Monday, March 28, 2011

"निमाड़ का गणगौर उत्सव "भाग 1

 लो जी फिर गणगौर फिर आ गई है ,सज गई है नई उमंग से साथ और अपनी परम्पराओं के साथ फिर जीवन का संचार कर आतुर है  चैत्र माह में रंग भरने को ....



ऋतू में परिवर्तन हो रहा है जो की प्रक्रति का अपना नियम है वासन्ती बयार अब विदा ले चुकी है होली का खुमार भी अपने रंग छोड़कर उतर चुका है दिन गर्म होना शुरू हो गये है |अभी अभी फूलो की बहार है चम्पा अपने शबाब पर है मोगरा खिलने को व्याकुल है जूही, रात की रानी अपनी खुशबू बिखेरने को बेताब है |वही नीम के पेड़ पर भी नै नै कोपले आने लगी है वातावरण में महुआ की खुशबू तैर गई है ऐसे मादक मोसम में "गणगौर का उत्सव "बरबस याद आ ही जाता है होठो पर गणगौर गीत अपने आप ही आ जाते है |तन मन थिरकने लगते है आज कितने भी आधुनिक उत्सव शहरी समाज ने अपना लिए हो किन्तु ग्रामीण उत्सवो का आज भी वही अंदाज है जो प्रकृति के साथ अपने को आत्मसात करके ग्रामीण लोग मनाते है निश्चय ही उन पर भी शहरी प्रभाव पड़ा है फिर भी उनकी इस संस्क्रति में ही उनकी ख़ुशी है |
पिछले वर्ष ही मैंने यह पोस्ट लिखी थी गणगौर पर इस साल नए पाठक और पढ़ सके अत: फिर से पोस्ट कर रही हूँ |
"निमाड़ का गणगौर उत्सव "

चैत्र की नवरात्री उत्तर भारत , के साथ सभी प्रेदेशो में कई रूप में मनाई जाती है |साथ ही राजस्थान कि गणगौर भी इसी समय मनाई जाती है जो कि सर्व विदित है |मध्य प्रदेश के ग्रामीण और अब शहरों में भी विशेषकर निमाड़ में गणगौर का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है कुछ कुछ बंगाल कि दुर्गा पूजा जैसा ही उत्साह होता है गाँवो में अपनी साल भर कि फसल कि कमाई से बचा कर रखा पैसा गणगौर पर्व पर श्रद्धा से खर्च करते है निमाड़ के किसान |चूँकि खेतिहर लोगो से जुड़ा है यह त्यौहार तो इसमें लोक संस्कृती कि प्रधानता है |

चैत्र वदी १० से चैत्र सुदी ३ तक के ९ दिनों के गणगौर उत्सव निमाड़ (मध्य प्रदेश )कि विशेषता है |इस अवसर पर सारा प्रदेश गीतमय हो जाता है और शिव -पारवती ,ब्रह्मा -सावित्री ,विष्णु -लक्ष्मी तथा चंद्रमा -रोहिणी कि वंदना के गीत गए जाते है |इनमे सबसे अधिक गीत रनुदेवी और उनके पति (धनियेर )सूर्य के के संवाद रूप में कहे गये है |
रणुबाई ही निमाड़ी लोकगीतों कि अधिष्टात्री देवी है |इसके एक गीत में सौराष्ट्र देश से आने का संकेत रनुदेवी कि पहिचान के लिए महत्वपूर्ण है |एक गीत में रनु बाई को रानी कहा गया है अन्यत्र रणुबाई के मंदिर का वर्णन है जिसमे रणुबाई बिराजती है और अपने भक्तो के लिए द्वार खोल देती है |
रनुदेवी सूर्य कि पत्नी राज्ञी का ही अपभ्रंश भाषा और लोकभाषा में घिसा हुआ रूप है |जैसे यग्य से जरान -जन्न जाना और उससे 'जन 'बनता है ;जैसा कि यज्ञोपवित शब्द से निकले हुए जनेऊ शब्द में पाया जाता है उसी प्रकार रण्नी -रानी
और अंत में" रनु "रूप बना |वस्तुतः राज्ञी देवी कि पूजा गुजरात -सौराष्ट्र में प्रचलित थी उसकी १४वि शताब्दी तक कि मुर्तिया पाई गई गई hai |
गणगौर को नारी जीवन का सुमधुर गीति काव्य कहा जाता है निमाड़ में |९ दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार में एक भी ऐसा कार्य नहीं जो बिना गीत के हो, स्त्रियों द्वारा सामूहिक रूप से जब इस त्यौहार को मनाया जाता है तो कुछ ऐसा लगता है मानो ऋतुराज बसंत कि अगवानी कि जारही हो |
अमराइयो में कोयल कि कूक ,पलाश के फूलो कि लाली और होली कि उतरती खुमारी के साथ जब यह त्यौहार शुरू होता है ,तो गीतों कि गूँज से सारा गाँव सरोबर हो उठता है |
इसमें होली कि राख से चुने हुए कंकरों में गीतों के स्वर के साथ गौरी कि प्रतिष्ठा कर छोटी छोटी टोकनियो में मिटटी भरकर उनमे गेंहू बोने के रूप में मानो नारी के हाथो फसल कि प्राण प्रतिष्ठा कि जाती है और फिर उसे प्रतिदिन सींचते हुए नित्य आरती और उसकी उपासना कि जाती है -
अरघ सिंचन के समय गाने वाला निमाड़ी गीत -
म्हारा हरिया ज्वारा हो कि
गहुआ
लहलहे मोठा हीरा भाई वर बोया जाग
,
कि लाड़ी बहू सींच लिया

