Friday, July 29, 2022

नन्हा शिशु

माँ दे रही
शिशु को अपनी
साँसे
माँ 
पुलक रही
अपने शिशु की साँसों से
नवयौवना हो,
प्रौढा हो,
या वृद्धा हो
माँ की साँसे
महकती है
सिर्फ अपने
शिशु से
जैसे साँसों
का कोई 
मोल नहीं?
वैसे ही ममता
का मोल नहीं----
उषा जी का टास्क

अमाड़ी की भाजी


हमारे यहाँ किसी जमाने मे गांवों में सिर्फ ज्वार की रोटी ही खाई जाती थी।क्योंकि तब खेतों में खरीब की फसल में ज्वार मूंग,चवला  और अरहर की दाल ही होते थे ।
और साथ ही ये अमाड़ी की भाजी लगा  दी जाती थी। जो कि अरहर की दाल के साथ बनाई जाती थी ।
बचपन में हमें कभी भी ये खाना अच्छा नहीं लगता था ।जब गाँव से दूर हुए तो इस खाने ने पकवान कारूप ले लिया।
पिछले कुछ सालों से सिर्फ सोयाबीन की फसल ही होती है क्योंकि उससे रोकड़ा पैसा मिलता है ।
   पर अब फिर किसान ज्वार उगाने लगे है क्योंकि सोयाबीन ने मिट्टी की उर्वरा शक्ति को कमजोर कर दिया।
और अब अचानक ज्वार की मांग भी बढ़ गई।जो पहले गेंहू से आधे दाम में मिलती थी अब गेंहू से ज्यादा भाव है।


आजकल ज्वार की रोटी रोज बना रही
हूँ।ज्वार की रोटी बनाना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि आटे में बिल्कुल भी चिकना पन नही होता।
खैर तो आज आप स्वाद लीजिये अमाड़ी की भाजी ज्वार की रोटी ,छाछ ,मिर्ची की चटनी औऱ गुड़।
विशुद्ध देशी क्षेत्रीय खाना।
भाजी (बनी हुई सब्जी)
,एक कटोरी अरहर की दाल
आधी कटोरी अमाड़ी की भाजी,
एक प्याज बारीक कटा हुआ ,
एक छोटा चम्मच हल्दी,पाउडर
लाल मिर्च पाउडर, राई नमक स्वाद के अनुसार  2 बड़े चमच तेल मूंगफली या टिल का तेल।

विधि।
दाल कुकर में एक सिटी देकर पका लें बहुत पकाना नही है
भाजी अलग से पानी में उबाल लें
पानी छानकर  दाल और भाजी मिक्स कर ले।
अब एक कढ़ाई में तेल गरम कर हींग राई डाले फिर प्याज भुने हल्दी मिर्ची नमक डालकर  दाल और भाजी दाल दे मिक्स करें और जो लाल मिर्च की चटनी सुखी मिला दे 2 मिनट ढंक दे
अमाड़ी की भाजी तैयार।
लाल मिर्च की चटनी जिसको हमारी बोली में सातलेल मसाला कहते है।
मतलब शैलो फ्राई किया मसाला।
सामग्री
10 से 12 मिर्च  लाल साबुत मिर्च, आधी कटोरी सूखा धनिया,
एक चम्मच जीरा
20 से 25 लहसन की कलियां 2 इंच बारीक कटा अदरक नमक स्वाद के अनुसार।
एक छोटे चम्मच तेल में हल्की आंच पर कढ़ाई में सब चिजे भून लें
ठंडा होने पर मिक्सी में पीस ले 
ये मसाला कई महीनों तक खराब नहीं होता कोई भी सब्जी में डाल सकते है ।
काँच की शीशी में भरकर बाहर ही रखे।अगर मिर्च तेज लगे तो मूंगफली या भुनी हुई तिल पाउडर मिला लें।
खाना परोसते समय दो चम्मच तेल गरम करें और उसमें राई तड़काएं और भाजी पर डालें।
तो आइए और स्वाद लीजिये।
एक शाम में कुछ यू  ही .........

