Thursday, March 27, 2014

कौन पिछड़ा कौन आधुनिक ?

चुनाव ,चुनाव ,और सिर्फ चुनाव कि बाते ही चारो ओर लोग  ही लोग पक गये है किन्तु घूमफिरकर वही बाते होने लगती है जयपुर  से इंदौर आते वक्त ट्रैन में आप कहाँ जायेगे ?आप कहाँ जायेगे ?और एक गहरी मुस्कुराहट के बाद चर्चा शुरू आमने सामने वाले महानुभाव अपने अपने प्रदेश के नेताओ कि अपने ढंग से व्याख्या में व्यस्त (हाँ ये बात और है कि आज के नेता कि बात करना कितना महत्व रखता है )एक बुजुर्ग और और एक ३५ से से ३८ साल के युवक कि बातचीत -सबसे बड़ी पार्टी का तो सफाया ही हो गया दीखता है हमारे प्रदेश  में कितनी तरक्की हुई है सड़के ,पानी ,बिजली सब सुगमता से उपलब्ध हो रहे है किसी जमाने में जहाँ पाँच घंटे लगते थे अब दो घंटे में पहुँच जाते है -देखिये नेताजी कि अभी लालसा जाती नहीं है उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली ,बेटा  आजीवन जेल में ,पांव से चल नहीं सकते अपने दल के साथ जाते हुए तिन किलोमीटर पहले ही हेलीकाप्टर मंगा कर वापिस आ गये और उसके बाद ही पुरे दल पर हमला हो गया सभी मारे गये मैंने अपनी किताब पढ़ते हुए उस युवक को देखा जो यह बात उन बुजुर्ग को बता रहा था स्वाभाविक स्वीकृति थी उसके इस कथन में ,और शांत भाव !और बुजुर्ग जो सब कुछ जानकर भी यह प्रकट कर रहे थे मानो वो यह पहली बार सुन रहे थे!  अच्छा ?उसके पहले लगभग वो ,अपना सारा राजनितिक ज्ञान ,अपनी नौकरी में उन्होंने क्या किया ,कितने सेमिनार लिए कितनी समाज सेवा कि सब कुछ बता दिया था | इस बीच ऐ सी थोडा बढ़ गया था उन्होंने अपनी पत्नी ( जो चुपचाप बैठी थी ) को आदेश दिया जरा मफलर, टोपी, स्वेटर  निकाल !दो कही गला नहीं पकड़ ले ?पत्नी ने भी यंत्रवत सभी चीजे निकाल दी फिर ऐ . सी नार्मल हुआ तो उन्होंने फिर सारा सामान निकालकार पत्नी के हाथ में दे दिया | यह क्रम दो बार चला |
इसी बीच  युवक का छोटा बच्चा रोने लगा  और बच्चे को पापा के पास ही आना था और बातचीत का  सिलसिला भी रुक गया |
