Friday, March 26, 2010
गाँव कि याद बहुत आती है .........
हम सब गाँव से जुड़े है ,गाँव को हमने जिया है हमारी आत्मा में बसा है ,ग्राम्य सरस जीवन |पर आज जो गाँव का तथाकथित विकास हो रहा है ,ऐसी तो कल्पना नहीं कि थी गाँव की |जब भी गाँव जाते है ,निराशा ही हाथ लगती है लगता है बहुत कुछ छूट गया है ,बहुत कुछ बिखर गया है |
गाँव कि याद बहुत आती है
गाँव न जा पाना
एक विडम्बना है ?
एक मजबूरी है ?
बिलकुल सच है |
कि हम
गाँव
जाते ही नहीं
गाँधी का गाँव ,
विदेशी वस्तुओ।
का बाजार
मोबाईल के टावरो ने,
नदी किनारों के
मंदिरों कि ध्वजा को,
अपनी ओट में ले लिया है |
इसीलिए
हम गाँव जाते ही नहीं ?
सूखी नदी
कि रेत से
शहर में,
सीमेंट के साथ
मिलकर पक्के घर बना
लेते है
माँ !!
छत के इंतजार में
बैठी ही रह जाती है
खंडहर में,
गाँव में
ये सच है कि
हम गाँव जाते ही नहीं ?
दसियों अंग्रेजी
स्कूल है
बच्चे
"मछली जल कि रानी है "
ही पढ़ पाते है
गाँव में,
और
ये सच है कि
हम गाँव जाते ही नहीं ?
फिल्मो के टेलीविजन
के गाँव ,
सिर्फ
ठाकुरों और दलितों
के गाँव ??
इसीलिए
ये सच है कि
हम गाँव जाते ही नहीं ?
हजारो डाक्टर
शपथ लेते है
सेवा करने की ,
दर साल
महानगरो में ,
नर्से और रिटायर्ड कम्पौन्दर
स्वास्थ सेवा दे रहे है
गाँवो में
इसीलिए
हम गाँव जाते ही नहीं?
हम सब गाँव से जुड़े है ,गाँव को हमने जिया है हमारी आत्मा में बसा है ,ग्राम्य सरस जीवन |पर आज जो गाँव का तथाकथित विकास हो रहा है ,ऐसी तो कल्पना नहीं कि थी गाँव की |जब भी गाँव जाते है ,निराशा ही हाथ लगती है लगता है बहुत कुछ छूट गया है ,बहुत कुछ बिखर गया है
ReplyDeletebilkul sach hai aapki baate ,hum apni mitti se door hote jaa rahe ,bahut sundar rachna lagi .
सही कह रही हैं आप,कमियाँ हमारे में ही हैं हम ही इस भाग दौड़ भरे जीवन में इतना व्यस्त हो जाते हैं की पीछे मुड कर देख नहीं पाते और जब देखते हैं तो गवां वही का वहीँ रहता है ...
ReplyDeleteविकास पाण्डेय
www.vicharokadarpan.blogspot.com
bhavmay rachana.............
ReplyDeletekya aapko meri yaad nahin aati hai ??
ReplyDeleteशोभना जी, गांव की संस्कृति अभावों के बावजूद बेजोड़ है.
ReplyDeleteलेख और कविता प्रभावशाली हैं.
मेरा एक शेर है-
चोट इक दिल पर लगे और दर्द सारे गांव में
भाईचारे का ये आलम है हमारे गांव में...
गाँव की याद बहुत आती है मगर हम जाते नहीं ...
ReplyDeleteअब गाँव भी तो उन गाँवों जैसे रहे नहीं ....
मगर ऐसे गाँव आपको लापतागंज में जरुर मिलेंगे ....!!
बढ़िया लगी आपकी यह खास प्रस्तुति.....बढ़िया प्रस्तुति के लिए धन्यवाद जी
ReplyDeleteशोभना जी ,
ReplyDeleteबहुत प्यारी रचना ,सच भाव विभोर कर गई,
लेकिन आज भी गांव जा कर जो प्यार और अपनापन मिलता है उस का कोई मुक़ाबला नहीं .
गांव में भी बदलाव अपेक्षित है...पर अभी भी शहरों से ज्यादा ही अपनापन मिलता होगा गांव में....अच्छी प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा ! बहुत ही सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है! ख़ूबसूरत और मनमोहक रचना! मुझे तो आपका ये शानदार पोस्ट पढ़कर अपना गाँव याद आ गया! सुन्दर चित्र !
ReplyDeleteनिमिष मेरा बेटा है ,बहुत दिनों से बेंगलोर नहीं जा पाई इसलिए मुझे उलाहना दे रहा है |
ReplyDeleteओह यह लेख और कविता पता नहीं क्या क्या याद दिला गयी...मुझे भी १५ बरस हो गए ,अपने दादा दादी के गाँव गए...बस ममी-पापा से शहर में ही मिल कर वापस...जिसने भी एक बार भी उन कच्ची सडको,घनी अमराइयों और कलकल नदी का स्वर सुन लिया है....उसे जीवन भर वे यादें कचोटती रहती हैं और उलाहना देती रहती हैं...बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteऔर शोभना जी, निमिष के सन्देश में मुझे भविष्य की आहट सुनायी दे गयी...मेरे बच्चे अक्सर कहते हँ, हम जब बाहर जाएंगे तो हम भी तुम्हारी पोस्ट पर कुछ लिखा करेंगे :)
hum ganw jate hi nahin.......wah bhi to badal gaya
ReplyDeleteगाँव का सहज और सरल जीवन बहुत याद आता है
ReplyDeleteगाँव का अपना ही आनन्द है पर वह अनुभव अधिक समय तक टिकता नहीं है, समस्यायें दिखायी पड़ने लगती हैं ।
ReplyDeletebhautikta kii bhag daud me ganv chhoot gaya....dosh hamara hii hai ya vakt kii majboori..chahte to sabhi hain ganv jaana magar ja kar lagta hai ho gaye begana...
