Saturday, February 13, 2021

बस कुछ यूं ही

बस कुछ यूं ही
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विचारों का दरख़्त 
खोखला हुआ चला है
जड़ें भी सिमटने लगी है
मैं महान हूँ
इसी भ्रम में,
पीछे लगी कतार को
झुठला न सके
न मालूम!
इस कतार में से 
कितने दरख़्त
बनेंगे?
कितने खजूर बनेंगे?
कितने बोन्साई 
बनाये जाएंगे?
दरख़्त बनने की
आपा धापी में
टूटती कतार
सिर्फ घास 
बनकर 
ओस की बूंदों
को दामन में 
भरकर मिटती  
जाती है
महान बनने 
की कतार!!!!

2 टिप्पणियाँ:

संजय भास्‍कर said...

प्रभावी रचना ... लाजवाब

Ankit said...

आपने बहुत ही शानदार पोस्ट लिखी है. इस पोस्ट के लिए Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.