एक जंगल था उसमे सारे जानवर और पक्षी मिलकर रहते थे जैसे भालू ,बकरी, तोता ,कुत्ता ,बिल्ली आदि आदि |
एक दिन
सबने सोचा आज खीर बनाई जाय रोज रोज दाना ,घास खाते खाते उब गये सभी लोगो की राय से तय हुआ खीर बनाने का काम |कोई लकड़ी लाया ,कोई दूध लाया कोई चीनी लाया ,कोई बड़ा पतीला लाया जिसका जैसा सामर्थ्य उस हिसाब से हर कोई सामान लाया |खीर बनाई गई सबने खूब पेट भरकर खीर खाई थोड़ी बच गई उसे रख दी यः कहकर की शाम को आपस में बांटकर खा लेंगे और सब अपने काम पर जाने लगे |बिल्ली अपने सर पर कपडा बांधकर सो गई से सबने पूछा ?चलो बिल्ली मौसी तुम भी चलो |
मेरे सर में दर्द है मै यही रहकर आज आराम करुँगी |
सब अपने काम पर चले गये |
बिल्ली मौसी की निगाह तो बची हुई खीर पर थी जैसे ही सब लोग गये झट से उठी और सारी खीर चट की और वापिस अपनी जगह पर आकार सो गई |एक - एक कर सारे पक्षी और जानवर वापिस आ गये |
उन्होंने देखा बिल्ली अभी भी सोई है सभी उसके हाल पूछने लगे |
बिल्ली टस से मस नहीं हुई |
सबको भूख लग रही थी खी बची है यः सोचकर किसी ने बाहर कुछ भी नहीं खाया |
जब बची हुई खीर का बर्तन खोला तो देखा बर्तन खाली था सब लोग आपस में एक दूसरे से पूछने लगे की खीर किसने खाई |खरगोश ने कहा -बिल्ली मौसी से पूछो शायद उसने किसी को खाते देखा हो ?
तब बिल्ली मौसी अलसाई सी उनीदी आँखों का नाटक करके बोली -मै तो सुबह से ही सोई हूँ मै ने तो किसी को नहीं देखा |
अब सब जानवरों और पक्षियों ने तय किया की एक सूखे कुए में कच्चे धागे से झूला बांधा जाय और बारी बारी से सब बैठते जाय जिसने खीर खाई होगी झूला टूट जायगा और उसे अपने आप चोरी की सजा मिल जायगी |
तुरंत झूला बांधा गया |
बारी बारी से सब बैठते गये जैसे तोता बैठा तो उसने कहा - मिठू -मिठू मैंने खीर खाई हो तो झूला टूट जाय |
चिड़िया बैठी -बोली ची -ची मैंने खीर खाई हो तो झूला टूट जाय |झूला नहीं टूटा |
बकरी बैठी -बोली -में -में मैंने खीर खाई होतो झूला टूट जाय झूला नहीं टूटा \
अब बिल्ली मौसी की बारी आई (उसने मन ही मन सोचा ऐसे कोई झूला टूटता है क्या ?झूले को क्या मालूम की मैंने खीर खाई है )
म्याऊं -म्याऊं मैंने खीर खाई हो तो झूला टूट जाय ऐसा कहना था; बिल्ली का, कि झूला टूट गया और बिल्ली सूखे कुए में गिर गई और लहूलुहान हो गई |
ऐसा था जंगल का न्याय और उस न्याय पर सबका विश्वास |
अब इस कहानी को उल्टा ले |बची हुई खीर को रखने के बाद जब सब बाहर चले गये तब सबके मन में विचार आया की शाम को तो बिलकुल थोड़ी ही खीर मिलेगी चलो अभी ही थोड़ी खा ली जाय |एक -एक कर सारे आये और खीर खाकर चले गये |शाम को वापिस आने पर देखते है की खीर का कटोरा तो खाली था |सभी एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे खीर खत्म करने के लिए |न ही किसी ने सुझाव दिया की सभा बैठाई जाय ,या पता लगाया जाय की खीर की चोरी किसने की ?ठीक इसी तरह हम भष्टाचार का आरोप एक दूसरे पर लगाते रहते है |
बड़े से बड़ा मंत्री कहते है! देश में भ्रष्टाचार हो रहा है |
बड़ी से बड़े संत ?कहते है! देश में भ्रष्टाचार हो रहा है |
बड़े से बड़े उद्योगपति कहते है !देश में भ्रष्टाचार हो रहा है |
सत्ता में बैठे लोग कहते है ! देश में भ्रष्टाचार हो रहा है |
विपक्ष में बैठे लोग कहते है !देश में भ्रष्टाचार हो रहा है |
सरकारी कर्मचारी अपनी पहचान निकालकर जनगणना में अपनी ड्युटी रद्द करवाते है वो भ्रष्टाचार नहीं है ?
निजी कम्पनियों के "विभाग "अपनी कंपनियों के कार्य सरकारी लोगो को" दीपावली 'देकर करवाते है क्या वो भ्रष्टाचार नहीं है ?
क्या सरकार में हमारे लोग नहीं है ?दूसरे देश के है ?
क्या हम कभी संतो के प्रवचन नहीं सुनते ?
क्या हममे से ही उद्योग पति नहीं है ?
सत्ता में हो या विपक्ष में क्या हम नहीं है वहाँ ?
