Wednesday, January 30, 2013

बस कुछ यूँ ही ....



दिन तो बीत  जाते है ,
रातें  रतजगा हो चली है ।
 नैन नीर  बहाते है ,
अपनों का सपना  बन जाने से ।
कब  हुआ ,कैसे हुआ ,क्यों हुआ ?
अब ये कहना  व्यर्थ  लगता है ,
क़ि
"बोया पेड़ बबूल  का आम कहाँ से पाओगे "
हमने तो
 लगाई थी अमराई
तुम्हारी" हरित क्रांति" ने
उसे" नीम का  वन" बना दिया ।
अब वन में वो साधू संत कहाँ ?
जो नीम की औषधि बना देते ,
हमे तो  नीम की छाँव भी तसल्ली देती है
क्या करे ?
वो भी योग के साथ साथ
बाजार में बंद डिब्बों में आ गई  है
इसीलिए तो ,
दिन तो बीत  जाते है
और
रातें  रतजगा हो गई है ।







9 comments:

  1. यही सच है .... मन के भावों को सच्चाई से लिखा है ।

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  2. rashmi ravijajiki tippni
    हमे तो नीम की छाँव भी तसल्ली देती है
    क्या करे ?
    वो भी योग के साथ साथ
    बाजार में बंद डिब्बों में आ गई है

    बहुत ही कड़वा सच कह दिया, कविता के माध्यम से


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  3. तुम्हारी" हरित क्रांति" ने
    उसे" नीम का वन" बना दिया '

    bahut hi acchee lagi yeh pankti.
    Achchhee kavita.

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  4. बहुत अच्छी रचना....
    बेहतरीन...


    सादर
    अनु

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  5. दिन तो बीत जाते है
    और
    रातें रतजगा हो गई है ।
    बहुत गहरी बात कही है

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  6. अमराई लगाने पर भी कांटे ही उग गए है, क्‍या किया जाए।

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  7. सच कहा आपने, औषधीय गुण वालों से केवल छाँह ले रहे हैं...हम अज्ञानी..

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  8. बाजारीकरण से हर चीज अनमोल होती जा रही है.

    बहुत सुंदर प्रस्तुति.

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  9. गहन अभिव्यक्ति |
    आशा

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