Friday, January 03, 2014

"बस अब"

ज़ुबान खामोश है
पर दिल बैचेन है
आँखे ढूँढती है,
समुंदर
डूबने के लिए
अहसासो की चुभन
जीने नही देती
बस अब
कतरा
ज़िदगी की धूप दे दो |


चाँदनी अब
सोने नही देती
बारिश आँसू सूखने नही देती
बसंत सिर्फ़
दर्द
दे जाता है
बस अब
कतरा
जिंदगी की धूप दे दो |
मन के टूटे तारो को
छूटे हुए सहारों को
बादल राग भी
जुड़ा नही पाता
बस अब
एक कतरा
जिन्दगी कि धूप दे दो |

ध्यान और जप के सारथि
आज रथहीन नज़र आते है
योगी भी अर्थ के साथ चलकर
अर्थहीन नज़र आते है

बस अब
कतरा
जिंदगी की धूप दे दो |

शोभना चौरे

3 comments:

  1. चलो आपने सर्दी में धूप तो मांग ली। बढिया रचना है।

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  2. ज़िन्दगी की धुप हमेशा आँख मिचौली खेलती है, जबतक उसके होने का अहसास होता है, वो गम हो जाती है...
    सुन्दर कविता

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  3. जिंदगी की एक कतरा धूप जरुरी है , मन के वसंत के लिए भी !

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