दिन तो बीत जाते है ,
रातें रतजगा हो चली है ।
नैन नीर बहाते है ,
अपनों का सपना बन जाने से ।
कब हुआ ,कैसे हुआ ,क्यों हुआ ?
अब ये कहना व्यर्थ लगता है ,
क़ि
"बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से पाओगे "
हमने तो
लगाई थी अमराई
तुम्हारी" हरित क्रांति" ने
उसे" नीम का वन" बना दिया ।
अब वन में वो साधू संत कहाँ ?
जो नीम की औषधि बना देते ,
हमे तो नीम की छाँव भी तसल्ली देती है
क्या करे ?
वो भी योग के साथ साथ
बाजार में बंद डिब्बों में आ गई है
इसीलिए तो ,
दिन तो बीत जाते है
और
रातें रतजगा हो गई है ।
यही सच है .... मन के भावों को सच्चाई से लिखा है ।
ReplyDeleterashmi ravijajiki tippni
ReplyDeleteहमे तो नीम की छाँव भी तसल्ली देती है
क्या करे ?
वो भी योग के साथ साथ
बाजार में बंद डिब्बों में आ गई है
बहुत ही कड़वा सच कह दिया, कविता के माध्यम से
तुम्हारी" हरित क्रांति" ने
ReplyDeleteउसे" नीम का वन" बना दिया '
bahut hi acchee lagi yeh pankti.
Achchhee kavita.
बहुत अच्छी रचना....
ReplyDeleteबेहतरीन...
सादर
अनु
दिन तो बीत जाते है
ReplyDeleteऔर
रातें रतजगा हो गई है ।
बहुत गहरी बात कही है
अमराई लगाने पर भी कांटे ही उग गए है, क्या किया जाए।
ReplyDeleteसच कहा आपने, औषधीय गुण वालों से केवल छाँह ले रहे हैं...हम अज्ञानी..
ReplyDeleteबाजारीकरण से हर चीज अनमोल होती जा रही है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.
गहन अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteआशा