Tuesday, August 31, 2010

"डाक्टरनी जीजी "

डाक्टर साहब के क्लिनिक पर मरीजो की लाइन लगी थी ,बारिश तो बहुत नहीं हुई थी |पर उससे होने वाली बीमारिया
अपने नियत समय पर आ गई थी |मै अपनी एक रिश्तेदार को लेकर डाक्टर के पास लेकर गई थी उन्हें काफी बड़ी बड़ी फुन्सिया हो रही थी |काफी घरेलू उपचार भी किये पर कोई फायदा नजर नहीं आ रहा था |बहुत सोचा किसे दिखाए ?आसपास बड़े बड़े अस्पताल है इतनी छोटी चीज के लिए वहा जाना ?
फिर ब्लड टेस्ट ,एलर्जी टेस्ट ये सब सोच कर हमारे पारिवारिक फिजिशियन को बताना ही उचित समझा |डाक्टर साहब बहुत सह्रदय है (वो इसलिए की सिर्फ उनकी फीस 50 रूपये है )और वहां मजदूर ,सब्जी फल बेचने वाले ,और हमारे जैसे लोग ही जाते है |हमारा नम्बर आया तो देखा की एक महिला पेट दर्द की शिकायत से परेशान थी |डाक्टर साहब ने उसे दवाईयों के साथ हिदायत दी की ,मूंग दाल की खिचड़ी खाना ,अगले दो दिन और आराम करना |
डाक्टर साहब इंजेक्शन लगा दो न ?
आराम करूंगी तो पैसा कहाँ से आवेगा ?
पहले ही चार दिन के पैसे कट जावेंगे |
फिर मूंग दाल की खिचड़ी ?डाक्टर साहब चावल खा लू तो नहीं चलेगा क्या ?
दाल तो १०० रूपये किलो है |
डाक्टर साहब ने कहा ठीक है खा लेना |
डाक्टर साहब ने उससे सिर्फ २५ रूपये ही लिए |
हमने भी दिखाया उन्होंने दवाई भी दी और उससे दो ही दिन में फायदा भी हो गया |
कितु मेरे मन में बार बार यही विचार कोंधता रहा की की दाल? भी एक गरीब आदमी नहीं खा सकता ?
करीब एक साल से इतना ही भाव चल रहा है और न जाने कितने ही लोगो ने दाल भी खाना छोड़ दिया होगा ?
बहुत से लोग सोचते है !की इन गरीबो पर क्या दया करना ?इन्हें तो घर घर से खाना मिल जाता है कपड़े मिल जाते है
इनका क्या खर्चा ?इनका रहन सहन का तरीका भी ऐसा है की इन्हें घर या झोपडी में क्या खर्चा ?इन्हें कपड़ो के साथ दीपावली पर कितना सामान मिल जाता है ?
कितु क्या ? बासी कुसी खाने से इनका स्वस्थ रहना संभव है? फिर रोज कोई इन्हें खाना थोड़ी न देता है जो बचता है वो भी फ्रिज में रखने के बाद हम देते है |
डाक्टर साहब का भी अपना घर बार है यहाँ तक पहुंचने में ही उन्हें कई संघर्ष करने पड़े होंगे ,ये अलग बात है |
मुझे अपना बचपन का गाँव याद आ गया हमारे गाँव में एक सरकारी अस्पताल था\वहां पर डाक्टर साहब की पोस्टिंग थी |
सुबह डाक्टर साहब अस्पताल में बैठते जिसकी उन्हें तनखाह मिलती थी |शाम को या दिन भर कभी भी कोई मरीज आते तो उनसे फीस लेते |ओर बाकि समय हिंद पाकेट बुक्स से मंगाई गई उस जमाने कि लोकप्रिय उपन्यास पढ़ते |और उनकी इस घरेलू लायब्रेरी योजना का गाँव का हर व्यक्ति पूरा उपयोग करता |और इसी बीच गाँव में शहर से छुट्टियों में आए लोगो से भी मुलाकात करते और साथ में चाय का दौर भी चलता जो कि डाक्टरनी जीजी( हाँ यही नाम प्रचलित था उनका सबके बीच )निरंतर रसोई से भेजती रहती \मुझे आज भी याद है मिटटी के चूल्हे के पास बैठी हुई उनकी छबी |गोरा सा मुख, लम्बीसी तीखी नाक, माथे पर चवन्नी जितना बड़ा लाल कुमकुम का टीका ,सर पर ढंका आंचल |चूल्हे के एक तरफ पीतल का चाय पतीला चढ़ा ही रहता और एक तरफ बड़े से पीतल के पतीले में दूध खौलता रहता |
दो भैस ,दो गाय का दूध ,सब डाक्टर साहब कि नज़र में न आए उनके मरीजो को पिला देती यह कहकर कि इतनी गर्म दवाई खाओगे तो और गर्मी बढ़ेगी शरीर में |उधर डाक्टर साहब दो रूपये (उस समय यही बहुत था गाँव में)फीस लेते इधर डाक्टरनी जीजी उनकी ऐसी सेवा कर देती |बदले में मरीज भी भेंसो का दाना पानी समय पर दे देते |
डाक्टरनी जीजी ने गाँव में रामायण पाठ शुरू करवा दिया था हर सोमवारको | जो पढ़ी लिखी महिलाये रहती वो पाठ करती बाकि सब महिलाये ध्यान से सुनती और सारी व्यवस्था लगा देती \गाँव का बहुत स्वरूप बदल गया कितु आज भी ५० साल पहले शुरू कि गई रामायण पढने कि सामूहिक प्रथा आज भी अनवरत चालू है |गाँव में जितनी भी उन दिनों सरकारी योजनाये आती बराबर उनमे सक्रियता से भाग लेती और गावं की महिलाओ को भी प्रोत्साहित करती और गावं की महिलाये उनका भरपूर सहयोग करती |इसमें सिलाई सिलाई सीखना .और आसान सी किश्तों में मशीन
खरीदना मुख्यत; शामिल था और सबसे कठिन था उन दिनों परिवार नियोजन के लिए गाँव में जाग्रति लाना |लडकियों को स्कूल भेजना |

