Friday, December 24, 2010

चिट्ठी आई है ....

"चिठी आई है आई है चिट्ठी आई है "
इस गीत ने कई लोगो कि आँखों को नम किया था| किसी जमाने में चिट्ठी आना ही दिल कि धड़कन को बढ़ा देता था |
"डाकिया डाक लाया ,""ख़त लिख दे सावरिया के नाम बाबू "इन फ़िल्मी गीतों ने भी ख़त के महत्व को और बढाया |पत्र आना और उसे पूरे परिवार के साथ बैठकर पढना उन दिनों एक उत्सव ही होता था |एक ही बार पढने से मन नहीं भरता तो जितने लोग घर में होते और जो पढ़ सकते थे पूरा हफ्तापढ़ा जाता था |हाँ उस समय सबके जीवन कि पारदर्शिता होती थी कि किसी का कोई सीक्रेट नहीं होता था |अगर बहू के मायके से पत्र आया है तो सारे परिवार के लिए आदरसूचक संबोधन होता था | बेटी के लिए हिदायते ही होती थी ताकि वो परिवार का आदर कर सकेएक
ही चिठ्ठी को कई कई बार पढने का आनन्द ही कुछ और होता था |उन चिट्ठियों में आत्मीयता होती थी ,
तो कई बार उन चिट्ठियों को माध्यम बनाकर कई रिश्ते तोड़े भी जाते क्योकि चिट्ठी ही विश्वस्त सबूत होते थे |
यंत्रो के सहारे हाँ भले ही नजदीक होने का दावा करते है किन्तु मन ही मन मन से दूर ही दूर होते जा रहे है |पहले सिर्फ घर में एक फोन होता था तो कुशल क्षेम के आलावा कोई दुर्घटना के समय ही काम में लिया जाता था |किसी समय १० पैसे या २५ पैसे का पोस्ट कार्ड भेजकर या पाकर हम सूचनाओ से संतोष कर लेते थे |आज दिन भर प्रियजनों के सम्पर्क में रहकर भी बैचेनी महसूस की जाती है |

शहरी बच्चो के लिए चूल्हा ,सिगड़ी ,लालटेन की तरह पारिवारिक चिट्ठी भी दुर्लभ वस्तुओ की श्रेणी में गई है |

हम सब कुशल से है ईश्वर की कृपा से आप सब भी कुशल से होंगे |
या ईश्वर से आप सबकी कुशलता की प्रार्थना चाहते है |
घर में यथायोग्य बड़ो को प्रणाम छोटो को प्यार |
पत्रोत्तर शीघ्र देवे |
आपको भी अपनी कोई पुरानी चिट्ठी का किस्सा याद आये तो जरुर बताइयेगा |

महेश्वर किला (मध्य प्रदेश )

१८ वि सदी में सुप्रसिद्ध महिला शासक अहिल्या देवी ने महिलाओ को गौरवान्वित किया है |
इंदौर शहर से ९१ किलो मीटर की दूरी पर माँ नर्मदा के तट पर महेश्वर सुन्दर नगर बसा है जिसे महिष्मती भी कहा जाता है |इसी नगर में देवी अहिल्याबाई (होलकर ) के द्वारा बनाया हुआ किला तत्कालीन शिल्प का बेजोड़ नमूना है |
१८ वि सदी में सुप्रसिद्ध महिला शासक अहिल्या देवी ने महिलाओ को गौरवान्वित किया है |





.


Thursday, December 02, 2010

कर्म की सार्थकता और "कोशिश "

समय के साथ मूल्यों में भी परिवर्तन अवश्यंभावी है |चाहे वो इन्सान के नैतिक मूल्य हो या इन्सान को अपना जीवन चलाने के लिए जिन वस्तुओ की जरुरतहोती है उन वस्तुओ का मूल्य हो |सन १९७४ में देशी घी का मूल्य १८ रूपये किलो था |क्या आज की पीढ़ी इस ?पर विश्वास कर पाती है ठीक उसी तरह जब हमारे बुजुर्ग कहते थे की हमारे जमाने में १ रूपये में ४ सेर घी मिलता था |पहले सेर फिर की और अब लिटर में घी मिलता है यः भी तो परिवर्तन ही है |५० से ६० साल पुरानी फिल्म देखते है तो उसमे भी" महगाई कितनी बढ़ गई है "ये वाक्य रहता था आज भी महंगाई कितनी बढ़ गई है आपस की बात में हम कह ही लेते है ये बात और है की कहने तक ही रह जाते है और वो चीज की आदत होने पर ,जरुरत बन जाने पर कितनी ही महंगी हो खरीद ही लेते है |

