+05:30अमाड़ी की भाजी<div><br></div><div>हमारे यहाँ किसी जमाने मे गांवों में सिर्फ ज्वार की रोटी ही खाई जाती थी।क्योंकि तब खेतों में खरीब की फसल में ज्वार मूंग,चवला और अरहर की दाल ही होते थे ।</div><div>और साथ ही ये अमाड़ी की भाजी लगा दी जाती थी। जो कि अरहर की दाल के साथ बनाई जाती थी ।</div><div>बचपन में हमें कभी भी ये खाना अच्छा नहीं लगता था ।जब गाँव से दूर हुए तो इस खाने ने पकवान कारूप ले लिया।</div><div>पिछले कुछ सालों से सिर्फ सोयाबीन की फसल ही होती है क्योंकि उससे रोकड़ा पैसा मिलता है ।</div><div> पर अब फिर किसान ज्वार उगाने लगे है क्योंकि सोयाबीन ने मिट्टी की उर्वरा शक्ति को कमजोर कर दिया।</div><div>और अब अचानक ज्वार की मांग भी बढ़ गई।जो पहले गेंहू से आधे दाम में मिलती थी अब गेंहू से ज्यादा भाव है।</div><div><br></div><div><br></div><div>आजकल ज्वार की रोटी रोज बना रही</div><div>हूँ।ज्वार की रोटी बनाना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि आटे में बिल्कुल भी चिकना पन नही होता।</div><div>खैर तो आज आप स्वाद लीजिये अमाड़ी की भाजी ज्वार की रोटी ,छाछ ,मिर्ची की चटनी औऱ गुड़।</div><div>विशुद्ध देशी क्षेत्रीय खाना।</div><div>भाजी (बनी हुई सब्जी)</div><div>,एक कटोरी अरहर की दाल</div><div>आधी कटोरी अमाड़ी की भाजी,</div><div>एक प्याज बारीक कटा हुआ ,</div><div>एक छोटा चम्मच हल्दी,पाउडर</div><div>लाल मिर्च पाउडर, राई नमक स्वाद के अनुसार 2 बड़े चमच तेल मूंगफली या टिल का तेल।</div><div><br></div><div>विधि।</div><div>दाल कुकर में एक सिटी देकर पका लें बहुत पकाना नही है</div><div>भाजी अलग से पानी में उबाल लें</div><div>पानी छानकर दाल और भाजी मिक्स कर ले।</div><div>अब एक कढ़ाई में तेल गरम कर हींग राई डाले फिर प्याज भुने हल्दी मिर्ची नमक डालकर दाल और भाजी दाल दे मिक्स करें और जो लाल मिर्च की चटनी सुखी मिला दे 2 मिनट ढंक दे</div><div>अमाड़ी की भाजी तैयार।</div><div>लाल मिर्च की चटनी जिसको हमारी बोली में सातलेल मसाला कहते है।</div><div>मतलब शैलो फ्राई किया मसाला।</div><div>सामग्री</div><div>10 से 12 मिर्च लाल साबुत मिर्च, आधी कटोरी सूखा धनिया,</div><div>एक चम्मच जीरा</div><div>20 से 25 लहसन की कलियां 2 इंच बारीक कटा अदरक नमक स्वाद के अनुसार।</div><div>एक छोटे चम्मच तेल में हल्की आंच पर कढ़ाई में सब चिजे भून लें</div><div>ठंडा होने पर मिक्सी में पीस ले </div><div>ये मसाला कई महीनों तक खराब नहीं होता कोई भी सब्जी में डाल सकते है ।</div><div>काँच की शीशी में भरकर बाहर ही रखे।अगर मिर्च तेज लगे तो मूंगफली या भुनी हुई तिल पाउडर मिला लें।</div><div>खाना परोसते समय दो चम्मच तेल गरम करें और उसमें राई तड़काएं और भाजी पर डालें।</div><div>तो आइए और स्वाद लीजिये।</div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-64086852753437361382022-07-29T22:11:00.000+05:302022-07-29T22:11:28.527+05:30<div>एक शाम में कुछ यू ही .........</div><div><br></div><div>रात उतरती गई ,बाते सुलगती गई</div><div><br></div><div>सपने हवा हुए ,चादर छोटी हुई</div><div><br></div><div> अंगड़ाई ने मुस्कुराने का प्रयत्न किया</div><div><br></div><div>जिन्दगी को चलने का , इशारा मिला </div><div><br></div><div>-शोभना चौरे</div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-74383024711207145722021-10-27T22:33:00.001+05:302021-10-27T22:33:42.068+05:30यादों की पोटली<div>#यादोंकी पोटली -3</div><div><br></div><div>"दीपावलीआप सबके जीवन मे अनन्त खुशियां लाये</div><div>अनेकानेक शुभकामनाये।"</div><div><br></div><div>अंतिम किश्त</div><div><br></div><div>खूब आड़ी तिरछी रांगोली बनाते ।मौसम में हल्की सी ठंडक आ चुकी होती फिर गाँव मे तो ज्यादा ही लगती</div><div>पानी ठंडा लगता तो मुहँ हाथ धोने में ,तो दादा प्रभात फेरी आने के पहले ही आँगन में बने चुल्हे को जला उस पर गर्म पानी रख देते चूल्हा जलाने की सामग्री।</div><div>तुवर की लकड़ी (तोर काठी निमाड़ी में)जिससे जलने में आसानी होती थी लकड़ी को ,सब सुकलाल मामा रात को ही रख जाता था ।</div><div>हम सब बच्चे गर्म पानी लेकर ही काला दन्त मंजन करते और वहीं चुल्हे के आज बाजू दूध चाय का इंतजार करते हाथों को तापते हुए।</div><div>दादा की कचहरी के पास एक छोटा सा कमरा हुआ करता था जिसे हम कोठरी कहते उसमें लोहे की बड़ी सी तिजोरी , लकडी ,और लोहे पेटियां जिनमे सबके नए कपड़े रहते ।तिजोरी में गहने ,खाता बही, और सारे जरूरी कागजात रहते।</div><div>साथ ही एक छोटी सी खटिया होती जहाँ ज्यादातर माँ दिन में कभी कभार सुस्ता लेती।</div><div>कोठरी का दरवाजा खुलने पर गोशाला होती उसके बाजू में बड़ा सा कोठा (कमरा) होता जिसमें पशुओं का दाना चारा रहता।</div><div>गोशाला के पास ही बड़ा सा अनार का पेड़ जिसमे कच्चे तोड़कर खाने पर हमेशा डांट पड़ती!!</div><div>अनार के पेड़ से लगा हुआ गहरा कुँआ जो पक्का बंधा हुआ और कुएं पर ही कपड़े धोने की जगह, पुरुषों के लिए स्नान की जगह और बड़े बड़े तांबे के चरवे (हंडे)जिसमे पानी भरा होता और ये पानी भरने का काम भी मामा करता। </div><div>गाँव जलने, घर जलने के बाद ये पक्के और पत्थर के बने घाट ही पुराने घर को जीवंत और "खंडहर बताते है कि इमारत बुलन्द" थी का अहसास करवाते है।</div><div>कुएं के बाजू में ही बड़ा सा आँगन उसमे मधुमालती</div><div>और पीले कनेर का पेड़ आज भी स्मृतियों में जैसा का तैसा है।</div><div>आँगन के पास गलियारे से शुरू होकर जो (बड़ी एक ढाल ई )बरामदा था उसमें हाथ की चक्की ,मूसल ओखली और धान्य तैयार करने में जो सामान काम आता वो रहता था ।</div><div>हम बच्चे तो रांगोली बनाने और जिजियों के साथ गलियों में खेलने में रहते।</div><div>माँ बाई और दादी दिवाली के पकवानों की तैयारी में लगी रहती ,घर की पुताई लिपाई, साथ साथ चलती!</div><div>हम कचहरी की फ़ोटो की फ्रेम को तेल पानी से चमकाते बस इतना ही सहयोग करते बाकी पकवानों पर निगाह रहती।</div><div>आँगन में बैठकर गुजिया सँजोरी(गुजिया का गोल शेप)</div><div>बनते हम गुजिये में भरावन की सामग्री की फांक मार ही लेते 😊सबके मना करते करते कि अभी भोग लगेगा।</div><div>अनरसे *रात में बनते ।</div><div>नमकीन सेव गांव के सुखदेव काका हलवाई के घर से बनकर आती।</div><div>और तिल पपड़ी बस इतनीही चीजें बनती</div><div>पर मात्रा ब हुत सारी बनानी होती थी।</div><div>धन तेरस पर पूरणपोली, चौदस पर दाल बाटी, अमावस को पूरी सब्जी मीनू फिक्स।</div><div>पूरणपोली जिस दिन बनती देखा करते कब पूरन खाने को मिलेगा तब आसान नहीँ था पूर्ण पोली बनाना।</div><div>माँ और दादी का पूरा श्रम और स्नेह होता उसमे।</div><div>फटाके ,गांव के हॉट से लाया तमंचा, तिकड़ी की डिब्बी, सांप, फुलझड़ीऔर चकरी जो सब पिताजी शहर से लाते उन्हें धूप लगाकर फिर हमको बांटे जाते।</div><div>और हम उन्हें ही बचा कर रख देते।लड़ियाँ सिर्फ काकाजी ही फोड़ते जो आज के एटमबम से भी महत्वपूर्ण थी उन दिनों हमारे लिए।