Saturday, May 26, 2012

कुछ कड़ियाँ ,जो आपस में जुडती ही नहीं ?

     1.

मेरे सिरहाने
बैठी यादे
जुड़ जाती है
और
सक्रीय होकर
सपने बुन लेती है ,
अपनी कल्पनाओ की
झालरों के साथ 
       2.
फूलो की बस्ती में ,
पत्थरों का क्या काम?
रंगों की मस्ती में ,
सफेदी का क्या काम?
चंदा की चांदनी में ,
रूपसी का क्या काम?
सूरज की रौशनी में ,
चिरागों का क्या काम ?

        3.
अपराधी पिता को
बचाने
संकल्पित पुत्री को देखकर
उसी पिता के पुत्र का
उत्तर -
हाँ !वे ऐसा कर सकते है ?
उत्तराधिकारी को
परिभाषित कर गया .........












12 comments:

  1. विडम्बनायें जीवन की !
    आजकल बहुत कम नजर आती है !

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  2. सारगर्भित क्षणिकाएं...

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  3. जीवन के सच,
    ख़ूब!

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  4. Behad badhiya tareeqese jeewan kee vidambana ko pesh kiya hai aapne!

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  5. सच के अपने अपने रंग..

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  6. Teeno abhivyakti sach ke Kareeb ... Achee lagee...

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  7. बहुत सुंदर शोभना जी । हर कविता अपने आप में सशक्त । उत्तराधिकारी पुत्र का जवाब सन्न कर गया ।

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  8. भावपूर्ण रचना क्या कहने...
    बहुत ही सुन्दर..
    भावविभोर करती रचना...

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  9. भावपूर्ण रचना क्या कहने...
    बहुत ही सुन्दर..
    भावविभोर करती रचना...

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  10. बहुत सुन्दर....
    सभी क्षणिकाये बेहतरीन
    सादर
    अनु

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  11. बडे दिनों से कुछ लिख नही रहीं । आशा है सब ठीक है ।

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  12. अपराधी पिता को
    बचाने
    संकल्पित पुत्री को देखकर
    उसी पिता के पुत्र का
    उत्तर -
    हाँ !वे ऐसा कर सकते है ?
    उत्तराधिकारी को
    परिभाषित कर गया .........

    VERY TOUCHING EXPRESSION...

    .

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