इतने चुनावी माहौल में गहरे राजनितिक विश्लेषण से अनभिज्ञ साइड कि बर्थ पर एक युवती अपने मोबाईल के साथ समय बिताती बिच में हमे बताती हुई कि गाड़ी कितनी लेट चल रही बताती जा रही थी जो कि उसका भाई दिल्ली से बताता जा रहा था,    वः अपने मायके भोपाल जा रही और देवास में उसके माता पिता उसे लेने आये थे मायके जाने का असीम उत्साह उसके हाव भाव से झलक रहा था हो भी क्यों न ? एक स्त्री कितनी भी बूढी हो जाय उसके मायके का आकर्षण सदैव सर्वोपरि होता है फिर उसकी  शादी को महज डेढ़ साल ही हुआ था ,इतनी दूर जोधपुर और भोपाल कि दुरी उसके लिए युगो के सामान बीत  रही थी |  ,
उसने मुझसे सहज ही पूछ लिया आंटी -आपको जयपुर कैसा लगा मैं तो जयपुर कि कायल हो गई थी |
मैंने उससे पूछा ?जोधपुर कहते है जयपुर से  ज्यादा  सुन्दर है | उसने जवाब दिया -सुन्दर तो है पर जयपुर से २० साल पीछे है और भोपाल से तो तीस साल |
मैंने उससे पूछा किस रूप में तुम पीछे मानती हो ?
मुझे घूंघट निकलना पड़ता है ,पूरा चेहरा ढंका होना चाहिए मेरे मायके से विपरीत माहोल है
हाँ लेकिन हमारे पापाजी (ससुरजी )हमें बहुत प्यार करते है मेरा बहुत ध्यान रखते है किन्तु मेरी इच्छा होती है अपने पापा कि तरह मै  उनसे बात करू ?जो भी बात करनी होती है मम्मीजी  के द्वारा ही कर सकते है |
तो है न पिछड़ापन ?
 मैंने कहा -परम्पराओ को निभाना पिछड़ापन तो नहीं है !
उसका कहना था -हाँ ये तो है और घर में मुझे कोई पाबंदी नहीं मेरे माता पिता सर्विस करते है मई भी शादी के पहले करती थी . ससुरजी ने कहा - बेटा अपनी पढ़ाई आगे बढ़ाओ तुम्हे अभी सर्विस कि जरुरत नहीं है मेरे पति भी यही चाहते है मै आगे पढू और मैंने उसे जारी  रखा है . और घर में सब मेरे जेठ, जेठानी, सास सब बहुत ध्यान रखते है सास जरा उदास देखती है तो अपने बेटे से कहती है बहू को पिज़ा खिलाओ ,चाट खिलाओ
बाहर  ले जाओ |
तब तो तुम्हारा परिवार बहुत प्रगतिशील है मैंने कहा -
अब वो भी   अपना सामान संमहालने में लग गई क्योकि देवास आने वाला था और वो  मुस्कुराते हुए उतर गई उसके उतरने के बाद डेढ़ घंटे का समय उस डिब्बे में ध्यान स्थल कि तरह बीता क्योकि उसकी बाते ,अपने घर का जीवंत वातावरण वर्णन कर हँसते हुए अपनी सोच को कुछ क्षणों में परिवर्तित कर परिवार के साथ सामंजस्य बिठाना उसके आत्मविश्वास कि महक दे गया था |
और चुनाव , नेता , बड़ी बड़ी बाते,आरोप प्रत्यारोप  , देश को बनाते है  ?या ऐसी  फुलवरिया जो फूलती कही और है और खुशबू बिखेरती है वहाँ, वो  जहाँ गूँथ दी जाती है -------