</div><div>आँगन के बगल में रसोईघर की कोठरी उसके बाजू में</div><div>पक्का स्नानघर ,उसके आगे पनिहारा।</div><div>आँगन से चार सीढ़िया चढ़कर छान (कमरा)जिसमे पूजा घर बड़ा सा और सबसे महत्वपूर्ण दादी की वो लकड़ी की अलमारी जिसमे रसोई का कीमती सामान होता और उसमें हमेशा ताला लगा रहता जब हम बच्चे इधर उधर होते तभी वो ताला खोलकर जरूरत का सामान निकाला जाता।</div><div>आज मुझे सहसा बंगाली उपन्यास पढ़े हुए की गृहस्वामिनी याद आ गई जिनके पल्लू में हमेशा चाबी बंधी रहती।</div><div>दिन में गुजिये बनते रात को सबके खाना खत्म होने के बाद चुल्हे पर कढ़ाई रखी जाती तलने के बाद भोग के निकालकर हम सोते हुए बच्चों को जगाकर गरम गुजिये खिलाये जाते और गाय का गर्म दूध।</div><div>पूजा घर के पास ही एक और बड़ा कमरा होता </div><div>जहां अनाज का भंडारण होता एक बड़ा सा झूला</div><div>जिसमे बैठकर जोर जोर से गीत गाये जाते उन्मुक्त</div><div>कंठ से।</div><div>कमरों के बगल से एक गलियारा होता जहां से पीछे बने शौचालय के लिए पृथक रास्ता होता आज ये जिक्र करना जरूरी हो गया कि हमारे पूर्वजों की सोच कितनी आगे थी कि जिन व्यवस्थाओं को लेकर सरकारें अपनी उपलब्धि बता रही है वो आज के 100 साल पहले से ही घरों में व्यवस्था थी।</div><div>दिवाली के दिन शाम को रांगोली बनाना, दिए जलाना, घर के हरेक कोने में दीपक जलाना ।सफेद सोने(कपास)जो घर मे आया रहता खेत से !उसकी पूजा करना,कलम दवात की पूजा, लाल बही खाते की पूजा करना वो क्षण आज भी रोमांचित कर देते है।</div><div>पूजा के बाद सेठ दाजी के यहाँ जाना , सबको प्रणाम करना, जितने भी कुटुम्ब के घर होते सबको प्रणाम करने जाना आशीर्वाद पाना यही हमारा धन था।</div><div>उन आशीर्वादों से हम फले भी फुले भी और हमारा वो कालमुखी गाँव जो किसी आपदा से जलकर अपना वैभव खो चुका था वहां रहने वालों की जीवटता से आज फिर उसी वैभव, सुख समृद्धि से परिपूरित हो गया है।जिन्होंने वो विभीषिका देखी आज उनके बच्चे विद्याधन लेकर अपने गाँव को संवारने लगे है ।</div><div>तो ऐसी थी ""मेरी यादों की पोटली की दिवाली""</div><div>मेरे बचपन की दिवाली! आज की दिवाली में तो हर्षित होते ही है पर मन मे जो उन दीपों के साथ गाँव का सौंदर्य बसा है ,वो अनिवर्चनीय सुख है!!!!</div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-1698110686534159482021-03-01T22:09:00.001+05:302021-03-01T22:09:40.508+05:30सूखा पेड़<div>तुमने देखा है मुझे </div><div>हरा भरा</div><div>वो मेरा सिंगार</div><div>किया था प्रकृति ने </div><div>मेरी छाँव में </div><div>सुख पाया ऐसा तुम कहते हो</div><div>मैंने तुम्हारी भूख मिटाई</div><div>ऐसा भी तुम ही कहते हो</div><div>अनगिनत वर्षो से जिया</div><div>तुम्हारे लिए</div><div>ऐसा भी तुम ही कहते हो</div><div>आज थक गया हूँ </div><div>झुर्रियां दिखने लगी है</div><div>बेतहाशा मेरी</div><div>फिर भी मैं</div><div>झुका नहीं</div><div>क्योकि तुमने</div><div>ही मुझमे प्राण फूंके</div><div>यह कहकर</div><div>कि</div><div>ठूंठ का भी</div><div>अपना सौंदर्य होता है।</div><div>शोभना चौरे</div><div><br></div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-51984810523817632672021-02-13T07:06:00.001+05:302021-02-13T07:06:29.511+05:30बस कुछ यूं ही<div>बस कुछ यूं ही</div><div>💐💐💐💐💐💐</div><div>विचारों का दरख़्त </div><div>खोखला हुआ चला है</div><div>जड़ें भी सिमटने लगी है</div><div>मैं महान हूँ</div><div>इसी भ्रम में,</div><div>पीछे लगी कतार को</div><div>झुठला न सके</div><div>न मालूम!</div><div>इस कतार में से </div><div>कितने दरख़्त</div><div>बनेंगे?</div><div>कितने खजूर बनेंगे?</div><div>कितने बोन्साई </div><div>बनाये जाएंगे?</div><div>दरख़्त बनने की</div><div>आपा धापी में</div><div>टूटती कतार</div><div>सिर्फ घास </div><div>बनकर </div><div>ओस की बूंदों</div><div>को दामन में </div><div>भरकर मिटती </div><div>जाती है</div><div>महान बनने </div><div>की कतार!!!!</div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-25263863230147396282020-12-14T20:19:00.001+05:302020-12-14T20:19:36.403+05:30ओतस इडली<div>#मैं मेरी#रसोई और मेरी कहानी</div><div>पोस्ट 8</div><div>इधर कई दिनों से तबियत खराब थी तो चाहकर भी रसोई की कहानी लिख न पाई।</div><div>इस बार </div><div>कहानी कुछ यूँ है जब मुम्बई में थी तो हमारा महिला मंडल सक्रिय था हम लोगों ने तय किया था कि हर शक्रवार को सोसायटी में खाने के स्टॉल लगाएंगे और जो इनकम होगी उससे झोपड़ियों के बच्चों को पढ़ने की सामग्री देंगे।</div><div>दो ,दो महिलाओं के ग्रुप बना दिये जिसकी जिसमें मास्टरी हो वो बनाता था।</div><div>मैं इडली,और समोसा बनाती थी साथ में मेरी एक सहेली थी।</div><div>1किलो चांवल में 80 इडली बनती थी और सिर्फ नारियल की चटनी।बनाने में आधा दिन लग जाता और 1 घण्टे में सारी खत्म हो जाती ।सारा हिसाब किताब होता।लागत निकालकर सारा प्रॉफिट मण्डल में जमा हो जाता ।कॉफी सालों तक किया ।परफेक्ट इडली बनती थी।</div><div>हाँ एक बात मुझे हमेशा सोचने पर मजबूर करती है कि जो इडली चटनी मुम्बई या बैंगलोर में स्वाद देती है वो स्वाद यहाँ इंदौर में नही?</div><div>शायद जलवायु?</div><div>खैर आज आपको ओट्स की मसाला इडली और रसम की चटनी खिलाते है।</div><div><br></div><div>ओट्स और रवे की इडली</div><div>1 कटोरी रवा</div><div>1 कटोरी ओट्स भूनकर पिसा हुआ</div><div>2कटोरी दही</div><div>गाजर,शिमला,मिर्च,पत्ता गोभी,प्याज</div><div>सब मिलकर चाप किया हुआ मिक्सर2 कटोरी।</div><div>हरि मिर्च अदरक का पेस्ट नमक स्वाद के अनुसार</div><div>सबको मिक्स करके आधा घण्टा रख दे।</div><div>1 चमच तेल में कढ़ी पत्ता ,हींग, उड़द दाल राई तड़काएं और मिश्रण में मिला दे</div><div>फिर ईनो मिलाये और ग्रीस किये इडली पात्र में इडली बना लें।</div><div><br></div><div>रसम चटनी</div><div>1गिलास पानी मे 2 बड़े चमचm t r का रसम पाउडर घोला, उसमें थोड़ा कच्चा नारियल,चना दाल भुनी हुई पीसकर डाली नमक और थोड़ा इमली का पल्प डाला ।</div><div>एक चमच तेल में कढ़ी पत्ता राई और हींग का तड़का घोल में डाला और 5 मिनट तक उबाल लिया ।</div><div>रसम चटनी तैयार।</div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-82264743870893752042020-09-28T18:14:00.001+05:302020-09-28T18:14:02.570+05:30मेरी रसोई की कहानी<div>मेरी रसोई की कहानी</div><div><br></div><div> हम मध्यम वर्ग की गृहिणियों में कोई भी चीज का नुकसान न होने देने की आम बीमारी होती है।</div><div>ये ठीक उसी तरह होती है जैसे कोई भी सुंदर से डिब्बे में कोई सामान आया तो समान के उपयोग के पहले ही दिमाग सोचने लगता है इस डिब्बे में क्या भरूंगी?</div><div>चाहे कितने भी डिब्बो के सैट पहले से मौजूद हो😊</div><div>इसी तरह जब भी घी बनाती हूँ पहले ही सोच लेती हूँ छाछ का क्या उपयोग करना है?