रात उतरती गई ,बाते सुलगती गई

सपने हवा हुए ,चादर छोटी हुई

 अंगड़ाई ने मुस्कुराने का प्रयत्न किया

जिन्दगी को चलने का  , इशारा मिला 

-शोभना  चौरे

Wednesday, October 27, 2021

यादों की पोटली

#यादोंकी पोटली -3

"दीपावलीआप सबके जीवन मे अनन्त खुशियां लाये
अनेकानेक शुभकामनाये।"

अंतिम किश्त

खूब आड़ी तिरछी रांगोली बनाते ।मौसम में हल्की सी ठंडक आ चुकी होती फिर गाँव मे तो ज्यादा ही लगती
पानी ठंडा लगता तो  मुहँ हाथ धोने में ,तो दादा प्रभात फेरी आने के पहले ही आँगन में बने चुल्हे  को जला उस पर गर्म पानी रख देते चूल्हा जलाने की सामग्री।
तुवर की लकड़ी (तोर काठी निमाड़ी में)जिससे जलने में आसानी होती थी लकड़ी को ,सब सुकलाल मामा रात को ही रख जाता था ।
हम सब बच्चे गर्म पानी लेकर ही काला दन्त मंजन करते और वहीं चुल्हे के आज बाजू दूध चाय का इंतजार करते हाथों को तापते हुए।
दादा की कचहरी के पास एक छोटा सा कमरा हुआ करता था जिसे हम कोठरी कहते उसमें लोहे की बड़ी सी तिजोरी , लकडी ,और लोहे पेटियां जिनमे सबके नए कपड़े रहते ।तिजोरी में गहने ,खाता बही, और सारे जरूरी कागजात रहते।
साथ ही एक छोटी सी खटिया होती जहाँ ज्यादातर माँ दिन में कभी कभार सुस्ता लेती।
कोठरी का दरवाजा खुलने पर  गोशाला  होती उसके बाजू में बड़ा सा कोठा (कमरा) होता जिसमें पशुओं का दाना चारा रहता।
गोशाला के पास ही बड़ा सा अनार का पेड़ जिसमे कच्चे तोड़कर खाने पर हमेशा डांट पड़ती!!
अनार के पेड़ से लगा हुआ गहरा कुँआ जो पक्का बंधा हुआ और कुएं पर ही कपड़े धोने की जगह, पुरुषों के लिए स्नान  की जगह और बड़े बड़े तांबे के चरवे (हंडे)जिसमे पानी भरा होता और ये पानी भरने का काम भी मामा करता। 
गाँव जलने, घर जलने के बाद ये पक्के और पत्थर के बने घाट ही पुराने घर को जीवंत  और "खंडहर बताते है कि इमारत बुलन्द" थी का अहसास करवाते है।
कुएं के बाजू में ही बड़ा सा आँगन उसमे मधुमालती
और पीले कनेर का पेड़ आज भी स्मृतियों में जैसा का तैसा है।
आँगन के पास गलियारे से शुरू होकर जो (बड़ी एक ढाल ई )बरामदा था उसमें हाथ की चक्की  ,मूसल ओखली और धान्य तैयार करने में जो सामान काम आता वो रहता था ।
हम  बच्चे तो रांगोली बनाने और जिजियों के साथ गलियों में खेलने में रहते।
माँ बाई और दादी दिवाली के पकवानों की तैयारी में लगी रहती ,घर की पुताई लिपाई, साथ साथ चलती!
हम कचहरी की फ़ोटो की फ्रेम को तेल पानी से चमकाते बस इतना ही सहयोग करते बाकी पकवानों पर निगाह रहती।
आँगन में बैठकर गुजिया सँजोरी(गुजिया का गोल शेप)
बनते हम गुजिये में भरावन की सामग्री की फांक मार ही लेते 😊सबके मना करते करते कि अभी भोग लगेगा।
अनरसे *रात में बनते ।
नमकीन सेव गांव के सुखदेव काका हलवाई के घर से बनकर आती।
और तिल पपड़ी बस इतनीही चीजें बनती
पर  मात्रा ब हुत सारी बनानी होती थी।
धन तेरस पर पूरणपोली, चौदस पर दाल बाटी, अमावस को पूरी सब्जी मीनू फिक्स।
पूरणपोली जिस दिन बनती देखा करते कब पूरन खाने को मिलेगा तब आसान नहीँ था पूर्ण पोली बनाना।
माँ और दादी का पूरा श्रम और स्नेह होता उसमे।
फटाके ,गांव के हॉट से लाया तमंचा, तिकड़ी की डिब्बी, सांप, फुलझड़ीऔर चकरी जो सब पिताजी शहर से लाते उन्हें धूप लगाकर फिर हमको बांटे जाते।
और हम  उन्हें ही बचा कर रख देते।लड़ियाँ सिर्फ काकाजी ही फोड़ते जो आज के एटमबम से भी महत्वपूर्ण थी उन दिनों हमारे लिए।
आँगन के बगल में रसोईघर की कोठरी उसके बाजू में
पक्का स्नानघर ,उसके आगे पनिहारा।
आँगन से चार सीढ़िया चढ़कर छान (कमरा)जिसमे पूजा घर बड़ा सा और सबसे महत्वपूर्ण दादी की वो लकड़ी की अलमारी जिसमे रसोई का कीमती सामान होता और उसमें हमेशा ताला लगा रहता जब हम बच्चे इधर उधर होते तभी वो ताला खोलकर जरूरत का सामान निकाला जाता।
आज मुझे सहसा बंगाली उपन्यास पढ़े हुए की गृहस्वामिनी याद आ गई जिनके पल्लू में हमेशा चाबी बंधी रहती।
दिन में गुजिये बनते रात को सबके खाना खत्म होने के बाद चुल्हे पर कढ़ाई रखी जाती तलने के बाद भोग के निकालकर हम सोते हुए बच्चों को जगाकर गरम गुजिये खिलाये जाते और गाय का गर्म दूध।
पूजा घर के पास ही एक और बड़ा कमरा होता 
जहां अनाज का भंडारण होता एक बड़ा सा झूला
जिसमे बैठकर जोर जोर से गीत गाये जाते उन्मुक्त
कंठ से।
कमरों के बगल से एक गलियारा होता जहां से पीछे बने शौचालय के लिए पृथक रास्ता होता आज ये जिक्र करना जरूरी हो गया कि हमारे पूर्वजों की सोच कितनी आगे थी कि जिन व्यवस्थाओं को लेकर सरकारें अपनी उपलब्धि बता रही है वो आज के 100 साल पहले से ही घरों में व्यवस्था थी।
दिवाली के दिन शाम को रांगोली बनाना, दिए जलाना, घर के हरेक कोने में दीपक जलाना ।सफेद सोने(कपास)जो घर मे आया रहता खेत से !उसकी पूजा करना,कलम दवात की पूजा, लाल बही खाते की पूजा करना वो क्षण आज भी रोमांचित कर देते है।
पूजा के बाद सेठ दाजी के यहाँ जाना , सबको प्रणाम करना, जितने भी कुटुम्ब के घर होते सबको प्रणाम करने जाना आशीर्वाद पाना यही हमारा धन था।
उन आशीर्वादों से हम फले भी फुले भी और हमारा वो कालमुखी गाँव जो किसी आपदा से जलकर अपना वैभव खो चुका था वहां रहने वालों की जीवटता से आज फिर उसी वैभव, सुख समृद्धि से परिपूरित हो गया है।जिन्होंने वो विभीषिका देखी आज उनके बच्चे विद्याधन लेकर अपने गाँव को संवारने लगे है ।
तो ऐसी थी ""मेरी यादों की पोटली की दिवाली""
मेरे बचपन की दिवाली! आज की दिवाली में तो हर्षित होते ही है पर मन मे जो उन दीपों के साथ गाँव का सौंदर्य  बसा है ,वो अनिवर्चनीय सुख है!!!!