रानी सिंची जाण्य हो कि ज्वारा पेलापड्या |
उनकी सरस क्थोलाई हो ,हीरा भाई ढकी लिया
अर्थ -मेरे हरे जवारे के रूप में गेंहू लहलहा रहे है हीरा भाई के घर जाग बोया है और उनकी बहुए उन्हें सींच रही है वाह सींच कर निवर्त हुई है कि जवारे पीले पड़ने लगे है उनके सहस्त्रो अंकुरों को बहन ने स्नेह से ढँक लिया है |
मेरे हरे भरे ज्वारो के रूप में गेंहू लहलहा रहे है |
ये जवारे जीवन की सम्रद्धि के प्रतीक है |
हरे पीले जवारे ........
धनियेर राजा और रनु बाई कि इन बोलती मूर्तियों को रथ कहते है|
इन रथो में पीले जवारे रखकर नदी किनारे देवी को पानी पिलाने ले जाते है ,पूरा गाव एकत्र होकर सबकी मंगल कामना
हेतु देवी से लोकगीतों द्वारा विनती करते है |




आओ हम सब देवी का पूजन करे

इस गीत में देवी पूजा के लिए स्त्रियों के सामूहिक आव्हान के साथ ही साथ पूजन करने वाली कि भी महत्वाकांक्षाओ एवम देवी के संतानदाता स्वरूप का वर्णन है \इसमें धन ,धान्य एवम संतान से सम्पन्न आदर्श ग्रहस्थी का अत्यंत ही सजीव चित्रण है -
डूब का डंडला अकाव का फूल
रानी मोठी बहू अर्घ देवाय |
अर्घ दई वर पाविया
मोठा भाई सो भरतार
अतुलि पातुली लाओ रे गंगाजल पाणी ,|
नहावन कर रनु बाई राणी | रनु बाई रणुबाई खोलो किवाड़ |
पूजन
वळी उभी द्वार |
पूजन वाली काई मांग |
धूत
पूत अव्हात मांग |
हटियालो
बालों मांग |
जतिओयालो
भाई मांग |
बहू को रान्ध्यो मांग |
बेटी को परोस्यो मांग | तोंग्ल्या बुड्न्तो गोबर मांग |
पोय्च्या
बुड्न्तो गोरस मांग |
धणी
को राज मांग |
सोंना
सी सरवर गौर पूजा हो रना देव |

माय बेटी गौर पूजा हो रना देव |
ननद भोजाई गौर पूजा हो रना देव |
देरानीजेठानी गौर पूजा हो रना देव |
सासु
बहू गौर पूजा ही रना देव |
अडोसन पड़ोसन गौर पूजा हो रना देव |
पड़ोसन पर तुट्यो गरबो भान हो रना देव | कसी पट तुट्यो गरबो भान हो रना देव |
दूध
केरी दवनी मझ्घेर हो रना देव |
पूत
करो पालनों प्टसल हो रना देव |

स्वामी सुत सुख लड़ी सेज हो रना देव |
असी पट तुट्यो गरबो भान हो रना देव |

आरती - करंड कस्तूरी भरिया ,छाबा फूलडा जी
तुम
भेजो हो धनियेर रनूबाई ,
जो
हम करसा आरतीजी
थारी
आरती आदर दिसां देव दमोदर भेटंसा जी |
अर्थ
-

इस करंड भर कस्तूरी और छाबड़ी भर फूल लेकर हम देवी कि आरती कर रहे है
हे भाई तुम अपनी पत्नी को इस आरती में सम्मिलित होने को भेज दो |
हम रनु कि आरती को सम्मान देगे और दामोदर -स्वरूप भगवान से भेंट करेगे|
क्रमशः

14 comments:

  1. बहुत सुंदर पोस्ट है स्त्रीयों के अनोखे उत्सव की ...शोभनाजी ..... कई बार पूरे सोलह दिन गणगौर पूजी है..... सब याद आ गया ...