</div><div>तो कहानी ऐसी है कि मैं जब बैंगलोर मे थी हमारे घर मे एक नेपाली महिला गीता काम करती थी।</div><div>3 लीटर दूध लेते थे तो हर चौथे दिन छाछ घी बनाती तो जाहिर है छाछ भी बनती</div><div>अब हर समय की उपयोग करे ?</div><div>तो मैने गीता को पूछा ?</div><div>तुम ले जाओगी ?वो बोली हाँ।</div><div>मुझे प्रसन्नता हुई कि फेंकना न पड़ेगी।</div><div>उससे भी ज्यादा और खुशी तब हुई जब उसने कहा-</div><div>मेरे आदमी को छाछ बहुत अच्छा लगा ओर पूरा पी लिया और कहने लगा कि माँ की याद आ गई गाँव की, बिल्कुल वैसा ही स्वाद है।</div><div>फिर तो जब तक मैं रही मुझे ये खुशी मिलती रही।</div><div>अब यहाँ की रसोई में भी हर पाँचवे दिन</div><div>घी बनाती हूँ तो छाछ भी भरपूर</div><div>तो सूजी के ढोकले तो निश्चित है ही</div><div>चूंकि इस छाछ में थोड़ा बहुत मक्खन रह ही जाता है तो ढोकले बहुत ही अच्छे बनते है।</div><div>सूजी के ढोकले तो आप सब हमेशा ही बनाते है तो आज की कहानी में 2 अलग चटनियों की रेसिपी दे रही हूँ।</div><div>मेरे आँगन में बहुत बड़ा मीठे नीम का पेड़ है।</div><div>इन दिनों खूब ताजी ताजी पत्तियाँ आ रही है तो सोचा चलो चटनी बनाई जाय</div><div>खूब सारी पत्तियां तोड़कर धो ली और कपड़े पर फैला कर रात भर रख दी।</div><div>💐💐💐💐💐💐</div><div>चटनी 1</div><div>एक कटोरी कढ़ी पत्ता(मीठा नीम)</div><div>आधी कटोरी मूंगफली भुनी हुई</div><div>4 हरि मिर्च</div><div>नमक स्वादानुसार</div><div>कढ़ी पत्ते को काढ़ाई में सेंक लिया मध्यम आँच पर कुरकुरा होने तक</div><div>ठंडा होने पर मूंगफली,कढ़ी पत्ता आ7र हरीमिर्च नमक डालकर पीस लिया।</div><div>अगर गीली चटनी चाहिए तो पानी और नीबू का रस मिलाएं।</div><div>चटनी 2</div><div>एक कटोरी कढ़ी पत्ता, आधी कटोरी सूखा नारियल कद्दूकस किया हुआ</div><div>4 लाल मिर्च</div><div>आधा चमच अमचूर पाउडर</div><div>नमक स्वाद के अनुसार एक चम्मच चीनी</div><div>आधा चमच भुना पिसा जीरा।</div><div>कढ़ी पत्ते। को सुखा ही कढ़ाई में भुने कुरकुरा होने तक।</div><div>निकल कर गैस बंद कर उसी कढ़ाई में </div><div>नारियल और लाल मिर्च थोड़ी बहुत ले</div><div>ठंडा होने पर सब मिलाकर पीस ले।</div><div>चटनी 3</div><div>ये आम गीले नारियल की जो इडली</div><div>के साथ बनाते है वही है।</div><div>कहानी तो कुछ और लिखने वाली थी पर आज ये कहानी बन गई।</div><div><br></div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-66516446495693958762020-07-23T18:25:00.001+05:302020-07-23T18:25:17.427+05:30पचपन पार की औरते<div>नारी दिवस पर </div><div>💐💐💐💐</div><div><br></div><div>55 पार की औरते</div><div><br></div><div>55 के पार की औरतें</div><div>शीशे में अपना अक्स</div><div>देखने में सकुचाती है</div><div>अपना आत्म विश्वास</div><div>खोने लगती है</div><div>जब</div><div>जिसकी अर्धांगिनी होती है</div><div>जिनको जन्म दिया,</div><div>पालन किया वो </div><div>हर बात में उसे</div><div>टोका करते है</div><div>तब,</div><div><br></div><div>मैंने देखा है </div><div>सूजे हुए पाँव लेकर</div><div>पोर पोर टिसते </div><div>हुए अंगो के जोड़,</div><div>तब भी घरेलू इलाज</div><div>का हवाला देकर</div><div>डॉ के पास नही जाती</div><div>क्योंकि उसे मालूम है</div><div>ये उसके बजट के बाहर है</div><div>पूरा जीवन सर्फ साबुन</div><div>किफायत से उपयोग</div><div>करती रही</div><div>आज उनको पानी में</div><div> घुलते देख</div><div>खुद भी घुलती है।</div><div>अपनी बची हुई</div><div>जिंदगी में,</div><div><br></div><div>हाँ ये </div><div>सुख की बात है</div><div> 55 पार की ओरतें</div><div>जो</div><div>रिटायर होने वाली है</div><div>अपनी नौकरी से</div><div>उनके मुख पर</div><div>आभा है,</div><div>क्योकि वो हमेशा</div><div>चेकअप करवाती </div><div>रही अपना</div><div>उसकी पेशानी</div><div>पर बल नही</div><div>क्योंकि</div><div>उसे साबुन सर्फ</div><div>में किफ़ायत</div><div>का अनुभव नही?</div><div>-शोभना चौरे</div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-50945265649239979672020-07-23T18:21:00.001+05:302020-07-23T18:21:25.186+05:30नदी<div>नदी</div><div>एक नदी थी अपनी,</div><div>कलकल बहती</div><div>लहराती ,इठलाती</div><div>दर्पण सी पारदर्शी</div><div>प्यास बुझाती,</div><div>भूख मिटाती</div><div>नाव को सहारा बनाती</div><div>किनारों के मिलने का ,</div><div>न जाने !</div><div>कब ?</div><div>वो सरकारी हो गई</div><div>पहले रेत निकाली गई</div><div>फिर बिजली के नाम</div><div>सूखा दी गई</div><div>फिर दिखावे में</div><div>भर दी गई</div><div>धर्म के नाम पर</div><div>पूजी भी गई</div><div>और भर गई </div><div>जल से नहीं!</div><div>व्यापार के</div><div>अवशेषों से</div><div>अब न प्यास</div><div>बुझती नभूख मिटती</div><div>कभी सबकी होती,</div><div>नदी</div><div>आज चंद</div><div>निजी हाथों में</div><div>सौंप दी गई।</div><div>💐💐💐💐</div><div>शोभना चौरे</div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-48612761499495804152020-06-25T18:39:00.001+05:302020-06-25T18:39:27.544+05:30कोरोना काल<div>कोरोना काल</div><div><br></div><div>कोरोना तुम्हारा </div><div>कोई दोष नही?</div><div>जब टी वी आया तो </div><div>हमने उसे दोष दिया</div><div>कि परिवार को ,समाज </div><div>को निगल गया</div><div>जब इंटरनेट आया तो</div><div> उसको दोष दिया</div><div>की सारे संबंध </div><div>आभासी है</div><div>और अब तुम्हें कि</div><div>तुम ने सम्बन्धों में</div><div>दूरियाँ बढ़ा दी</div><div>दरअसल हम तो यही</div><div>चाहते थे मन से,</div><div>आत्मीयता तो दिखावा थी</div><div>आज फोन पर ही</div><div> बात करने से </div><div>समझ जाते है अंदाज में</div><div>कि</div><div>उनको ,आपकी बात में </div><div>कितनी रुचि है?</div><div>ये जुमला </div><div>सही है ,</div><div>सेनिटाइजर फेक्ट्री के लिए</div><div>दवाई की खोज के लिए</div><div>कि आपदा में अवसर है</div><div>बाकी तो</div><div>ओढ़ी गई आपदा में</div><div>हम किसी को बुलाने</div><div>में भी कतराते है</div><div>और किसी के घर ,</div><div>जाने में भी।</div><div><br></div><div>शोभना चौरे</div><div>#कोरोना अनलॉक1#</div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-30695173066770477292020-06-20T10:46:00.001+05:302020-06-20T10:46:43.538+05:30संस्मरण<div>बच्चों पर प्रेम बरसाने वाला हरकारा :- पं रामनारायण उपाध्याय </div><div>💐💐💐💐💐💐💐💐💐</div><div><br></div><div>अभी हम लोग सोकर उठे भी न होते थे कि नीचे से दादा की आवाज आ जाती आओ बच्चों जल्दी से जलेबी गर्म गर्म है।</div><div>भरी गर्मी में हम चांदनी (निमाड़ में छत को चांदनी कहते है) पर सुबह की थोड़ी सी ठंडक में गहरी नींद में होते ,और बड़बड़ाते हुए उठते की इस जेठ की गर्मी में गर्म जलेबी कौन खायेगा?