Monday, March 01, 2021

सूखा पेड़

तुमने देखा है मुझे 
हरा भरा
वो मेरा सिंगार
किया था प्रकृति ने 
मेरी छाँव में 
सुख पाया ऐसा तुम कहते हो
मैंने तुम्हारी भूख मिटाई
ऐसा भी तुम ही कहते हो
अनगिनत वर्षो से जिया
तुम्हारे लिए
ऐसा भी तुम ही कहते हो
आज थक गया हूँ 
झुर्रियां दिखने लगी है
बेतहाशा मेरी
फिर भी मैं
झुका नहीं
क्योकि तुमने
ही मुझमे प्राण फूंके
यह कहकर
कि
ठूंठ का भी
अपना सौंदर्य होता है।
शोभना चौरे

Saturday, February 13, 2021

बस कुछ यूं ही

बस कुछ यूं ही
💐💐💐💐💐💐
विचारों का दरख़्त 
खोखला हुआ चला है
जड़ें भी सिमटने लगी है
मैं महान हूँ
इसी भ्रम में,
पीछे लगी कतार को
झुठला न सके
न मालूम!
इस कतार में से 
कितने दरख़्त
बनेंगे?
कितने खजूर बनेंगे?
कितने बोन्साई 
बनाये जाएंगे?
दरख़्त बनने की
आपा धापी में
टूटती कतार
सिर्फ घास 
बनकर 
ओस की बूंदों
को दामन में 
भरकर मिटती  
जाती है
महान बनने 
की कतार!!!!