भले ही इन कामो के लिए वे कभी भी पुरस्कृत नहीं हुई न ही कभी उनकी चर्चा हुई किन्तु जो जाग्रति के बीज उन्होंने बोये थे एक ग्रहिणी बनकर वे आज लहलहा रहे है |
आज भी मेरे मन में, मेरी हम उम्र भाई बहनों के दिल में ,कुछ गाँव के लोगो के मनमें उनके प्रति अपार श्रद्धा है ,क्योकि हम तो उन्हें सिर्फ गर्मी की छुट्टियों में ही मिल पाते थे जब गावं जाते थे
फिर उस जमाने की हम लडकियाँ शादी के बाद कहाँ इतना मायके और वो भी गावं जाना हो पता था ?
सिर्फ वो सुनहरी और अनमोल यादे ही हमारे पास शेष रह जाती है |
डाक्टरनी
जीजी जब भी शहर से कोई फिल्म देखकर आती महीनो तक उसकी कहानी, उनके पात्रो कि चर्चा करती रहती |उन दिनों गाँव से शहर जाना इतना आसान नहीं था ग्रामीणों के लिए विशेषकर महिलाओ के लिए जितना आज सुलभ हो गया है |
कालांतर में बहुत सारे डाक्टर आए किन्तु उस डाक्टर परिवार में जो विशेषताए रही वे बेमिसाल थी |
आज जब वो सारे दिन याद आते है !और आज के डाक्टर साहब और उनकी पत्नी को देखती हूँ तो डाक्टर साहब तो फिर भी दयावान हो जाते है ,पर श्रीमती डाक्टर? या सचमुच में वो खुद भी डाक्टर हो सकती है ?
उन्हें भी तो अपने बच्चो को डाक्टर बनाना है न ?
तो सेवा धर्म एक सपना सा लगने लगता है |

19 comments:

  1. आपका आलेख गहरे विचारों से परिपूर्ण होता है।

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  2. सही कहा आपने …………आज और तब मे बहुत अन्तर आ गया है । आज संवेदनशून्य हो चुके हैं सब्।

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  3. हिंद पॉकेट बुक्स की याद अभी भी है. घर पर कई किताबें पेटी में रखी भी हैं. सही कहा आपने उन्हें भी तो अपने बच्चे को डाक्टर बनाना है. उन दिनों बच्चों की पढाई में आज जैसा खर्च नहीं हुआ करता था.

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  4. समय की तरंगों की सही माप।

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  5. कितने साल पीछे के चित्र दिखा दिए ...संसमरण अच्छा लगा .

