1.
मेरे सिरहाने
बैठी यादे
जुड़ जाती है
और
सक्रीय होकर
सपने बुन लेती है ,
अपनी कल्पनाओ की
झालरों के साथ
2.
फूलो की बस्ती में ,
पत्थरों का क्या काम?
रंगों की मस्ती में ,
सफेदी का क्या काम?
चंदा की चांदनी में ,
रूपसी का क्या काम?
सूरज की रौशनी में ,
मेरे सिरहाने
बैठी यादे
जुड़ जाती है
और
सक्रीय होकर
सपने बुन लेती है ,
अपनी कल्पनाओ की
झालरों के साथ
2.
फूलो की बस्ती में ,
पत्थरों का क्या काम?
रंगों की मस्ती में ,
सफेदी का क्या काम?
चंदा की चांदनी में ,
रूपसी का क्या काम?
सूरज की रौशनी में ,
चिरागों का क्या काम ?
3.
3.
अपराधी पिता को
बचाने
संकल्पित पुत्री को देखकर
उसी पिता के पुत्र का
उत्तर -
हाँ !वे ऐसा कर सकते है ?
उत्तराधिकारी को
परिभाषित कर गया .........
बचाने
संकल्पित पुत्री को देखकर
उसी पिता के पुत्र का
उत्तर -
हाँ !वे ऐसा कर सकते है ?
उत्तराधिकारी को
परिभाषित कर गया .........
विडम्बनायें जीवन की !
ReplyDeleteआजकल बहुत कम नजर आती है !
सारगर्भित क्षणिकाएं...
ReplyDeleteजीवन के सच,
ReplyDeleteख़ूब!
Behad badhiya tareeqese jeewan kee vidambana ko pesh kiya hai aapne!
ReplyDeleteसच के अपने अपने रंग..
ReplyDeleteTeeno abhivyakti sach ke Kareeb ... Achee lagee...
ReplyDeleteबहुत सुंदर शोभना जी । हर कविता अपने आप में सशक्त । उत्तराधिकारी पुत्र का जवाब सन्न कर गया ।
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना क्या कहने...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर..
भावविभोर करती रचना...
भावपूर्ण रचना क्या कहने...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर..
भावविभोर करती रचना...
बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteसभी क्षणिकाये बेहतरीन
सादर
अनु
बडे दिनों से कुछ लिख नही रहीं । आशा है सब ठीक है ।
ReplyDeleteअपराधी पिता को
ReplyDeleteबचाने
संकल्पित पुत्री को देखकर
उसी पिता के पुत्र का
उत्तर -
हाँ !वे ऐसा कर सकते है ?
उत्तराधिकारी को
परिभाषित कर गया .........
VERY TOUCHING EXPRESSION...
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