Monday, December 14, 2020

ओतस इडली

#मैं मेरी#रसोई और मेरी कहानी
पोस्ट 8
इधर कई दिनों से तबियत खराब थी तो चाहकर भी रसोई की कहानी लिख न पाई।
इस बार 
कहानी कुछ यूँ है जब मुम्बई में थी तो हमारा महिला मंडल सक्रिय था हम लोगों ने तय किया था कि हर शक्रवार को सोसायटी में खाने के स्टॉल लगाएंगे और जो इनकम होगी उससे झोपड़ियों के बच्चों को पढ़ने की सामग्री देंगे।
दो ,दो महिलाओं के ग्रुप बना दिये जिसकी जिसमें मास्टरी हो वो बनाता था।
मैं इडली,और समोसा बनाती थी साथ में मेरी एक सहेली थी।
1किलो चांवल में 80 इडली बनती थी और सिर्फ नारियल की चटनी।बनाने में आधा दिन लग जाता और 1 घण्टे में सारी खत्म हो जाती ।सारा हिसाब किताब होता।लागत निकालकर सारा प्रॉफिट मण्डल में जमा हो जाता ।कॉफी सालों तक किया ।परफेक्ट इडली बनती थी।
हाँ एक बात मुझे हमेशा सोचने पर मजबूर करती है कि जो इडली चटनी मुम्बई या बैंगलोर में स्वाद देती है वो स्वाद यहाँ इंदौर में नही?
शायद जलवायु?
खैर आज आपको ओट्स की मसाला इडली और रसम की चटनी खिलाते है।

ओट्स और रवे की इडली
1 कटोरी रवा
1 कटोरी ओट्स भूनकर पिसा हुआ
2कटोरी दही
गाजर,शिमला,मिर्च,पत्ता गोभी,प्याज
सब मिलकर चाप किया हुआ मिक्सर2 कटोरी।
हरि मिर्च अदरक का पेस्ट  नमक स्वाद के अनुसार
सबको मिक्स करके आधा घण्टा रख दे।
1 चमच तेल में कढ़ी पत्ता ,हींग, उड़द दाल राई  तड़काएं और मिश्रण में मिला दे
फिर ईनो मिलाये और ग्रीस किये इडली पात्र में इडली बना लें।

रसम चटनी
1गिलास पानी मे  2 बड़े चमचm t r का रसम पाउडर घोला, उसमें थोड़ा कच्चा नारियल,चना दाल भुनी हुई पीसकर डाली नमक और थोड़ा इमली का पल्प डाला ।
एक चमच तेल में कढ़ी पत्ता राई और हींग का तड़का घोल में डाला और 5 मिनट तक उबाल लिया ।
रसम चटनी तैयार।