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  6. बहुत सुंदर बात कही आप ने, हमारे यहां भी एक ड्रा० जी थे डा० गुलाटी, रिटायर थे मेडीकल से, जब चाहो उन्हे जगाओ कभी बुरा नही मानते थे, ओर फ़ीस जो चाहो देदो, अगर पेसे नही तो दवा भी खुद ही दे देते थे मुफ़त मै, उन के बच्चे भी डा० बने है, लेकिन लोगो का खुन पी कर नही लोगो की दुया से ओर अपनी मेहनत से आज भी लोग उन्हे प्यार ओर सम्मान से यद करते है

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  7. डाक्टरनी जीजी..
    ..मौन सेवा धर्म का निर्वहन कहानियों में ही पढ़ने को मिलता है। आज भी ऐसे महान लोग होंगे लेकिन मिडिया की निगाह उन पर नहीं पड़ती या वे मिडिया की नज़रों में आना ही नहीं चाहते।
    ..प्रेरक संस्मरण के लिए आभार.

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  8. दी नमस्ते
    आज कल जादा समय नहीं मिलता पर कोसिस करता हूँ के एक झलक आप के और संगीता दी के ब्लोगों पर जरूर मारूं दिन समाप्ति तक...
    आज आप की ये कहानी पढ़ी तो तो मैं भी बहुत पीछे चला गया ...
    आप की यादों से सामने तो मेरी यादें तिनका हैं
    पर जो भी है बहुत हसीं है .....
    और आप जो लिखती है ..लगता है ..मेरे मन से निकाल के लिखा हो
    ९० का दशक ही मेरे बचपन से जवानी का पड़ाव था
    पर जब आप कहती हैं कि ५० साल पहले की बात है तो ....बड़ा प्यारा लगता है
    और मुझे लगता है ये सब बातें मेरे बचपन गुजरी हों .....
    बहुत ही प्यार से लिखती हैं आप
    you r so sweet....di..
    न जाने कितने ही मन (लोग) अपने गाँव का भ्रमण करके आ गए होंगे ये कहानी पढ़ के

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  9. काश , हर गाँव में एक महिला, आपकी डाक्टरनी जीजी जैसी होती तो बस हर गाँव का कायापलट हो गया होता,..हिम्मत करके नई शुरुआत लानेवाले लोग बहुत कम होते हैं....आपकी डाक्टरनी जीजी को नमन
    बहुत ही सुन्दर संस्मरण.
    बिचारे, मजदूरों, कामवालियों के लिए मैं भी अक्सर सोचती हूँ...इतनी महँगी सब्जी है..दालें हैं...ये लोग जी तोड़ मेहनत करते हैं...पर खाना क्या खाते होंगे.

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  10. आज के संवेदना शून्य जीवन में डॉक्टरनी जीजी सचमुच एक स्नेह का सोता नजर आती हैं । कितना कुछ कर सकते हैं हम घर बैठे भी ।

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  11. महंगाई डायन खाए जात है ......

    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com

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  12. bahut sundar,
    कृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
    अकेला या अकेली

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  13. हिंद पाकेट बुक्स की घरेलु योजना की खूब याद दिलाई आपने...हम सन उन्नीस सौ साठ से इस योजना के सदय बने और लगभग बीस बैस साल तक रहे, मेरी दादी हर महीने आने वाली किताबें बहुत रूचि से पढ़ा करती थीं ...क्या दिन थे वो भी उसके साठ एक पत्रिका 'साहित्य संगम' भी आया करती थी, जिसकी कई प्रतियाँ अभी भी हमारे घर में सुरक्षित हैं...लगभग सात आठ सौ किताबों में से अब सौ दो सौ ही बची हैं बाकि लोग पढने के बहाने ले गए और उन्हें लौटना भूल गए...
    बहुत अच्छा लेख है ये आपका ...बधाई
    नीरज

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  14. आप सभी लोगो का ह्रदय से आभार |
    ये कहानी नहीं ?संस्मरण है ,जो मेरा प्रेरणास्त्रोत रहा जीवन भर जो कुछ भी मैंने थोडा काम किया है लोगो से जुड़कर डाक्टरनी जीजी आँखों के सामने रहती |
    डाक्टरनी जीजीका बहुत कम अवस्था में ही केंसर जैसी बीमारी के कारण इस दुनिया से चली गई |

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  15. आपका लेख अच्छा लगा .........

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  16. आज के युग में सब संवेदनाएं शुन्य होती जा रही हैं |
    आपने बहुत सही लिखा है |अच्छा आर्टिकल |
    बबधाई
    आशा

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  17. जमाना बदल गया है...लेकिन बदलाव अच्छा नहि है....दया, माया,प्रेम..सब न जाने किस अंधकार में खो गए है!..सार्थक रचना!

    ..जन्माष्टमी की बहुत बहुत बधाई!...ढेरों शुभ-कामनाएं!

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