पर नीचे आकर जलेबी खाकर आ दादा के लाड़ से सारी गर्मी पिघल जाती ।</div><div>दादा हमे भांप जाते , फिर अपनी चिर परिचित हँसी के साथ कहते आज म्हारी वरस गांठ छे (आज मेरा जन्म दिन है) और अपनी खादी की बंडी की जेब में हाथ डाल जितनी चिल्लर होती हमें बाँट देते और इस तरह 20 मई दादा का जन्मदिन मनाया जाता ।</div><div>वे मेरे कवि प्रोफेसर पिता पं नारायण उपाध्याय के सगे बड़े काकाजी थे ,</div><div>सादगी की इस प्रतिमूर्ति को हम सब दादा ही कहते थे। मेरे पिताजी / बाबूजी की रुचि काव्य में थे , उनकी प्रेरणा से ही उनकी प्रथम कृति "लोग, लोग और लोग" प्रकाशित हुई थी । वे जब भी कोई रचना लिखते बाबूजी को ज़रूर सुनाते थे । बाबूजी भी उनसे अन्तर्मन से जुड़े थे , कोई आवश्यकता होती थी ,या कोई सलाह -मशविरा लेना होता तो दोनों कुवे की जगत पर देर तक चर्चा करते थे । वे पिताजी को अपना मानस पुत्र कहते थे , काका -भतीजे की यह जोड़ी आ माखन दादा (माखनलाल चतुर्वेदी) जी की साहित्यिक गोष्ठियों में साथ -साथ जाते थे ।</div><div>जब भी आ दादा की कोई रचना का पारिश्रमिक मिलता वो उसका एक निश्चित हम सब लड़कियों में बांट देते।</div><div> मायके से बहुत दूर रहने वाली मैं पहली लड़की थी ।।मेरी राखी मिलने के पहले ही</div><div>मुझे मनीआर्डर कर देते ।</div><div>उनका लेखन,उनका फक्कड़पन,</div><div>उनका सदैव खुशमिजाज रहना, लड़कियों बहुओं से स्नेह उनको आगे बढ़ाना ही उनको सबसे अलग बनाता है।जिसे हम सही अर्थों में "दादा" कहते है।</div><div>आ. दादा की 19वीं पुण्यतिथि पर यही कहना चाहती हूँ कि दादा आप पूरे परिवार की छाया थे,छाया है और छाया रहेंगे,,,</div><div>-शोभना चौरे उपाध्याय</div><div>इंदौर<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-10018513610669241942020-06-14T20:09:00.001+05:302020-06-14T20:09:51.127+05:30गाँव की बातें संस्मरण<div>गाँव में बेटों के के खेती सम्भालने के बाद कुछ लोग आराम से संतोष से चौपालों पर अपनी बाकी की जिंदगी गुजारते है।</div><div>पर हमारे रामेसर भाई को चैन नहीं कुछ न कुछ काम करते रहना है उन्हें चाहे वो काश्तकारी हो समाज सेवा हो या परोपकार।</div><div>बाड़ी में फूल ,फलऔर सब्जियां लगा रखी है माली बनकर जाते है फल सब्जियों को बाड़ी में उगाने से लेकर विक्रय करने का काम खुद ही कर लेते है।साथ मे उनकी सहधर्मिणी भी बराबर साथ देती है।</div><div>और हाँ वो ग्वाले भी है साथ में मिस्त्री भी याने की ऑल राउंडर😊</div><div>ये तो खूबियां मुझे मालूम है न जाने और कितनी ही कलाएं होगी जो उन्हें विशेष बनाती है।</div><div>हाँ तो कल सुबह बरबटी की सब्जी लेकर आये हम सब आँगन में ही बैठे थे कोने में</div><div>मोगरा महक रहा था।</div><div>बरबटी देने के बाद बोले -मख या खोश बु अच्छी नई लगती तेका लेन ह ऊ नई लगावतो। (मुझे इसकी खुशबू पसन्द नही इसलिए मोगरा नही लगाता)</div><div>मेरे मुंह से अचानक निकल गया गुलाब तो पसन्द छे (है)</div><div>और सुनते ही अपने 70 वे वर्ष में भी शर्माकर चले गए ।दरअसल भाभी का नाम गुलाब है ।</div><div>और सुबह सुबह मोगरे के साथ गुलाब भी महक उठे।</div><div><br></div>शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-73739984159279307842017-10-10T22:01:00.001+05:302017-10-10T22:01:55.841+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
#यादों की पोटली #२<br />
मुख्य द्वार पर एक पीतल की गोल कुंडी लगी होती<br />
उसके घुमाने पर अंदर लगी लकड़ी जो दो पल्लो पर लगी होती वो हट जाती और दरवाजा खुला जाता जिसे निमाड़ी बोली में" अग्गल" कहते ।जिसे बाहर से कोई भी खोल कर आ जाता सिर्फ रात को ही सांकल लगाई जाती थी अंदर से !<br />
ताले चाबी का कोई रोल नहीँ था।<br />
सुबह सुबह जब सुखलाल मामा आते प्रभात फेरी की घण्टियाँ दूसरी गली से सुनाई देती दादाजी दरवाजे की सांकल खोल देते ।<br />
पिछला दिन दशहरे की खुशी में बीता आज दशहरा मिलने वालों की गहमा गहमी में ।<br />
इस बीच अपना रुपया अपनी चचेरी बहनोँ बुआओं को बताने का सुख भी लूट चुके थे अब क्या करें ?उन दिनों हमारी 24 दिन की छुट्टी होती थी।<br />
अब सब बहनोँ ने अगले दिन से रंगोली बनाने का तय किया उन दिनों रंगोली गांव में नहीँ मिलती थी<br />
गांव के बाहर कुछ गुलाबी पत्थरो की छोटी छोटी सी खदानें थी वहाँ से पत्थर तोड़ कर लाना होता था ।<br />
जिसे सिरगोला कहते थे<br />
दादा दादी बहुत मुश्किल से भेजने को तैयार होते<br />
कहते!सुखलाल ले आएगा !<br />
पर हम भी जिद पर अड़ते और उन्हें हाँ कहनी पड़ती<br />
मामा का काम निपटे !तब जाएं उसके आगे पीछे घूमते<br />
तीन बहने हम और दूसरी सब मिलाकर कुल 8 से 10 हो जाते दौड़ते भागते पत्थर तोड़कर लाते।<br />
दूसरे दिन इमामदस्ते (खलबत्ते) में कूटते छानते<br />
और रंगोली तैयार सफेद झक।<br />
अब रंगीन रंगोली भी चाहिए तो दादा की स्याही की बोतल से नीला रंग,दादी के मसाले के डिब्बे से पीला रंग,और कंकू से लाल रंग कोयले से काला रंग इन सबको बनाने में दो दिन लग जाते ।<br />
बीच बीच मे डांट मिलती (पोर ई न हो न जिमि तो लेव)<br />
लड़कियों खाना तो खा लो।<br />
फिर पड़ोस के घर जाना जीजी तुमने कितने रंग बनाये देखकर आना उत्साहित होकर फिर स्याही घोलना यही क्रम चलता रहता।<br />
हाँ तो मैं बात कर रही थी मुख्य दरवाजे की दरवाजा खुलते ही दाहिने हाथ पर कचहरी(बैठक)तीन सीढ़ी चढ़कर थोड़ी ऊंचाई पर घुसते ही खिड़की पास खुली जगह फिर एक सीढ़ी और एक बड़ा सा गद्दा उस पर सफेद सी चादर बड़े बड़े लोट रखे हुए ,<br />
वहीं दादा की लकड़ी की पेटी ,जिसमे उनका सारा जरूरी सामान ,उस पेटी में कई खाने (खांचे)बने होते<br />
जिसमे करीने से कलम दवात, सुपारी सरोता, माचिस की तीलियाँ ग्राम पंचायत के कागज और भी न जाने कितना सामान ।<br />
पेटी की चाबी दादा के पास जनेऊ में लगी होती<br />
हमें इंतजार रहता उस जादुई पेटी के खुलने का<br />
और 5 पैसे का सिक्का लेने का।,😃<br />
गद्दे के एक तरफ बड़ी सी लकड़ी के टेबल होती दो बड़ी सी कुर्सियां होती।<br />
थोड़ी से नीचे की तरफ बड़ा सा लकड़ी का पलंग<br />
लगा होता सिर्फ दोपहर के आराम के लिए।<br />
पूरी दीवाल पर लकड़ी की फ्रेम में चारो तरफ मढ़ी हुई<br />
तस्वीरें लगी रहती पूर्वजो की, सारे भगवानों की।<br />
एक बड़ी सी घड़ी जिसमे रोज चाबी देना होता था<br />
तब वह टन्न टन्न घण्टियाँ बजाती थी।<br />
पलंग की साइड की तरफ ही पंखे की रस्सी चलाने वाला मानकर दाजी बैठता।(पंखा झलने वाला)<br />
एक बड़ा सा झालर वाला रंगबिरंगा पंखा आज भी मन बैचेन कर देता जब उसकी गिररी (चकरी) चलती<br />
तो लगता सारा सुख इसी को चलाने में है।<br />
जब भी दादाजी और उनके मिलने वाले कचहरी में बैठते तो लगातार पँखा चलता ।<br />
उस समय हम बच्चों का वहाँ प्रवेश निषेध होता।<br />
दाहिनी तरफ कचहरी फिर लम्बा से गलियारा पार कर<br />
बरामदा होता ।जिस तरह हमारा प्रवेश द्वार वैसे ही<br />