Monday, September 28, 2020

मेरी रसोई की कहानी

मेरी रसोई की कहानी

 हम मध्यम वर्ग की गृहिणियों  में कोई भी चीज का नुकसान न होने देने की आम बीमारी होती है।
ये ठीक उसी तरह होती है जैसे कोई भी सुंदर से डिब्बे में कोई सामान आया तो समान के उपयोग के पहले ही दिमाग सोचने लगता है इस डिब्बे में क्या भरूंगी?
चाहे कितने भी डिब्बो के सैट पहले से मौजूद हो😊
इसी तरह जब भी घी बनाती हूँ पहले ही सोच लेती हूँ छाछ का क्या उपयोग करना है?
तो कहानी ऐसी है कि मैं जब बैंगलोर मे  थी हमारे घर मे एक नेपाली महिला गीता काम करती थी।
3 लीटर दूध लेते थे तो हर चौथे दिन छाछ घी बनाती तो जाहिर है छाछ भी बनती
अब हर समय की उपयोग करे ?
तो मैने गीता को पूछा ?
तुम ले जाओगी ?वो बोली हाँ।
मुझे प्रसन्नता हुई कि फेंकना न पड़ेगी।
उससे भी ज्यादा और खुशी तब हुई जब उसने कहा-
मेरे आदमी को छाछ बहुत अच्छा लगा ओर  पूरा पी लिया और कहने लगा कि माँ की याद आ गई गाँव की, बिल्कुल वैसा ही स्वाद है।
फिर तो जब तक मैं रही मुझे ये खुशी मिलती रही।
अब यहाँ की रसोई में भी हर पाँचवे दिन
घी बनाती हूँ तो छाछ भी भरपूर
तो सूजी के ढोकले तो निश्चित है ही
चूंकि इस छाछ में थोड़ा बहुत मक्खन रह ही जाता है तो ढोकले बहुत ही अच्छे बनते है।
सूजी के ढोकले तो आप सब हमेशा ही बनाते है तो आज की कहानी में 2 अलग चटनियों की रेसिपी दे रही हूँ।
मेरे आँगन में बहुत बड़ा मीठे नीम का पेड़ है।
इन दिनों खूब ताजी ताजी पत्तियाँ आ रही है तो सोचा चलो चटनी बनाई जाय
खूब सारी पत्तियां तोड़कर धो ली और कपड़े पर फैला कर रात भर रख दी।
💐💐💐💐💐💐
चटनी 1
एक कटोरी कढ़ी पत्ता(मीठा नीम)
आधी कटोरी मूंगफली भुनी हुई
4 हरि मिर्च
नमक स्वादानुसार
कढ़ी पत्ते को काढ़ाई में सेंक लिया मध्यम आँच पर कुरकुरा होने तक
ठंडा होने पर मूंगफली,कढ़ी पत्ता आ7र हरीमिर्च नमक डालकर पीस लिया।
अगर गीली चटनी चाहिए तो पानी और नीबू का रस मिलाएं।
चटनी 2
एक कटोरी कढ़ी पत्ता, आधी कटोरी सूखा नारियल कद्दूकस किया हुआ
4 लाल मिर्च
आधा चमच अमचूर पाउडर
नमक स्वाद के अनुसार एक चम्मच चीनी
आधा चमच भुना पिसा जीरा।
कढ़ी पत्ते। को सुखा ही कढ़ाई में भुने कुरकुरा होने तक।
निकल कर गैस बंद कर उसी कढ़ाई में 
नारियल और लाल मिर्च थोड़ी बहुत ले
ठंडा होने पर सब मिलाकर पीस ले।
चटनी 3
ये आम गीले नारियल की जो इडली
के साथ बनाते है वही है।
कहानी तो कुछ और लिखने वाली थी पर आज ये कहानी बन गई।


Thursday, July 23, 2020

पचपन पार की औरते

नारी दिवस पर 
💐💐💐💐

55 पार की औरते

55 के पार की औरतें
शीशे में अपना अक्स
देखने में सकुचाती है
अपना आत्म विश्वास
खोने लगती है
जब
जिसकी अर्धांगिनी होती है
जिनको जन्म दिया,
पालन किया वो 
हर बात में उसे
टोका करते है
तब,

मैंने देखा है 
सूजे हुए पाँव लेकर
पोर पोर टिसते 
हुए अंगो के जोड़,
तब भी घरेलू इलाज
का हवाला देकर
डॉ के पास नही जाती
क्योंकि उसे मालूम है
ये उसके बजट के बाहर है
पूरा जीवन सर्फ साबुन
किफायत से उपयोग
करती रही
आज उनको पानी में
 घुलते देख
खुद भी घुलती है।
अपनी बची हुई
जिंदगी में,

हाँ ये 
सुख की बात है
 55 पार की ओरतें
जो
रिटायर होने वाली है
अपनी नौकरी से
उनके मुख पर
आभा है,
क्योकि वो हमेशा
चेकअप करवाती 
रही अपना
उसकी पेशानी
पर बल नही
क्योंकि
उसे साबुन सर्फ
में किफ़ायत
का अनुभव नही?
-शोभना चौरे

नदी

नदी
एक नदी थी अपनी,
कलकल बहती
लहराती ,इठलाती
दर्पण सी पारदर्शी
प्यास बुझाती,
भूख मिटाती
नाव  को सहारा बनाती
किनारों के मिलने का ,
न जाने !
कब ?
वो सरकारी हो गई
पहले रेत निकाली गई
फिर बिजली के नाम
सूखा दी गई
फिर दिखावे में
भर दी गई
धर्म के नाम पर
पूजी भी गई
और भर गई 
जल से नहीं!
व्यापार के
अवशेषों से
अब न प्यास
बुझती नभूख मिटती
कभी सबकी होती,
नदी
आज चंद
निजी हाथों में
सौंप दी गई।
💐💐💐💐
शोभना चौरे