Friday, December 24, 2010

चिट्ठी आई है ....

"चिठी आई है आई है चिट्ठी आई है "
इस गीत ने कई लोगो कि आँखों को नम किया था| किसी जमाने में चिट्ठी आना ही दिल कि धड़कन को बढ़ा देता था |
"डाकिया डाक लाया ,""ख़त लिख दे सावरिया के नाम बाबू "इन फ़िल्मी गीतों ने भी ख़त के महत्व को और बढाया |पत्र आना और उसे पूरे परिवार के साथ बैठकर पढना उन दिनों एक उत्सव ही होता था |एक ही बार पढने से मन नहीं भरता तो जितने लोग घर में होते और जो पढ़ सकते थे पूरा हफ्तापढ़ा जाता था |हाँ उस समय सबके जीवन कि पारदर्शिता होती थी कि किसी का कोई सीक्रेट नहीं होता था |अगर बहू के मायके से पत्र आया है तो सारे परिवार के लिए आदरसूचक संबोधन होता था | बेटी के लिए हिदायते ही होती थी ताकि वो परिवार का आदर कर सकेएक
ही चिठ्ठी को कई कई बार पढने का आनन्द ही कुछ और होता था |उन चिट्ठियों में आत्मीयता होती थी ,
तो कई बार उन चिट्ठियों को माध्यम बनाकर कई रिश्ते तोड़े भी जाते क्योकि चिट्ठी ही विश्वस्त सबूत होते थे |
यंत्रो के सहारे हाँ भले ही नजदीक होने का दावा करते है किन्तु मन ही मन मन से दूर ही दूर होते जा रहे है |पहले सिर्फ घर में एक फोन होता था तो कुशल क्षेम के आलावा कोई दुर्घटना के समय ही काम में लिया जाता था |किसी समय १० पैसे या २५ पैसे का पोस्ट कार्ड भेजकर या पाकर हम सूचनाओ से संतोष कर लेते थे |आज दिन भर प्रियजनों के सम्पर्क में रहकर भी बैचेनी महसूस की जाती है |

शहरी बच्चो के लिए चूल्हा ,सिगड़ी ,लालटेन की तरह पारिवारिक चिट्ठी भी दुर्लभ वस्तुओ की श्रेणी में गई है |

हम सब कुशल से है ईश्वर की कृपा से आप सब भी कुशल से होंगे |
या ईश्वर से आप सबकी कुशलता की प्रार्थना चाहते है |
घर में यथायोग्य बड़ो को प्रणाम छोटो को प्यार |
पत्रोत्तर शीघ्र देवे |
आपको भी अपनी कोई पुरानी चिट्ठी का किस्सा याद आये तो जरुर बताइयेगा |

महेश्वर किला (मध्य प्रदेश )

१८ वि सदी में सुप्रसिद्ध महिला शासक अहिल्या देवी ने महिलाओ को गौरवान्वित किया है |
इंदौर शहर से ९१ किलो मीटर की दूरी पर माँ नर्मदा के तट पर महेश्वर सुन्दर नगर बसा है जिसे महिष्मती भी कहा जाता है |इसी नगर में देवी अहिल्याबाई (होलकर ) के द्वारा बनाया हुआ किला तत्कालीन शिल्प का बेजोड़ नमूना है |
१८ वि सदी में सुप्रसिद्ध महिला शासक अहिल्या देवी ने महिलाओ को गौरवान्वित किया है |





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Thursday, December 02, 2010

कर्म की सार्थकता और "कोशिश "

समय के साथ मूल्यों में भी परिवर्तन अवश्यंभावी है |चाहे वो इन्सान के नैतिक मूल्य हो या इन्सान को अपना जीवन चलाने के लिए जिन वस्तुओ की जरुरतहोती है उन वस्तुओ का मूल्य हो |सन १९७४ में देशी घी का मूल्य १८ रूपये किलो था |क्या आज की पीढ़ी इस ?पर विश्वास कर पाती है ठीक उसी तरह जब हमारे बुजुर्ग कहते थे की हमारे जमाने में १ रूपये में ४ सेर घी मिलता था |पहले सेर फिर की और अब लिटर में घी मिलता है यः भी तो परिवर्तन ही है |५० से ६० साल पुरानी फिल्म देखते है तो उसमे भी" महगाई कितनी बढ़ गई है "ये वाक्य रहता था आज भी महंगाई कितनी बढ़ गई है आपस की बात में हम कह ही लेते है ये बात और है की कहने तक ही रह जाते है और वो चीज की आदत होने पर ,जरुरत बन जाने पर कितनी ही महंगी हो खरीद ही लेते है |