गलियारे की दूसरी तरफ हूबहू वैसा ही गलियारा बायीं तरफ कचहरी वैसे ही नजारा उसका जहाँ मेरे दादाजी के काकाजी बैठते जिनको पूरा गाँव मुंशी दाजी के नाम से जानता था जो मालगुजार थे।<br />
और इसी तरह कचहरी की दाहिनी तरफ से हूबहू वैसे ही 3 घर और थे जहाँ पर मेरे चचेरे परदादाओ की बैठकें थी । बरामदे के बाद एक बड़ा सा आँगन था उस आँगन में एक पत्थर सी खूब चौड़ी सी बैंच बनी थी जो सारे पांचों घरों की एक होने की सबूत है आज भी<br />
जिसे निमाड़ी में दासा कहते है।<br />
हमारा उनकी बैठक में बेरोकटोक आना जाना था<br />
उनसे भी 5 पैसे के सिक्के मिलने का सदा लालच रहता।दोनो घरों के बरामदे के बीच एक दरवाजा था जहां से आने जाने का अपना ही आनन्द था।<br />
अगले दिन सुबह सुबह गोबर से दरवाजे के सामने लीपकर उस पर रंगोली बनाना ।<br />
,आड़ी तिरछी लकीरे बनाना फिर मिटाना इस क्रम में कई घण्टे लग जाते फिर हारकर बड़ी जिजियों के पास जाना,<br />
दूसरी बड़ी बहने बहुत अच्छी रंगोली बनाती उनकी मिन्नत करते जीजी हमारी भी बना दो ।<br />
जिजियाँ बड़ी अच्छी होती हमारी सारी समस्याएं हल कर देती।<br />
दशहरे के कुछ दिन बाद शहर से पिताजी और काकाजी आते तब हमारी कूदा फांदी ,को जरा ब्रेक लग जाता।बाबूजी से सदा डर लगता।<br />
काकाजी भी तोथोड़ा डरते क्योकि वो कॉलेज में पढ़ते और बाबूजी भी उसी कॉलेज में पढ़ाते थे।<br />
अब हम काकाजी के आगे पीछे घूमते क्योकि वो उनके भाइयो दोस्तो के साथ मिलकर दीपावली के लिएआकाश कंदील बनाते<br />
रंग बिरंगी पन्नियां,बांस की लकड़ी, ल ई बनाते ।<br />
और बहुत मेहनत के बाद खूबसूरत आकाश कंदील बन जाते।<br />
एक साथ बनाते ऊपर तीसरी मंजिल पर जहाँ सारा सामान बिखरा रहता कोई नहीँ होता रोकने टोकने वाला।बनने के बाद अपने कंदील सब घर ले जाते।<br />
सुबह की रंगोली जो हम उन्ही दिनों बनाते थे! तब!<br />
पर इधर कुछ दिनों पहले जब वापिस गांव जाना हुआ तो प्रभात फेरी की घण्टियाँ फिर उन दिनों को लौटा ले<br />
आई पर वो मार्च का महीना था किंतु गांव की बालाओ ने सुबह सुबह आँगन में पानी छींटकर रंगोली बनाकर दीपक जलाकर रखे थे।<br />
मैंने उनसे पूछा ?<br />
रोज बनाते हो रंगोली?<br />
तो खुश होकर बोली- जब से गाँव मे भागवत जी हुई<br />
तो पंडित जी ने कहा! सुबह रंगोली बनाओ दीपक जलाओ तब से हम रोज बनाते है।<br />
कहने को सहज सी बात किंतु संस्कारो के बीज ऐसे ही<br />
फैल गए और वो नन्ही लड़की पीढ़ियों तक सींचती रहेगी ये अनमोल फसल।<br />
उन दिनों की तस्वीरें तो नहीं है पर आज 50 साल बाद भी उन गलियों में जब बेटियां जिजियाँ जाती है गणगौर उत्सव में तो उन्ही जगहों पर रांगोली बनाकर जो सुख<br />
पाती है वो अवर्णीय है!!!!!</div>
शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-22576138635707817222017-10-01T15:31:00.001+05:302021-10-27T17:33:02.049+05:30yado ki potli<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a class="_58cn" data-ft="{"tn":"*N","type":104}" href="https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%8B?source=feed_text&story_id=1577389355616047"><span class="_5afx"><span class="_58cm"></span></span><img alt="Image may contain: tree, plant, outdoor and nature" class="spotlight" src="https://scontent.fblr2-1.fna.fbcdn.net/v/t1.0-9/22008420_1577389262282723_2552427079284134289_n.jpg?oh=893e8029873e5963bf3b56584f5e6aff&oe=5A4A6DBC" style="height: 540px; width: 960px;"></a> यादों की पोटली </div>
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<div class="_5pbx userContent _3576" data-ft="{"tn":"K"}" id="js_3z">
बैल गाड़ियाँ सजा दी गई है ,सारे दरवाज़ों पर नींबू काटकर देहलियों पर रख दिये है ।<br> आज सुखलाल मामा ( जो घर के सारे काम देखता था )को दम मारने की फुर्सत नही रहती थी।<br> कंदील चिमनी साफ करने है उनमें घासलेट भरना है<br> फिर बैलों को चारा पानी, गाय का दूध निकालना है ।<br>
रोज तो ये सब दिया बत्ती के बाद हो जाता है ,पर आज गाड़ी बैल से दशहरा जो
जीतने जाना है वहां से आने पर अंधेरा हो जाएगा तो सारे काम जल्दी जल्दी
निपटाने है !<br> उधर दादी कह रही थी सुखलाल थोड़ी सी गिलकी तोड़ दे मैं
शक्कर मिलाकर रख दू तेरे मालिक और ये छोरियां दशहरा जीतने जाएगी तो मुंह
मीठा करके जाएंगे ।<br> भले ही सुबह पूर्ण पोली खाई हो पर दशहरा तो गिलकी शक्कर खा कर ही जाना है।<br> गिलकी जैसा नरम स्वभाव इसके प्रारूप में मान्यता रही होगी।<br> और हम बच्चियां तीन बहने क्रमशः 7 ,5,4 साल की कबसे दादा के सिलवाये पेट शर्ट पहने बैल गाड़ी में बैठ दादा का इंतजार कर रही थी।<br> नियत समय पर सारे काम निबटाकर सुखलाल मामा आया बैलों को गाड़ी में जोता हम बहनो का खुशी का कोई ठिकाना नही!<br>
अब मालिक याने दादाजी का इंतजार सफेद धोती कुर्ता काली बंडी, (जैकेट)हाथ
मे लकड़ी सर पर काली टोपी पांव में नए जूते पहनकर जब मुख्य दरवाजे से निकले
तो हमारी जान में जान आई कि अब चलेंगे<br> पर अभी कहाँ ?<br> गांव के लोगो ने टीका लगाया पांव <br> पड़ने देर में देरी !<br> आखिर गाड़ी चली बैलों के गले की घण्टियाँ बजनी शुरू गांव से निकलकर गाड़ी मुख्य सड़क पर आई सड़क क्या?पगडंडी पर आई मामा गाड़ी दौड़ाओ<br> न?,दादा ने आंखे दिखाई हम चुपचाप बैठ गए ।<br> नियत स्थान पर पहुंचे सब लोग याने की 9 दिन से चल रही रामलीला के सभी कलाकार राम ,लक्ष्मण, हनुमान<br> बाली ,सुग्रीव सभी दादा गांव के मुखिया का इंतजार कर रहे थे।<br> और गांव के लोग भी उत्सुकता से रावण दहन का इंतजार कर रहे थे<br> सामने घास फूस का रावण तैयार था<br> रामजी ने धनुष चढ़ा लिया था और रावण के पीछे ही एक तुवर की लकड़ी पर कपड़ा चढ़कर उसे घासलेट में डुबोकर तैयार बैठा था <br> दूसरे रामलीला के गायकों द्वारा राम की स्तुति हुई <br> राम जी ने धनुष मस्तक को लगाया और बाण छोड़ा उधर कपड़े में माचिस लगाई और रावण के पुतले में आग लगाई पुतला धु धु जलने लगा।<br> सियावर रामचन्द्र की जय से खाली खेत गूंजने लगा <br> और हम रामजी को बड़ी ही श्रद्धा से निहारते रहे।<br> और यूँ असत्य पर सत्य की विजय हुई।<br> दादा को ऐसा कहते सुना।<br> शमी की पत्तियों का आदान प्रदान हुआ<br> और बहुत सारी पत्तियां घर पर लाये क्योकि हमे भी सबको देनी थी और आशीर्वाद लेना था ।<br> खूब खुशी घर आये आँगन में परदादी बैठी थी<br> सबसे पहले दादा ने उनके पांव छुए फिर वो पड़ोस में अपने काका काकी से आशीर्वाद लेने पहुंचे।<br> हमने भी सब बड़ो को प्रणाम किया<br> हमे 1,1 रुपया मिला माँ ने गिलकी के भजिये बनाये थे वो खाये ।<br>
उन रुपयों को लेकर आधी रात तक क्या लेना है मनसूबे किये ,कल सारी दूसरी
बहनो को, गांव की सहेलियों को रुपये दिखाना है इसी में कब सो गए मालूम नही।<br> सुबह उठते ही दादाजी के पास ओटले पर बैठ गए<br> वहां से जो भी गुजरता दादाजी को पायँ लागू कहकर सर झुकाकर आगे बढ़ता ।<br> उन्ही में से जो रामजी बने वो भी <br> पाय लागू कहकर दादा को प्रणाम कहते हुए निकले<br> कल दादाजी ने उन्हें प्रणाम किया।<br> ,आज उन्होंने दादा को प्रणाम किया।<br> क्यो किया ?कभी समझ न आया<br> आया पर वो दशहरा आज भी भुलाए नही भूलता<br> वो मेरे <br> " गाँव का दशहरा"<br>