ReplyDeletejadon se chhootne ka dard hota hii hai.
सही बात है गाँव वो नहीं रहे जिनके वाबत कभी कहा गया था ""अहा ग्राम जीवन भी क्या है क्यों न इसे सबका मन चाहे |सीधे सरल ग्रामबासियों को चालाक बना दिया राजनीति ने |तरक्की बेशक हुई है लेकिन रंजिशे भी बड़ी है |सही है हम गाव नहीं जा पाते हमारी भी मजबूरी है |मंदिर की ध्वजा को मोबाइल टावर ने ढँक लिया है यह बात बहुत अच्छी लगी | बजरी का शहर चले जाना मकान निर्माण हेतु और गाव में माँ का खंडहर में बैठी रहना इन लाइनों में काफी दर्द भरा है ।वैसे ट्विंकल ट्विंकल और ईटिंग सुगर नो पापा की व्यवस्था हो चली है अंग्रेज़ी स्कूलों ने ग्रामीण क्षेत्र में पैर फैलाना शुरू कर दिया है ।अच्छे डाक्टर विदेश चले जाते है और डोनेशन से बने डाक्टर शहर छोड़ना नहीं चाहते |बहुत उत्तम रचना ,पूर्ण सच्चाई लिए हुए ॥
ReplyDeletesach me aapka lekh pad kar muje bhi apne village ki yaad aa gayi
ReplyDeleteहमने अपने तरीके से इस व्यथा को समझा है. आपने देखा होगा की जब भी कोई ग्रामीण संपन्न हो जाता है, वह निकट के शहर में माकन खरीद लेता है. पूरा परिवार शहर में बस जाता है. गाँव से रिश्ता अस्थायी बन जाता है. केवल खेती बाड़ी के समय. उनके पास निवेश के लिए जो भी होता है वह निवेश गाँव में न होकर शहर में होता है. गाँव की पूँजी शहर में तो गाँव का उत्थान कैसें हो. आपकी इस सुन्दर रचना ने झकझोर दिया. आभार.
ReplyDeleteये कविता हमारे बचपन के गावों में पहुंचा देती है और फिर से बच्चा बना देती है लेकिन ना तो अब वो गाँव बचे हैं ना वहाँ के लोगों में वो प्रेम..
ReplyDeleteपी .एन .जी
ReplyDeleteआपने बिलकुल ठीक ही समझा है और कहा है |जिस तरह भारत में उच्च शिक्षा हासिल करके हम विदेशो में जा बसते है |उसी तरह गाँव के बारे में भी यही कहा जा सकता है जिस जमीन कि पैदावार से पले बढे उसकी सुध कहाँ ?पार एक बात जरूर कहूँगी गुजरात के गाँवो में जाकर देखने से पता चलता है वहां के जिस भी परिवार के लोग देश के बाहर या देश के भीतर पैसा कमाते है वो अपने गाँव के लिए कुछ न कुछ चेरिटी या बेसिक साधनों में जरूर तन ,मन ,धन से योगदान करते है विशेषकर कच्छ में मैंने अनुभव किया है |
अपनी मेरी पिछली पोस्ट भी पढ़ी और अपनी अमूल्य राय दी है उसके लिए ह्रदय से आपकी आभारी हूँ |
wah, sidhe sidhe gaanv ki yaad dilvaa di aour us dabi hui kasak ko bhi ubhaar diya jise roke rakha thaa. kher..bahut sundar shbdo se gaanv aour uske hone, na hone ke bhaavo ki abhivyakti he.
ReplyDeletedoosari baat, blog ka naya roop rang bhi bahut khoobsoorat he/
amitabhji
ReplyDeletebahut bahut dhnywad .ye sab bahoo neha ki mehnat hai.usne khud hi dijain bnaya hai .
Sach mein gaon jab bhi jana hota hai to use bhi hamare shahar nazar lag gayee hai, tabhi to pahale jaisa apnapan bahut kam dikhta hai.....
ReplyDeleteAapko Bahut shubhkamnaynen.. gaon kee yaad taaja ho gayee...
बहुत बढिया प्रस्तुति है। आज अपने तो मुझे गांव की वो गलियां, खेत खलिहान, तालाब व कुएं, पेड पर बैठे बगुलों की यादों को तरोताजा कर दिया। समय मिलने पर गांव जाना का कोशिश तो करता हूं। पर पिछले चार साल से गांव नहीं जा सका हूं। इस बार की छुट़टी में तो जरूर गांव जाउंगा।
ReplyDeleteयह सच है कि गांव जाते नहीं। जाने लगें तो गांव बहुत से सूत्र देगा और जोड़ेगा - इसमें शक नहीं।
ReplyDeleteजैसे मुझे लगता है कि वह मुझे सोशल ऑंत्रेपिन्योर बनायेगा।
Pranam Taiji, I m also agree with this fact. Rest all is fine.
ReplyDeleteJi.... Gaon to ham sabke man me baste hain .....
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