सालो बाद मेरी पुरानी सहेली से मुलाकात हुई| कुशल क्षेम पूछने के बाद आदतन मैंने अपनी ताना मारने वाली शैली में पूछ ही लिया -और बहुए कैसी हा?
उसने सहजता से जवाब दिया -अच्छी है |
मेरे अन्दर कुछ भरभराकर ढह गया |मै बहुत सारी उम्मीद लगाकर बैठी थी की बहू का नाम सुनते ही अभी वो ठंडी साँस लेगी और इस बहाने मै भी थोड़ा मन हल्का कर लूगी आख़िर वो मेरी सहेली है ?और उसकी भी तो बहूऐ है?|ऐसा कैसा हो सकता है ?ये तो बिल्कुल ही खामोश है |
मैंने बेवजह नकली हँसी हँसते हुए फ़िर पूछा ?
तुम्हारी तो एक बहू नौकरी करती है ,और दूसरी ब्यूटी पार्लर चलाती है ,तब तो तुम्हे ही सारे के काम करने पड़ते होगे ?
देखो क्या जमाना आ गया है ?बेटो की शादी करो बहू लाओ ?सोचते है अब बहू आ गई है तो चलो घर के काम से छुटकारा मिलेगा ?और भगवत भजन करेगे किंतु तुम तो अभी भी वही घर के तंतो में पडी हो |
भाई मैंने तो इसीलिए कह दिया था- अपने पति और बेटे से? मुझे कोई नौकरी वाली बहू नही चाहिए |हा कह देती हूँ ?
वो मेम सा .तो चली बाहर? और मै पुरा
दिन चूल्हे चक्की में पिसती रहू और इनके ताबरो (बच्चो ) को भी संभालो ?
मेरी बात ख़त्म ही हुई थी की मेरी सहेली ने मुझसे पूछ लिया ?
अच्छा तुम्हारी बहू तो घर मेही रहती है तो तुम्हे आराम ही आराम है |गर्म रोटी खाने को मिलती होगी ?
अरे कहाँ ?थोड़े दिन साथ में रही घर में ,फ़िर तो वही नौकरी का भूत सवार !अपन तो शुरू से ही इसके खिलाफ थे |
सो अपने से तो पटी नही?और अब हमसे अलग रहती है ,और १००० रूपये के लिए मारी मारी नौकरी करती फिरती है |
इस बीच मै देख रही थी मेरी सहेली के चेहरों के भावो को मुझे ऐसा लगा मानो वो मुझसे पीछा छुडाने की कीकोशिश कर रही थी ,कही वो इस शादी के रिसेप्शन की भीड़ में न खो जाय और मै जान भी न पाऊ? उसकी बहुओ के नजारे ......
मैंने फटाफट एक जलेबी उसकी प्लेट में डाल दी !अरे ;बस वो कहती ही रही| मै आश्वस्त ! हो गई ,अब तो जरुर कुछ कहेगी
मेरे सब्र का बाँध टूटने को था आख़िर रिसेप्शन में एक जन से ही थोड़ा मिला जाता है ?मुझे और भी लोगो से मिलना था |
मैंने फ़िर पूछ ही लिया ?तुम्हारा तो सब ठीक है ?बहुओ के साथ ?
मै जितनी आतुर और व्यग्र हो रही थी उसने उतनी ही शान्ति से जवाब दिया |
मेरी बहूये ? हम साथ ही रहते है सब मिलकर काम करते है ,उन्होंने घर के काम के लिए मेरे लिए पूरे दिन की सहायिका रख दी है और साफ कह दिया है - मम्मीजी आप ज्यादा काम नही करेगी |बहुत कर लिया काम आप तो बस आर्डर करो और जो भी काम ,कोई भी अपनी पसंद का जिसे आप पहले कभी कर नही पाई थी अब शुरू कर दो |बस मैंने भी तब से पेंटिग बनाना शुरू कर दिया तुम तो जानती ही हो ?मुझे पेंटिग का कितना शौक था |
मेरे हाथ में रखी प्लेट का वजन मुझे ज्यादा लगने लगा था|
मै नजरे घुमा कर देख रही थी शायद कोई परिचित मिल जाय |
उसने फ़िर कहा -मेरी बहुओ से मै हमेशा कुछ न कुछ सीखती हूँ ,वो दूसरे परिवार से आई है संस्कार ,संस्क्रती के नये रूप लेकर| उनके घर के रीति -रिवाज ,रहन सहन ,खान-पान की विविधता को अपनाने में हम साँस बहुयें कब एक साथ हो गये मालूम ही नही पडा |
मैंने कहा -पानी पीने चले ?मेरी आवाज की तल्खी न जाने कहाँलुप्त हो गई ?