बरबस ये गजल याद आ जाती है<br> राजेन्द्र नीना गुप्ता की गाई हुई<br>
एक प्यारा सा गांव<br> जिसमे पीपल की छाँव,<br> छाँव में आशियाना था<br> एक छोटा मकान था<br> छोड़ कर गाँव को हम <br> उस घनी छाँव को हम<br> शहर के हो गए है,<br> भीड़ में खो गए है ! <br>
वो नदी का किनारा, जिसमे बचपन गुज़ारा,<br> वो लड़कपन दीवाना, रोज पनघट पै जाना <br> फिर जब आई जवानी बन गए हम कहानी<br> छोड़ कर गाँव को उस घनी छाव को शहर के हो गए<br> भीड़ में खो गए है.<br> एक प्यारा सा गांव<br> जिसमे पीपल की छाँव,<br>
कितने गहरे थे रिश्ते. लोग थे या फ़रिश्ते,<br> एक टुकडा ज़मी थी, अपनी जन्नत वही थी,<br> हाय ये बदनसीबी, नाम जिसका गरीबी<br> छोड़ कर गाँव को उस घनी छाव को शहर के हो गए<br> भीड़ में खो गए है.<br> एक प्यारा सा गांव<br> जिसमे पीपल की छाँव,<br>
ये तो परदेश ठहरा<br> देश फिर देश ठहरा<br> हादसों की ये बस्ती<br> कोई मेला न मस्ती<br> क्या यहाँ ज़िन्दगी है<br> हर कोई अजनबी <br> छोड़ कर गाँव को<br> उस घनी छाव को शहर के हो गए<br> भीड़ में खो गए है.<br> एक प्यारा सा गांव<br> जिसमे पीपल की छाँव,<br>
स्वर - राजेंदर मेहता व नीना मेहता<br>
<br>
<img alt="Image may contain: one or more people, tree and outdoor" class="spotlight" src="https://scontent.fblr2-1.fna.fbcdn.net/v/t1.0-9/22050364_1577389215616061_60534541961035795_n.jpg?oh=ca6c07f530b11e752ee906fa5b5e3380&oe=5A852FBA" style="height: 720px; width: 960px;"></div>
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शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-71182228557936548762017-08-01T13:38:00.000+05:302017-08-01T13:38:42.654+05:30बस कुछ यूं ही<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अभी अभी कुछ ख्याल<br />
<div>
भिगो गए मन को</div>
<div>
जैसे सावन की झड़ी<br />
<br />
<br /></div>
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भिगो गई तन को</div>
<div>
रविवार की खामोश<br />
सुबह<br />
सप्ताह के<br />
जीवंत<br />
कितने ही मौन<br />
का उत्तर दे गई।<br />
<br />
<br />
<br /></div>
<div>
<br /></div>
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शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-43277803368622645702017-07-01T12:04:00.000+05:302017-07-01T12:04:16.236+05:30pavs <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज १ जुलाई अंतराष्ट्रीय ब्लॉग दिवस की अनेक बधाई।<br />
सोशल मिडिया पर आजकल बहुत संदेस आते है पुराने लोगो की बातें सहेज कर रखे.<br />
बिलकुल सही भी है इसी क्रम में मुझे अपने मायके में बहुत पुराणी क्किताबो में सं उन्नीस सौ अठाईस की माधुरी पत्रिका का बिशेषांक मिला (फ़िल्मी माधुरी नहीं )०जिसके सम्पादक थे पंडित कृष्णबिहारी मिश्र<br />
मेनेजिंग एडिटर पंडित रामसेवक त्रिपाठी<br />
जिसका वार्षिक मूल्य विदेश के लिए सिर्फ १ रुपया था।<br />
उसी अंक में से महाकवि देव की पावस रचना<br />
<ol style="text-align: left;">
<li>पावस </li>
</ol>
सहर सहर सोंधो, सीतल समीर डोले<br />
घहर घहर गहन, घेरि के घहरिया<br />
झहर झहर झुकि, झीनी झरि लायो देव<br />
छहर छहर छोटी, बूंदन छहरिया<br />
हहर हहर हँसि हँसि, के हिंडोरे ,चढ़ी<br />
थहर थहर तन,, कोमल थहरिया<br />
फहर फहर होत पीतम को पीतपट<br />
लहर लहर होति, प्यारी की लहरिया। <br />
<br />
</div>
शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-32675789459224448832017-06-29T11:54:00.002+05:302017-06-29T11:58:46.546+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सभी को नमस्कार।<br />
आप </div>
शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-91046085924114792212016-06-09T21:16:00.001+05:302016-06-09T21:16:23.983+05:30karmth mahila<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कर्मठ महिलाओं की श्रंखला में आज आई है मौसी<br />
वैसे तो ये मेरी दादी लगती है पर माँ के मायके के गांव के पास ही इनका मायका भी है तो बचपन से हम इनको मौसी ही कहते है ,<br />
कितने ही लोगो के जीवन में संघर्ष आये और उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूरी की पर मौसी ने अपने अपने जीवन के ५५ वर्ष बाद अपनी संघर्ष यात्रा शुरू की ,वैसे उसके पहले भी उनका जीवन कोई आसान नहीं था।<br />
गांव में ब्याही फिर पति की नौकरी शहर में कचहरी में लगी तो परिवार के सरे बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी उनपर थी अपनी सिमित आय में अपनी कार्य कुशलता और मेहनत से सब कुछ निभाया सब बच्चे पढ़े और अच्छे पदों तक पहुंचे उनकी शादिया न हुई उनके होने दो बेटे दूसरे शहर में और इस इस मकान में मंझला बेटा बहू ,कुछ दिन ठीक चलता रहा पर मौसी को लगने लगा की साथ निभने वाली नहीं है। तब उन्होंने अपनी गृहस्थी गाँव में बसा ली।<br />
दादा की पेंशन बहुत थोड़ी पर उनका सिद्धांत की बेटो से एक पैसा नहीं लेंगी ,गाँव के उजड़ घर (क्योकि गांव में कुछ साल पहले आग लगी थी)को ठीक किया जो कुछ खेती थी उसमे अपने बल से मेहनत की काम करवाती खुद खेतों में भी जाती। पक्के घर से आकर कच्चे घर और गांव का जीवन एक चुनौती जिसे उन्होंने परिवार के सामने खुद ही रखी और खुद ही उसे पूरा किया। आज ३० साल हो गए गांव में रहते हुए ,गांव के घर को उसी रूप में रखकर मेंटेन किया है। खेतों में खूब फसल पक्ति है। गेहूं ,सब तरह की डाले , कपास उस क्षेत्र में उसे सफेद सोना कहते है। राय मेथी मिर्ची धनिया मूंगफली टिल सब सारा अनाज मसले साफ करके अपने ३ बेटे एक बेटी को पैक करके भेजती है..<br />
शहर जाने के पगले सरकारी योजना के तहत उन्होंने सिलाई डिप्लोमा लिया था तो घर का साडी सिलाई खुद ही करती ,और उस समय जब परिवार नियोजन करना गांव में आपरेशन करवाना टेडी खीर थी पैर जन्होंे कई महिलाओं को साथ लेकर इस योजना का लाभ लिया।<br />
साथ ही गांव के बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित करना ,उन्हें संस्कार सीखना महिलाओं को पूजा पाठ<br />
सिखाना धार्मिक किताबें पढ़ना ,जबकि वो खुद सिर्फ कैशा ५ तक पढ़ी थी।<br />
गांव की बहुत सी रूढ़वादी बातो से , हटकर उनका वैज्ञानिक स्वरूप सामने लाना।<br />
आज ८५ साल की अवस्था में भी उनकी दिचर्य में कोई फर्क नहीं<br />
सुबह ५ बजे से लेकर रत ८ बजे तक काम करते रहना। घर में पलने वाले जानवर गाय बैल की देख भल से लेकर अख़बार पढ़ना साफ सफाई ,खेती वाले घरों में अनेक काम होता है भले ही नौकर करटे हो उनके साथ बराबरी से काम करना।<br />
हम अभी १५ दिन रहे तो हमे भी दोपहर में सोने नहीं देती कहती<br />
हमारे गांव में दोपहर का सोना वर्जित है ,<br />
कुछ फोटो दे रही हूँ ,<br />
गाय का दूध निकलती मखन बनती घी बनती और आँखों के रोग में काम में लती जिसको भी जरुरत हो<br />