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  2. त्योहार का रोचक व सचित्र वर्णन। आभार।

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  3. हम तो बचपन में यह गीत सुनते थे - गौर ह‍ै गणगोर माता, खोल किवाडी रे, बाहर आयी थारी पूजन हारी रे। बड़ा अच्‍छा लगता था। मन करता था कि हम भी गणगौर पूजे लेकिन हमारे यहाँ विशेष रिवाज नहीं था और पिताजी की मनाही तो क्‍या मजाल कोई हिम्‍मत कर ले। लेकिन इन त्‍योहारों के गीत बहुत ही मन को लुभाते रहे हैं और आज भी लुभाते हैं। अच्‍छी पोस्‍ट दी है आपने।

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  4. मेरा ख्याल था कि गणगौर सिर्फ़ राजस्थान में ही मनाया जाता है.. फोटो देखकर लगता है कि मध्य प्रदेश में भी यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है..

    बहुत ही सुन्दर पोस्ट

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  5. हमारी लोक परम्परा के प्रतीक हैं ये उत्सव... और इनका इतना सजीव वर्णन पढकर उल्लास से भर गया मन!!

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  6. आद. शोभना जी,
    लोक त्योहारों में हमारी जड़ें छुपी हैं !
    संस्कृति और सभ्यता की सोंधी महक सहज ही इन त्योहारों से उठती हैं !
    साधुवाद !

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  7. सब कुछ कहाँ पीछे छूट गया याद नहीं ....आभार आपका जो फ़िर यहाँ ले आई आप.....

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  8. aapne apana number nahee diya jee.abhee to aap bangalore me hee hai na?

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  9. .बहुत ही रोचक और विस्तृत जानकारी...इस उत्सव की....
    तस्वीरें भी बहुत उपयुक्त हैं..
    हमारे लिए तो यह नई जानकारी थी...आभार आपका

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  10. .

    शोभना जी ,

    अच्छा लगा इन उत्सवों के बारे में जानकर । बिलकुल नयी जानकारी है। सबसे अच्छी बात आपने हिंदी में गीतों का अनुवाद भी लिख दिया । समझने में सुविधा हुयी । सचित्र विवरण पढ़कर ह्रदय में उत्सव का उल्लास आ गया ।

    आभार ।

    .

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  11. gangaur ki dhoom hamne dekhi hai ,bahut badhiya varnan kiya hai aapne is parv ka .badhai .

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  12. गणगौर की सुंदर जानकारी । महाराष्ट्र में भी चैत्र तीज से अक्षय तीज तक गौरी के हलदी कुमकुम का उत्सव मनाया जाता है ।

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  13. राजस्थान में होने वाली गणगौर पूजा से थोडा अलग अंदाज़ लगा ...
    यहाँ भी अभी यही दौर चल रहा है ..जंवारे सुन्दर सज गए हैं ...गीतों के साथ रोज पूजन , एक अलग ही आनंद है ..
    यह जंवारा गीत हम रोज गाते हैं थोड़े से फेर बदल के साथ ...
    बहुत आछी जानकारी !

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  14. गणगौर-उत्सव के बारे में पढ कर मन खुश हो गया ।ग्वालियर मुरैना में भी गणगौर पूजा होती है । बस थोडा रूप अलग है जो कि क्षेत्रीयता का प्रभाव होता है । इधर शाम को गौरी से सुहाग लेने की बहुत ही रोचक व मधुर परम्परा है जिसमें हर सुहागन को अपने पति का नाम लेना होता है । जो बडी-बूढियों के अनुसार पति को दीर्घायु बनाता है । और नाम लेने जैसे दुष्कर कार्य को भी जिस सलज्ज आग्रह के साथ सम्पन्न किया जाता है वह एक बडा मिशन जैसा होता है । नाम भी खाली नही किसी तुकबन्दी के साथ लेना होता है जैसे--चमचा भर घी और ...का मेरा एक ही जी ।, या पटा पे रोरी मैं ....की गोरी । यह सब अलग से लिखने लायक है कभी लिखूँगी भी । यहाँ आपका आलेख देखा तो अच्छा लगा ।

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