Sunday, April 17, 2011

कुछ अनकही .....

१.

तुम
हमेशा से
कल्पनाओ में,
कल्पनाओ के दुर्ग बनाती रही
भावनाओ से ,सवेदनाओ से ,
अपनेपन के मेल से
तुम्हारे द्वारा निर्मित
इस दुर्ग को कोई जान पाया
तुमने इसे मूर्त रूप
देकर भी अभेध्य ही
रखा !
तुम जानती थी
इस दुर्ग के द्वार
खुलते ही
तुम्हारे हाथ क्या
आयेगा
सिर्फ और सिर्फ चिंगारी |


2.
जाने क्यों ?
सवेदनाये
कागजी होकर रह गई है

जाने क्यो?
सवेदनाये
पानी के बुलबुले
की तरह हो कर रह गई है
जाने क्यो ?
सवेदनाये
बंद पानी की बोतल की खाली बोतल की तरह
हलकी होकर रह गई है
जाने क्यों ?
सवेंदनाये
आभासी होकर रह गई है |
अट्टालिकाओ के सूनेपन में
सुनामी के गूंजते सतत से शोर में
शहरों के रूखेपन में
रिश्तो के बेगानेपन में
भीड़ के अकेलेपन में
कही गुम होकर रह गई है
क्या सवेदनाये ?





21 comments:

  1. सचमुच संवेदनाएं गुम हो रही हैं!

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  2. जाने क्यों ?
    सवेदनाये
    कागजी होकर रह गई है...

    यथार्थपरक पंक्तियां...
    दोनों ही रचनाएं बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी हैं.
    हार्दिक शुभकामनायें.

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  3. दोनों रचनाएँ बहुत संवेदनशील ...

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  4. शहरों के रूखेपन में
    रिश्तो के बेगानेपन में
    भीड़ के अकेलेपन में
    कही गुम होकर रह गई है
    क्या सवेदनाये ?
    Kitnee darawnee sachhayi hai!
    Pahli rachana bhee bahut sundar hai....wahee akelapan...

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  5. दोनों ही रचनाएं बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी हैं| धन्यवाद|

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  6. शहरों के रूखेपन में
    रिश्तो के बेगानेपन में
    भीड़ के अकेलेपन में
    कही गुम होकर रह गई है
    क्या सवेदनाये?

    संवेदनाएं तो आजकल विलोप प्राय श्रेणी में चली गयी हैं. कुछ भी होता रहे हम मुंह घुमा कर चल देते है.
    अद्भुत भावों से सुसज्जित कविता और सच्चाई से रूबरू कराती. अभिनन्दन.

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  7. बहुत ही संवेदनशील रचना...

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  8. तुमने इसे मूर्त रूप देकर भी अभेद्य रखा ..
    बंद हो मुट्ठी तो लाख की , खुल गयी तो फिर खाक की !

    दोनों रचनाये संवेदित करती हैं ..!

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  9. व्यक्त न की गयी पीड़ायें अंगार बन जाती हैं।

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  10. दोनो रचनाये ज़िन्दगी के अनकहे पहलुओं को छू रही है…………ह्रदयस्पर्शी भावाव्यक्ति

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  11. जाने क्यों ?
    सवेदनाये
    कागजी होकर रह गई है
    jane kahan gum ho chali hain

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  12. संवेदनाओं ने मार्ग बदल लिए हैं।

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  13. संवेदनाओं ने मार्ग बदल लिए हैं।

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  14. अतिसुंदर शव्दो से सजी आप की यह संवेदना शील कविता, आज के समय मे समाज मे यही सवेंदनाये मर चुकी हे, यही दर्द आप की इस सुंदर कविता मे भी झलकता हे, धन्य्वाद

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  15. संवेदनाये अब कहाँ दिखती हैं..

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  16. इतना अकेलापन , और गहरी संवेदना या फिर एकाकी वेदना ? खोल दें द्वार दुर्ग का चिंगारी से इतना डर ठीक नहीं की बिना चिंगारी ही जला दे |

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  17. रिश्तो के बेगानेपन में
    भीड़ के अकेलेपन में
    कही गुम होकर रह गई है
    क्या सवेदनाये ?
    सच कहा शोभना जी । सुंदर रचना ।

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  18. वाकई निरन्तर गुम होती जा रही हैं सम्वेदनाएँ...

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  19. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति......
    वास्तव में हम संवेदनशून्य होते जा रहे हैं ...

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  20. apni hi samvednaao me insan itna duba hua hai ki use aas-pas ki samvednaaye mehsoos hi nahi hoti. sunder abhivyakti.

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  21. बहुत संवेदनशील रचनाएँ ...

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