इतनी उम्र में कोई चश्मा नहीं ,जितनी देर में मई कुर्सी से उठती वो कई फिट चली जाती।<br />
मितव्ययता ,सादगी ,उनके जीवन का आधार है।<br />
मौसी इसी तरह अपने कई बसंत देखे और हम उनका कुछ अंश सीखे।<br />
उन्हें सादर प्रणाम। <br />
<br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUyO0AjxHscQu7oOuU04o_OajkJ2rcceNWfJoqc0xXQ_1iVMyawawzks6HHRsZm6dzF775wLEK7LcQE2bvjEQ69VYejdI7Vi3TOyuXEmqi7xdJcxYrIa7nCJKgii9WzDzvU1kDe-kefIaM/s1600/IMG_20160331_133543.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUyO0AjxHscQu7oOuU04o_OajkJ2rcceNWfJoqc0xXQ_1iVMyawawzks6HHRsZm6dzF775wLEK7LcQE2bvjEQ69VYejdI7Vi3TOyuXEmqi7xdJcxYrIa7nCJKgii9WzDzvU1kDe-kefIaM/s320/IMG_20160331_133543.jpg" width="180" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtcroFaOr5lgQYTUeQP8GiOh-gyaTzgYAh5MTj7Sgp3ijw7cBQB9GkqBuJt_WtbAJbGhzYquF1N7o9Pq90TJ72W3xfr3i2wBAPdMB9-JXrsPBp-kTkwbDyjhP6o3adv2yNoHX8uSMTcBgh/s1600/IMG_20160331_133100.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtcroFaOr5lgQYTUeQP8GiOh-gyaTzgYAh5MTj7Sgp3ijw7cBQB9GkqBuJt_WtbAJbGhzYquF1N7o9Pq90TJ72W3xfr3i2wBAPdMB9-JXrsPBp-kTkwbDyjhP6o3adv2yNoHX8uSMTcBgh/s320/IMG_20160331_133100.jpg" width="180" /></a></div>
<br /></div>
शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-47857750327005401162016-05-08T13:23:00.001+05:302020-06-24T11:53:10.535+05:30kramth mhilaye<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बहुत दिनों से मन में इच्छा थी की हमारे आसपास की उन कर्मठ और संघर्ष रत महिलाओं की मिडिया ,या कही और चर्चा न हुआ हो हमारे आसपास की चाहे वो अपने ही परिवार की नानी ,दादी ,या पड़ोस की नानी , दादी ,बुआ ,मौसी ,चाची,, ताई ,मामी ,अपनी सास ननद हो ?जिन्होंने आम िंदगी से हटकर संघर्ष किया हो जीवन के लिए उन्हें हम सामने लाये।<br>
उसी श्रंखला में आज की एक कड़ी है<br>
कर्मठ महिला<br>
गुलाब माँ<br>
मातृत्व दिवस के अवसर पर उन्हें नमन<br>
<br>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhV2PfBUFfaXBgoMeAGgU3YWL92inCCHqH8CwJkyb-iIHY82T9nWEVlarvU9LTJnJ015QQl53Kb3HWG7y-FfkJxYHjGiGFaFh3jKpqGLwJNbvowCKMhBUElBx_Kt2Ro_C3v5ytmYskmpLcQ/s1600/13076938_1104867252868262_3500103761688576302_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhV2PfBUFfaXBgoMeAGgU3YWL92inCCHqH8CwJkyb-iIHY82T9nWEVlarvU9LTJnJ015QQl53Kb3HWG7y-FfkJxYHjGiGFaFh3jKpqGLwJNbvowCKMhBUElBx_Kt2Ro_C3v5ytmYskmpLcQ/s320/13076938_1104867252868262_3500103761688576302_n.jpg" width="180"></a></div>
<br>
आज वो जिन्दा होती तो करीब 120 साल की होती<br>
13 बच्चों की माँ
बनाकर छोड़ गया और न जाने कहाँ चला गया था उसका पति ?गाव में बीमारी फैली
कुछ बच्चे उसी चपेट में आये कुछ ने पहले ही जन्म के कुछ घण्टो कुछ दिनों के
बाद आखिरी साँस ले ली थी।<br>
कुल 3 बचे थे दो बेटी और एक बेटा बड़ी
बेटी की शादी कर दी बेटा कुछ पढ़कर रेलवे में नोकरी पा गया ,छोटी बेटी 12
साल की को लेकर शहर आ गई ।<br>
13 वर्ष लगते उसकी भी शादी कर दी<br>
गुजारे के लिए शहर के प्रतिष्ठित वकील के घर खाना बनाने का काम करने लगी और उन्होंने अपने बड़े से मकान में एक कमरा<br>
दे दिया रहने को।<br>
छोटी बेटी उसी शहर में ब्याही थी 6 महीने बीतते ही उसके पति की मृत्यु हो
गई बाद में पता चला पहले से उसको कोई गंभीर बीमारी थी जिसका पता सबको था
।खूबसूरत विधवा बहू को अपने घर में कैसे रखे ?माँ के पास भेज दी गई ,जहाँ
रहती वहां विधवा बेटी के साथ रहना असहय था<br>
तब मेरे दादाजी जो कभी
कभी गाँव से आते कचहरी के काम से उन्हें सजातीय लीगों से पता चला की अपने
समाज में एक महिला की ऐसी स्थिति है तब हमारे बाड़े में उनको रहने को कमर
दिया ।साथ ही विधवा बेटी की पढाई भी जरी रखी उन्हें टीचर ट्रेनिग करवाई उस
जमाने में 7वि<br>
कक्षा के बाद ही टेनिंग होती थी और फिर वो सरकारी
स्कूल में शिक्षिका बन गई जब तक उनकी माँ उन वकील साहब के घर खाना बनाने का
काम करती रही ।<br>
आज वो बहनजी भी होती तो 84 साल के लगभग उनकी उम्र
होती अपना कार्यकाल ईमानदारी से पूरा करके राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त
श्रेष्ठ शिक्षिका का अवार्ड भी पाया ।<br>
बाल विधवा बेटी के साथ और अगर बेटी बहुत ही सुंदर हो तो दोनों माँ बेटी का जीवन कितना कष्टमय रहा है वो मैंने देखा है।<br>
उस समय तो मेरी उम्र बहुत कुछ नही समझ पति थी ,आज जब सोचती हूँ चलचित्र की भांति उनका जीवन मेरी आँखों के सामने आ जाता है।<br>
कई सालो बाद "गुलाब माँ ;"हाँ यही नाम था उनका,<br>
उनके पति को भी याद आई और पता ठिकाना ढूंढते ढूंढते आ गए अधकार जताने पर
स्वाभिमानी गुलाब माँ ने उनको घर में न घुसने दिया और मोहल्ले के लोगो ने
भी उनका साथ दिया।जब भी वो आते झगड़ा करते ,मुझे धुंधला सी याद है धोती
कुरता और सर पर काली टोपी रहती।जिस दिन वो आते गुलाब माँ के घर अशांति पसर
जाती माँ बेटी के बीच भी लड़ाई होती ।<br>
पर गुलाब माँ उन्हें एक पैसा नही देती जिसके लिए वो आते ।<br>
गुलाब माँ अपने उसूलो की पक्की थी ।पथरीले जीवन पर चलते चलते वो भी सख्त हो गई थी।<br>
उनकी कला बेमिसाल थी ।जितने भी अख़बार के कागज के टुकड़े होते उन्हें उन्हें एकत्र करती उनकी लुगदी बनाती ।उस लुगदी से टोकनिया,<br>
गुड़िया बनाती ।और जितना भी बाड़े में में वेस्ट मटेरियल मिलता ,हलवाई के घर
से आये जलेबी सेव के कागज की पुड़िया के कागज ,तो लुगदी में डाल देती और
उनमें बंधा हुआ धागा लपेट कर रख लेती ।उस धागे से गोदड़ी सिलती, गुड़िया के
कपड़े सिलती ,अपना लहंगा (घाघरा ही पहनती)सिलती<br>
अपना ब्लाउज(पोल्का)जिसमे पीच्छे सिर्फ डोरियाँ होती वो खुद ही बनाती और सूती ओढ़नी<br>
पहनती। उनकी बनाई करीब 50 साल पुराणी ये गुड़िया आज भी मेरे पास है इसमें जो भी सामान उपयोग हुआ <br>
उसमे एक पैसा भी भी नहीं लगा है। <br>
अपनी खटिया खुद ही रस्सी से बुनती। अपने छोटे से घर जिसमे वो करीब ४५ साल
रही कंचन बनकर रखा अपनी मेहनत से। उनका बनाया खाना सिमित साधनों वाला आज भी
भुलाया नहीं जाता। <br>
और भी बहुत सी बाटे है जो समय समय पर याद आती रहती है.<br>
आज जब हम सर्वसाधनो से युक्त घरों में रहते है छोटी छोटी बातो में
असन्तोषी हो जाते है तब गुलाब माँ बहुत याद आती है और जीवन को संबल मिलता
है।</div>
शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-37344127883327697232015-12-28T21:42:00.001+05:302015-12-28T21:42:23.110+05:30NARI TERE KITNE ROOP <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नारी तेरे कितने रूप<br />
अभी पिछले हफ्ते गांव जाना हुआ मेरे मायके का गांव<br />
वो गलिया जो अक्सर मन में रहा करती थी उनसे फिर मुलाकात करना बड़ा सुखद रहा। मौसम बदलते है फिर इतने सालो में तो बहुत कुछ बदल गया विकास के बढ़ते चरण स्पष्ट देखे जा सकते है।<br />