एक बिल्ली के लालच ने सबकी लालसा के दरवाजे खोल दिए |
कितु दिन भर भूखे रहकर इमानदार रहते हुए सिधान्तों पर चलने वाले पक्षियों और जानवरों का सबक क्यों नहीं ले पाए ....
बड़ी ही गहरी बात सटीक शब्दों में कह दी। यदि सीधे भ्रष्टाचार में सहायक नहीं हैं हम तो उसके माध्यम से आये धन को सम्मान देने के दोषी तो हम हैं ही।
ReplyDeleteबहुत ही सटीक बात कही है.
ReplyDeleteहर नागरिक को अपने स्तर से सुधार की शुरुआत करनी होगी.
बहुमूल्य विचार!! किंतु सही कहा कि परिस्थितियाँ ऐसी बन गईं हैं.. कहीं पढ़ा था मैंने कि किसी को पत्थर से मारते देख ईसा ने लोगों सए कहा कि पहला पत्थर वो मारे जिसने कोई अपराध न किया हो.. परिणामस्वरूप सभी और ज़ोर ज़ोर सए पत्थर मारने लगे यह साबित करने के लिये कि वे अपराधी नहीं हैं!!
ReplyDeleteसच कहा आपने..... हम भी किसी ना किसी रूप में भागीदार हैं.... अनमोल विचार
ReplyDeleteआप की बात से सहमत हे, लेकिन सभी भागी दार नही बहुत से लोग आज भी ईमानदार हे या उन्हे ईमानदार बनाने की मजबूरी हे, जेसे एक मजदुर क्या बेईमानी करेगा, एक रिकक्षे वाला या एक पटरी पर समान बेचने वाला, एक आम सीधा साधा आदमी जो सरकारी नोकरी करता हे, एक टीचर, बहुत से लोग आज भी एक पैस भी ज्यादा नही खाते, यानि आज भी लोग कर्मो से ईमान दार हे मन मोहन की तरह से नही
ReplyDeleteBhrashtachar ko apne sar pe dhota hua is deshka beda aisehee chalega!
ReplyDeleteकहानी के माध्यम से सत्य को उजागर किया है ...अच्छी पोस्ट ...
ReplyDeleteभृष्टाचार का गणित इतना सीधा भी नहीं है. भृष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी है कि अब खाली मोहरे बदलते है बाकी सब वैसा ही रहता है.
ReplyDeleteऔर हम सब ही जिम्मेदार है इसके लिए.
अक्सर जिधर ध्यान नहीं जाता , उस पर प्रकाश डाला आपने । यदि आत्मावलोकन किया जाए और खुद को सुधारा जाए तो सब कुछ स्वयं ही व्यवस्थित हो जाएगा । सटीक चिंतन ।
ReplyDeleteबहुत गंभीर बात कही कथा के माध्यम से ...
ReplyDeleteइस भ्रष्ट व्यवस्था के लिए हम सब भी जिम्मेदार है , जो अपनी सुविधाओं के लिए कोई भी समझौता करने को तैयार हो जाते हैं ...!
क्या बात है आपने तो पुरानी कहानी को नई कहानी से जोड़ दिया वो भी बेहद खूबसूरती के साथ
ReplyDeleteकहानी के दूसरे भाग में आज का सच है !
ReplyDeleteभ्रष्टाचारियों को देश द्रोही करार कर देना चाहिए तभी देश बच पायेगा !
bahut achhi kahani, padhte hue nanhe nanhe bachche ird gird thuddi per haath rakhe baithe nazar aaye ... kya kahun , bas ise bhej dijiye vatvriksh ke liye
ReplyDeleteसटीक, सार्थक और बहुत सच्च कहा है ... आज के माहॉल पर प्रामाणिक कथा ...
ReplyDeleteहर कोई भ्रष्टाचार में डूबा है कोई कम और कोई ज़्यादा ...
जिनके लिए लिखा गया ..ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे... बहुत प्रभावी..
ReplyDeleteसच्ची बात कही है आपने.
ReplyDeleteHappy Holi Shobhna ji .
ReplyDeleteरंग-पर्व पर हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteहोली का त्यौहार आपके सुखद जीवन और सुखी परिवार में और भी रंग विरंगी खुशयां बिखेरे यही कामना
ReplyDeleteइस कथा के पीछे गहरे अर्थ को काश हम समझ पाएँ....और बदलाव पहले खुद के अन्दर ला पाएँ..
ReplyDeleteशोभना जी,
ReplyDeleteबात विचारणीय है परंतु "क्या सरकार में हमारे लोग नहीं है?" पर मैं यही कहून्गा कि समाज में अच्छे बुरे सभी लोग होते हुए भी येन-केन-प्रकारेण सरकार, प्रशासन आदि में उदासीन, बेरहम, लालची, और डरपोक चमचे काबिज़ हो गये हैं। भले ही यह हमारे समाज के बीच से ही हों, मगर हैं हम ईमानदारों से अलग किस्म के लोग। मुझे तो ऐसा लगता है जैसे कि इन डाकुओं ने बलात ही मेरे देश का मुझसे अपहरण कर लिया है। मैं कितना भी स्वच्छ रहूँ, यह अपनी कीचड मुझ पर उछाले जा रहे हैं। दुर्भाग्य से सत्ता के मदान्ध यह मेरी (आम ईमानदार भारतीय नागरिक/उपभोक्ता) किसी भी बात को कान देने लायक नहीं समझते हैं।