Monday, July 12, 2010

मंगल गीत

सप्तपदी के समय
सबने कहा था .....
जोड़ी अच्छी है
"बन्ने "की शान के
गीतों को
अपना "आदर्श "
बना बैठे
उन पर
अपना आधिपत्य
जमा बैठे
तुम
तुम्हारे "यूज एंड थ्रो "की
मानिंद
व्यवहार को ,
सस्ता रोये बार बार
"मंहगा "रोये एक बार
को
अब तक
संभालती रही
मै
एहसान या भीख
में मिली
समानता नहीं ?
फेंके गये
अस्तित्व को
उठाकर
मंहगे सौदे को
छोड़कर
अनेक रास्तों की
यात्रा पर
निकल पड़ी हूँ
मै
रोटियों की खुशबू
मुझे अब भी
भाती है |

21 comments:

  1. शोभना जी बहुत गहन अभिव्यक्ति है हर स्त्री मन की व्यथा और क्या शब्दों में बांधा है
    " यूज एंड थ्रो" ये भी जीवन का एक सच है
    "एहसान या भीख
    में मिली
    समानता नहीं ?
    फेंके गये
    अस्तित्व को
    उठाकर
    मंहगे सौदे को
    छोड़कर
    अनेक रास्तों की
    यात्रा पर
    निकल पड़ी हूँ"
    ये शायद आज की नारी या आने वाले कल की नारी की तस्वीर अव्यश्य है
    "रोटियों की खुशबू
    मुझे अब भी
    भाती है" कोई भी स्त्री इस से भाग नहीं सकती जहाँ भी जाओ इसकी सुगंध हमें अपने कर्त्तव्य की याद दिलाती है |
    मुझे इस कविता से ऐसा ही कुछ समझ आया. अगर कोई भी बात आपकी कविता के अनुरूप न लगे तो अन्यथा न ले

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  2. अस्तित्व को
    उठाकर
    मंहगे सौदे को
    छोड़कर
    अनेक रास्तों की
    यात्रा पर
    निकल पड़ी हूँ
    मै
    रोटियों की खुशबू
    मुझे अब भी
    भाती है
    शोभना जी बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ..
    एक स्त्री के अंतर्मन की आवाज़.

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  3. बहुत सुन्दर कविता है शोभना जी.

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  4. वेदना की बढ़िया अभिव्यक्ति !

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  5. अस्तित्व की लडाई ना चाह कर भी घर छोड़ कर जाने को विवश करती है ...
    कविता पढ़कर मन उदास हो गया है ...

    यही इसकी सार्थकता भी है ...!

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  6. फेंके गये
    अस्तित्व को
    उठाकर
    मंहगे सौदे को
    छोड़कर
    अनेक रास्तों की
    यात्रा पर
    निकल पड़ी हूँ
    मै
    रोटियों की खुशबू
    मुझे अब भी
    भाती है |

    Uf! Kya gazab ka likh dala hai aapne!

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  7. बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति !!

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  8. रोटियों की खुशबू सदैव ही आकर्षित करेगी। गुबरैला का गोबर कौन हटाये।

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  9. तुम्हारे "यूज एंड थ्रो "की
    मानिंद
    व्यवहार को ,
    सस्ता रोये बार बार
    "मंहगा "रोये एक बार
    को
    अब तक
    संभालती रही
    और इस सम्भाले गये में सम्भालने योग्य क्या है .. पुनरीक्षण जरूरी है
    अस्तित्व का सवाल रोटियों की खुशबू के इर्द गिर्द क्यों है
    सुन्दर ... अत्यंत सुन्दर रचना

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  10. रोटियों की खुशबू
    मुझे अब भी
    भाती है

    कितनी सच्ची बात कही आपने,
    नेट पर कम ही आ पता हूँ, आज देखा आपकी पोस्ट आई हुई है,
    पढ़ी तो कमेन्ट किये बिना रह नहीं पाया.

    रिगार्ड्स,
    मनोज खत्री

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  11. फेंके गये
    अस्तित्व को
    उठाकर
    मंहगे सौदे को
    छोड़कर
    अनेक रास्तों की
    यात्रा पर
    निकल पड़ी हूँ..

    एक यात्रा जिसमें अनेकों व्यवधान आगे भी हैं..लेकिन चलते रहना है बिना समझोते किये ..सशक्त अभिव्यक्ति.

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  12. तुम्हारे "यूज एंड थ्रो "की
    मानिंद
    व्यवहार को ,
    सस्ता रोये बार बार
    "मंहगा "रोये एक बार
    को
    अब तक
    संभालती रही
    कितनी वेदना छिपी हुई है, इन शब्दों में...!... दिल को छू लेने वाली कृति!

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  13. फेंके गये
    अस्तित्व को
    उठाकर
    मंहगे सौदे को
    छोड़कर
    अनेक रास्तों की
    यात्रा पर
    निकल पड़ी हूँ
    मै
    रोटियों की खुशबू
    मुझे अब भी
    भाती है |
    बहुत ही संवेदनशील रचना...स्त्रियों के जीवन के सच को...बहुत अच्छी तरह उकेरा है.

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  14. बहुत अच्छी कविता है.
    ..रोटियों की खुशबू
    मुझे अब भी
    भाती है.
    ...वाह क्या बात है.

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  15. बहुत प्रभावशाली रचना....अपना अस्तित्व खोजती आज की नारी

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  16. नारी की व्यथा का बखूबी वर्णन ।

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  17. पुरुष चरित्र का दर्शाती अच्‍छी अभिव्‍यक्ति।

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  18. अनेक रास्तों की
    यात्रा पर
    निकल पड़ी हूँ
    मै
    रोटियों की खुशबू
    मुझे अब भी
    भाती है |
    bahut hi badhiyaa

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  19. यूज़ एंड थ्रो के अर्थ को बहुत अच्छे से जिया है आपने ....
    औरत के मर्म को, नये अस्तित्व की तलाश को बाखूबी बयान किया है ...

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  20. बड़ी भावनात्मक सुन्दर रचना. आभार.

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  21. क्या लिखती हें आप
    आप के सब्दों में एक अजीब सी ..... (मुझे सब्द नहीं मिल रहा) है
    कास मैं आप की तरह लिख पाता , मैं ये तो जनता हूँ की सब्द अपने में सिर्फ सब्द होते है पर मन की विचार धरा के प्रवाह में उनको एक अच्छे मांझी की तरह खेना,
    आप जैसे लेखक ही ये काम कर सकते है ....
    मैं आप से बहुत ही प्रभावित हूँ ...

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