हर घे में एक मोटर सायकल अनिवार्य सी हो हो गई हो भी क्यों न ?काम आसान हो जो गए है पेट्रोल मंहगा हो गया है ऐसा कहि लगता नही ?मोबाईल पर खर्च करना फिजूल खर्ची बिलकुल भी नही माना जाता जैसे हम मानते है। सबकी अपनी जरूरते है।<br />
और भी बहुत चीजे है जिनके बारे में जानकर देखकर कुछ सुखद और कुछ दुखद आश्चर्य होता है।<br />
इन्ही के बीच एक दादी अपने ७ वर्षीय पोते के साथ हमारे घर में किरायेदार के रूप में रहती है खेतो में मजदूरी करके बच्चे को अंग्रेजी माध्यम स्कुल में पढ़ा रही है बच्चे के पिता घर का किराया दे देते है और स्कुल की फ़ीस दे देते है और अपनी पत्नी और बच्चे के साथ शहर में रहता है पत्नी जिसने अपने सौतेले बेटे को रखना इसलिए नामंजूर किया की जब उसकी अपनी माँ उसे छोड़कर दूसरे के साथ भाग गई तो मैं क्यों राखु ?<br />
इसको ?<br />
दादी से बच्चे का अपमान ,उसकी अवहेलना देखा नही गया और वह अपने कुछ रिश्तेदारो की मदद से इस गांव में लड़ प्यार से बच्चे को पाल रही है। जिस उम्र में उसे सहारे की जरुरत है वो सहारा बन रही है। <br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwFFoPRGSBXrIdShhFdTq9KaCY5TQi7c1s7ePTk0dx2dGs6vP4iyc5GLfGf7mwrCuAvNZro5qb6AErNLr8qvdA1Vjw7Bi6FC_yJY-jkyhFMB41sj0PpqlcFlhdRog6GRcOGdeSf3JCSyFZ/s1600/IMG_20151222_082331.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwFFoPRGSBXrIdShhFdTq9KaCY5TQi7c1s7ePTk0dx2dGs6vP4iyc5GLfGf7mwrCuAvNZro5qb6AErNLr8qvdA1Vjw7Bi6FC_yJY-jkyhFMB41sj0PpqlcFlhdRog6GRcOGdeSf3JCSyFZ/s320/IMG_20151222_082331.jpg" width="240" /></a></div>
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शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-41531367880474027342015-12-16T00:01:00.001+05:302015-12-16T00:01:50.276+05:30mn ki bat <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अतीत कितना खूबसूरत होता है ये हर लेखक या हर व्यक्ति महसूस करता है और अपनी अभिव्यक्ति अभिव्यक्त करता है अपने अपने माध्यम से ऐसा ही एक दौर ब्लॉग का हुआ करता था जब हम समाज ,घर ,आँगन अपने आसपास हुए रोजमर्रा के भावो व्यक्त किया करते थे। साथ ही यात्रा संस्मरण ,पारिवारिक संस्मरणों का आनंद लिया करते थे। आज फेसबुजैसे माध्यम ने हमे सिर्फ राजनितिक हलचल तक सिमित कर मनभेद की ओर अग्रसर कर दिया है, और ब्लॉग लेखन अतीत हो गया है। </div>
शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-5557015327710509552015-10-07T06:30:00.000+05:302015-10-07T06:30:12.557+05:30mn ki bat <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मन की बात<br />
करीब एक साल से ब्लॉग पर कोई पोस्ट नही डाली कुछ पारिवारिक व्यस्तता और कुछ फेसबुक का चलन<br />
आज ब्लॉग का समय याद आया तो महसूस हुआ की और कुछ न कर पाये चलो फिर से शुरुआत की जय<br />
तो एक छोटी सी शुरुआत ही सही ....... <br />
<br />
बहुत सालो पहले जब हम पत्र पत्रिकाये पढ़ते थे बहुत सरे गुड मैनर्स के लेख लिखे जाते थे ज़ैसे किसी के घर जाना है तो कैसा व्यवहार करना चाहिए ,किसी के घर मेहमान बनकर गए है तो अपने साथ क्या क्या सामान लेना चाहिए ताकि मेजबान को तकलीफ न हो आदि आदि ऽअज समय बदल गया है लोगो के घर आन अ जाना बहुत कम हो गया है किसी काम से गांव से शहर भी आते है भी आते है तो लोग आवागमन के साधन के चलते कोई भी रिश्तेदार के घर रुकना पसंद नही करते .मोबाईल से बात कर लेते है सारी दुनिया मुठी में आ गई याने की मोबाईल में सारी इन्फर्मेशन उससे लेकर अपना काम कर लेते है ,<br />
और इस वजह से मोबाईल अति व्यस्त रहते है पर क्या मोबाईल के भी कुछ मैनर्स होते है की सामने परिवार के लोग बैठे हो बातें कर रहे हो आप है की वाट्सअप और फेसबुक के चुटकुलो को पढ़कर हंस रहे है क्या आको लगता है की कुछ तो मैनर्स होने चाहिए ? <br />
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शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-58481511070269523862014-09-18T11:45:00.000+05:302014-09-18T11:45:48.114+05:30 बस कुछ यूँ ही ----<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
यादो के साथ पीछे जाना सुखद है ,<br />
और वो सुख प्रत्यक्ष में दंश है।<br />
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एक अदद आश्रय पाकर निराश्रय हो गए हम,<br />
तुम्हारे घर में बेगाने हो गए अपनापन ढूंढते ढूंढते। <br />
<br />
आये थे ख़ुशियो के भागीदार बनने ,<br />
खारे पानी के साथी बनकर रह गए हम । <br />
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शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7736130555916967745.post-61319499145321989072014-09-01T05:59:00.000+05:302014-09-01T05:59:20.801+05:30निमाड़ का वरत वर्तुळा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज संतान सातो है याने शीतला सप्तमी . आज के दिन निमाड़ मालवा में व्रत वर्तुले का समापन दिवस है यानि की हरितालिका तीज से से लेकर आज सैलई सात्तो तक निमाड़ी गृहिणी यो का कढिन उपवासों के साथ अपने परिवारों के लिए मंगल कामना करने का व्रत आज पूरा होता है. शीतला माता की पूजा करके ठंडा खाना बनाने से लेकर खाने से खिलने तक का। हरतालिका तीज का निर्जला व्रत ,उसी वर्त में में पुरे घर परिवार के लिए खाना बनाना और नियमितता के घर के काम पुरे करना फिर पूजा रात्रि जागरण कर सुबह से गणेशजी के आगमन की तैयारी में लग जाना ,लड्डू बनाना आज तो लड्डू बना आसान हो गया है पहले तो खलब्बते में कूट कर चूरमे के लड्डू बनाकर गणेशजी को घर लाया जाता था ,उसके बाद ऋषि पंचमी में खेत में जहाँ हल चला हो वहां का कुछ भी नहीं खाना मतलब शककर भी नहीं तालाब में होने वाला सिंगाड़े के आटे से बनी कोई चीज खाना इस बीच घर परिवार के सारे काम निबटाना। फिर आई हल षष्ठी( हलछट )याने आज भी खेत का हला हुआ कुछ नहीं खाना पंसार के चांवल खाना पूजापाठ करना कहानी सुन्ना सुहागन महिला को भोजन कराना।<br />
फिर शाम को अगले दिन शीतला सप्तमी के लिए खाना बनाना जिसमे मीठे परांठे ,नमकीन पराठे , सादी दो पूड की रोटी सुखी सब्जी बनाना। आज तो हम सब अपनी सुविधा और साधन के चलते पुरियां बना लेते है।<br />
मुझे आज भी याद है जब माँ चूल्हे पर घंटो पराठे सकती रहती थी। और हम सब गणेशोत्सव के कार्यक्रम देखककर लौटते तो माँ चूल्हा लीप रही होती थी क्योकि जिस चूल्हे पर शीतला सप्तमी का नैवेद्य बना होता उस दिन वह चूल्हा नहीं जलाया जाता था।<br />
इस व्रत वर्तुले में सभी बहनो को बधाई और अपनी माँ, दादी ,छोटी दादी , ताईयाँ ,काकियाँ , भाभियाँ , बुआओ<br />
सासुमा ,जेठाणी देवरानी सभी को नमन करती हूँ जो अपनी परम्पराओ के साथ रहकर इन व्रतो को सार्थक बनाती है और हमारे जीवन को ऊर्जा से भर्ती है उतस्वों में प्राण डालती है।<br />
इस अवसर पर माँ तुम बहुत बहुत याद आती हो। <br />
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शोभना चौरेhttp://www.blogger.com/profile/03043712108344046108noreply@blogger.com4