नैतिक मूल्यों में परिवर्तन कहे या आदत कहे सिर्फ इतना ही काफी है की मोबाईल फोन के चलते एक आध बार सफेद झूठ तो हरेक इन्सान बोल ही लेता है |
वक्त बीत जाने पर हमारे द्वारा किया हुआ काम कभी कभी व्यर्थ ही लगता है तब हम भूल जाते है की उस समय उस कार्य की क्या महत्ता थी और हमने उसी महत्ता को ध्यान में रखकर ही काम किया था |उसी तरह जैसे शादी में शादी के गीत गायेगे न ?दीवाली के तो नहीं न?
सीमेंट फेक्ट्री टाउनशिप में रहते रहते सेवा समिति के माध्यम से बहुत से सेवा के कार्य करने करने के सुअवसर मिले आदिवासी गाँवो में स्कूल चलाना ,महिलाओ को सिलाई सिखाना ,नेत्र शिविर ,परिवार नियोजन शिविर ,पोलियो शिविर आदि लगाना |"नेत्र शिविर " में काम करना आत्मिक सन्तुष्टी देता था बुजुर्गो की देखभाल वो भी ऐसे जिनको दो वक्त खाना भी मुश्किल से मिलता था |जब भी गाँव -गाँव प्रचार पर जाते उनका याचनाभरा प्रश्न होता ? हम ओपरेशन के बाद देख पायेगे न ?उनको ६ दिन तक शिविर में ही रखा जाता था उनके खाने, सोने की व्यवस्था करना हम सब महिलाओ में काम करने का जोश भर देता था |जैसे कोई उत्सव हो या अपने घर में शादी हो \शादी का प्रसंग तो कभी कभी होता था किन्तु हर साल शिविर उतने ही उत्साह से लगाया जाता |
पोलियो शिविर हम एक ही बार लगा पाए थे पोलियो ग्रस्त बच्चो को शिविर तक लाना ,उसके पहले गाँव गाँव जाकर उन्हें चिन्हित करना बड़ा ही वेदनामय काम था |जिस संस्था के साथ जिनके सहयोग से पोलियो शिविर लगाया था आज भी सोचती हूँ की क्या वो सही था ?आज भी वो संस्था पोलियो शिविर लगा कर
भ्रमित कर रही है |पर शायद यही होता है उस समय हानि -लाभ नहीं देखते एक जज्बा होता होता है काम करने का -सामने वाले के दुखो को देखकर कि हम कैसे इसकी मदद कर सके ?पोलियो शिविर में होने वाले ओपरेशन और ओपरेशन के बाद उनका फालोअप भी पोलियो को नहीं हरा सकता है उसका दुःख हमेशा रहता है |पोलियो शिविर में छोटे छोटे बच्चे अपने माता पिता के साथ शिविर के दो दिन पहले से आने शुरू हो गये थे |उन बच्चो के माता पिता को देखकर मन में कुछ भाव जगे थे उन्हें ही शब्दों में पिरोया था सन ६दिसम्बर १९९९ के दिन |


"कोशिश "

तुम हँसते तो हो किंतु एक दर्द लेकर

तुम रोते तो हो किंतु आंसू पीकर

तुम चलते तो हो किंतु थकान लेकर

तुम्हारे दर्द आंसू और थकान को

जरा सी राहत देने की

कोशिश है हमारी

तुम्हारे इन खिलते हुए ,फूलो की खूशबू

तम्हारे ही होठो पर लाये मुस्कान न्यारी

और हमारे इस संकल्प में ,

साथ आपके है ,

शुभकामनाये है हमारी |

Wednesday, December 01, 2010

दर्शन

वो मोर मुकुट वाला
आँखों में शरारत लिए
मेरे सम्मुख खड़ा है
मै उसे निहारती |

उसके होठो से लगी
मुरली की तान सुनकर
जीवंत होती
या कि अपनी
सुध बुध खो देती |


मेरी कल्पना है
या ,आभास
उसमे डूबती उतरती
परमानन्द को पाती |

मेरी कामना हो पूरी
ये आकांक्षा नहीं
सदा मै
तुम्हे पुकारू
ये आकांक्षा
रहे मेरी |