उसने कहा -हाँ !चलो बातो बातो में कुछ ज्यादा ही खा लिया फ़िर स्टेज पर लिफाफा देने भी भी तो जाना है |
हम दोनों ने प्लेट रखी और चलने लगे -
मेरे तो जैसे शब्द ही चुक गये थे |उसने मुझसे कहा -तुम भी तो इतने सुंदर भजन लिखती थी और साथ में गाती भी थी क्यो न उनकी एक किताब छपवा लो ?
अब तो बस मै सुन रही थी ,इतने में ही उसके पति उसे ढूंढ़ते हुए आ गये उसने मेरा परिचय करवाया और अपने पर्स में से एक कार्ड निकल कर दिया और कहा -मेरी पेंटिग की प्रदर्शनी है अगले रविवार को |तुम जरुर आना |फ़िर अपने पति की और देखकर कहा -आपके वो प्रकाशक मित्र है ?न ?उनसे मेरी इस सहेली को मिलवा दीजियेगा ये भजन बहुत अच्छे लिखती है |उन्होंने कहा -क्यो नही ?
फ़िर उन्होंने कहा -आप प्रदर्शनी में आयेंगी तब आपको उन प्रकाशक महोदय से मिलवा दूंगा |
अच्छा चलें !
कहकर दोनों ने हाथ जोड़कर नमते कहा और जाते जाते मेरी सहेली कहते गई -कार्ड में फोन नंबर है जरुर करना |
मै उस .कार्ड को हाथ में लिए देखती रही ............
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15 टिप्पणियाँ:
शोभना जी आप ने लेख मै बहुत अच्छी बात कह दी मेने अकसर देखा है लोगो को कुछ ऎसा हि कहते.बहुत सुंदर लगा आप का यह लेख, धन्यवाद
:-)
बहुत ही अच्छे से आप प्रस्तुत करती हैं अपनी बातों को।
baation ही baaton में sach लिखा है aapne............. rochak tarike से kahi है apni बात
शोभना जी,
अपने मन के क्षोभ का वज़न किसी और की दुर्दशा से तौलना, और खुद को तसल्ली देना की इस नाव पर मैं अकेली/अकेला नहीं हूँ, एक बहुत ही मौलिक भावः है, इसे आपने बहुत ही सुन्दरता से उकेर दिया...
पढ़ कर यूँ लगा की हमने भी तो यही कोशिश कितनी बार की है.....
बहुत सुन्दर....
kitani saralata itani gahari sachchaai ko kah deti ,aaki ye ada mujhe bahut achchhi lagati hai isliye aapki rachana nahi bhoolati .jeevan ke chhoti -2baate magar aham .umda.
बात रखने का यह अंदाज निराला है, बधाई.
शोभना जी आपने इतना सुंदर लिखा है कि कहने के लिए शब्द कम पर गए! आपकी लेखनी को सलाम!
रोचक वर्णन !! सासुओं के लए अच्छी सीख है !!
शोभना जी,
मानव मन की अंतर्द्वंदिता को जिसमें हम अक्सर सभी कुछ अपने चष्में से देखना चाहते हैं और हालातों का आकलन भी वैसे ही करते हैं बड़ी ही खूबसूरती से उकेरा है।
वहीं उस सहेली का यह भांप लेना कि सहेली को एकाकीपन से लड़ने के लिये फिर अपनी हॉबियों की ओर मोड़ने के जरूरत हैं बड़ा ही पॉजिटिव्ह घटनाक्रम है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
सास बहू के रिश्ते बहुत कुछ आपसी समझदारी और आपसी व्यवहार पर निर्भर करते हैं . अनेक परिवारों में सास बहूँ माँ बेटी की तरह रहती दिखाई देती हैं तो कुछ अन्य घरों में इनमें छत्तिस का आंकडा भी रहता है.मैं एक ऐसी लड़की को जानता हूँ जो मायके में पिता के कठोर अनुशासन में रही किन्तु ससुराल में सास ससुर से उसके सम्बन्ध दोस्तों जैसे हैं.
aapki abhvyakti sachmuch sarahneey hai. dil se badhai!!!!!!!!!!!
shobhanaji,
hem pandayji ki tippani se poori tarah sahmat hoo.
kuch isi tarah ka me soch rahaa tha jab aapka lekh padhh rahaa tha.
शोभना जी,
सरल शब्दों में मनोभावों को चित्रित किया है.दुनिया दर्पण कि भांति स्वयम के चित्र को दर्शाती है.आदमी का नजरिया दुनिया में वही देखता है जो वह देखना चाहता है.बदले नजरिये से जीवन कितना बदल जाता है आपने अच्छी तरह से अपनी रचना में दिखाया है.
एक महिला के नज़रीये से इन सभी बातों का खुलासा अछ्चा किया आपने. आपके विचरों की अभिव्यक्ति सरल, सुगढ़, और तरल है.
रिश्तों की हकीकत को बड़ी सकारात्मक तरीके से सामने रखा आपने.......
बेहतरीन प्रस्तुति..... और सास की भूमिका का चित्रण तो क्या कहने.....
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