Friday, March 14, 2014

भरत कि आस्था





  मुझे राजनीती में कोई रूचि नहीं  है शुरू से ही, न ही कभी रूचि ली ,किन्तु आजकल टी वि पर, फेस बुक पर वही  रंग बिखरा है तो कुछ छींटे हम पर भी पड़  गए अब थोड़े छीटे पड़े है तो लगता है कुछ समझ भी आने लगी है ?शायद सत्ता का इससे सीधा संबंध है । छोड़िये भी कहा? मैं और कहाँ भारत कि राजनीती? सूर्य को चिराग दिखाने जैसा ही होगा  ?इधर कुछ खास काम  नहीं होने से जब भी खाली  रहती हूँ अपनी थोड़ी सी किताबो को झाड़ लिया करती हूँ झाड़ते झाड़ते उन्हें पढ़ते पढ़ते झाड़  पोंछ आधी  ही रह जाती है, उसी क्रम में आज दादा कि किताब "धुंधले कांच कि दीवार "पढ़ना शुरू किया तो उनका यह ललित निबंध "भरत "मन को छू गया और लगा कि आज भी कितना प्रासंगिक है .यह किताब सन १९६६ में प्रकाशित हुई थी।
प्रश्न जब सर उठाते है -
इस शीर्षक में दादा ने राम ,सीता और भरत को अपनी भावनाओ में पिरोकर विषय को रेखंकित किया है -
                                          "   भरत "
राम के वन में चले जाने  के पश्चात् शोकमग्न और हड़ताल ग्रस्त अयोध्या में आकर भरत सोचते है कि ,--"आखिर यह सब देखना भी मेरे भाग्य में बदा था . जिस व्यक्ति ने स्व्प्न में भी राज्य कि इच्छा नहीं कि ,जिस व्यक्ति ने पिता कि तरह अपने बड़े भाइयो का सम्मान किया ,जिस व्यक्ति ने अपनी माँ और सौतेली माँ में भेद नहीं जाना और जिस व्यक्ति को महलो में रहकर भी ऐश्वर्य कि भूख छू तक नहीं गई उसी के नाम पर यह सब नाटक खेला  गया !
बहुत कुछ सोचने पर भी मैं समझ नहीं पाता ,कि जिस घर में सदा शांति रही ,जहाँ माता से भी बढ़कर पिता कि आज्ञा मानी गई ,जहाँ छोटे बड़ो का सम्मान करते आये जहाँ बड़ो से छोटो को स्नेह मिलता आया ,जहाँ किसी वस्तु तो दूर ,किसी विचार तक को लेकर किसी के चेहरे पर शिकन तक न आई वहाँ यह सब हुआ . कैसे ?किशोरावस्था में भी भाइयो के बीच  कभी लड़ाई नहीं हुई उन्ही भाइयो के बीच" युवराज पद "के लिए विवाद होगा ,इस "विषाक्त अंकुर" का जन्म कहाँ से हुआ ?
         कुछ लोगो का कथन है कि पिता के द्वारा दिए गये वचनो के कारण ही यह दिन देखने को मिला !लेकिन उन वचनो को दिए हुए तो एक अरसा हुआ ,जिस माँ के मन में उन्हें भुनाने के लिए ऐसा हल्का विचार आ सकता है ,उसमे  उसे इतने दिनों तक छुपाने का गांभीर्य कहा से आया ?
            कुछ लोगो का मत है कि दासी के कहने से माँ कि मति मारी  गई !लेकिन जो एक संस्कार सम्पन्न घराने कि राजरानी रही ,जिसे एक आदर्श पति कि पत्नी आदर्श पुत्र कि माता और आदर्श परिवार कि गृहणी होने का गौरव प्राप्त हुआ हो ,उसका एक तुच्छ दासी के बहकावे में आना कहाँ तक न्याय संगत है ?
    इसी बीच एक विचार उनके दिमाग में बिजली कि तरह कोंध जाता है और वे गुनगुनाते  है --

"अरे मैं  भी कैसा पागल हूँ ,एक साधारण सी बात मेरे समझ में नहीं आई ,जिस घर को आदर्श घर बनाने में परिवार ने कोई कसर न उठा रखी  हो उसी घर में" सत्ता "का एक "विषवृक्ष" भी फलता फूलता आया है !उसकी छाया तले सभी सुख और संतोष अनुभव करते आये ,लेकिन उसके विषाक्त फलो कि और किसी ने ध्यान नहीं दिया ?कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी अपनी भूख पर विजय प्राप्त कर सकता है" सत्ता कि भूख "पर विजय पाना मुश्किल है । सो अपने घर के आँगन मेंउसी खूबसूरत से दिखने वृक्ष में जब " युवराज पद "का  फल लगा ,तो" राजमाता "खलने कि इस सर्वभक्षी भूख ने ही ममतामयी माँ कि मति को हर लिया | यदि इसका शीग्र इलाज नहीं किया तो समुचा  परिवार छिन्न भिन्न हो जाने  वाला है "|
           और तभी उनकी आँखों में राजसिहांसन को ठुकराकर वन कि रह जाते हुए भगवान राम कि नंगी पगथलियों का चित्र छा जाता है और वे गीली आँखों उन्ही कि खोज  करते हुए वन कि रह चले जाते है |
     कहते है उन्ही पादुकाओं को लेकर उन्होंने भारतवर्ष  की डूबती हुई परिवार व्यवस्था को बचा लिया था  ।
-पंडित रामनारायण उपाध्याय
"धुंधले कांच कि दीवार "