नैतिक मूल्यों में परिवर्तन कहे या आदत कहे सिर्फ इतना ही काफी है की मोबाईल फोन के चलते एक आध बार सफेद झूठ तो हरेक इन्सान बोल ही लेता है |
वक्त बीत जाने पर हमारे द्वारा किया हुआ काम कभी कभी व्यर्थ ही लगता है तब हम भूल जाते है की उस समय उस कार्य की क्या महत्ता थी और हमने उसी महत्ता को ध्यान में रखकर ही काम किया था |उसी तरह जैसे शादी में शादी के गीत गायेगे न ?दीवाली के तो नहीं न?
सीमेंट फेक्ट्री टाउनशिप में रहते रहते सेवा समिति के माध्यम से बहुत से सेवा के कार्य करने करने के सुअवसर मिले आदिवासी गाँवो में स्कूल चलाना ,महिलाओ को सिलाई सिखाना ,नेत्र शिविर ,परिवार नियोजन शिविर ,पोलियो शिविर आदि लगाना |"नेत्र शिविर " में काम करना आत्मिक सन्तुष्टी देता था बुजुर्गो की देखभाल वो भी ऐसे जिनको दो वक्त खाना भी मुश्किल से मिलता था |जब भी गाँव -गाँव प्रचार पर जाते उनका याचनाभरा प्रश्न होता ? हम ओपरेशन के बाद देख पायेगे न ?उनको ६ दिन तक शिविर में ही रखा जाता था उनके खाने, सोने की व्यवस्था करना हम सब महिलाओ में काम करने का जोश भर देता था |जैसे कोई उत्सव हो या अपने घर में शादी हो \शादी का प्रसंग तो कभी कभी होता था किन्तु हर साल शिविर उतने ही उत्साह से लगाया जाता |
पोलियो शिविर हम एक ही बार लगा पाए थे पोलियो ग्रस्त बच्चो को शिविर तक लाना ,उसके पहले गाँव गाँव जाकर उन्हें चिन्हित करना बड़ा ही वेदनामय काम था |जिस संस्था के साथ जिनके सहयोग से पोलियो शिविर लगाया था आज भी सोचती हूँ की क्या वो सही था ?आज भी वो संस्था पोलियो शिविर लगा कर
भ्रमित कर रही है |पर शायद यही होता है उस समय हानि -लाभ नहीं देखते एक जज्बा होता होता है काम करने का -सामने वाले के दुखो को देखकर कि हम कैसे इसकी मदद कर सके ?पोलियो शिविर में होने वाले ओपरेशन और ओपरेशन के बाद उनका फालोअप भी पोलियो को नहीं हरा सकता है उसका दुःख हमेशा रहता है |पोलियो शिविर में छोटे छोटे बच्चे अपने माता पिता के साथ शिविर के दो दिन पहले से आने शुरू हो गये थे |उन बच्चो के माता पिता को देखकर मन में कुछ भाव जगे थे उन्हें ही शब्दों में पिरोया था सन ६दिसम्बर १९९९ के दिन |


"कोशिश "

तुम हँसते तो हो किंतु एक दर्द लेकर

तुम रोते तो हो किंतु आंसू पीकर

तुम चलते तो हो किंतु थकान लेकर

तुम्हारे दर्द आंसू और थकान को

जरा सी राहत देने की

कोशिश है हमारी

तुम्हारे इन खिलते हुए ,फूलो की खूशबू

तम्हारे ही होठो पर लाये मुस्कान न्यारी

और हमारे इस संकल्प में ,

साथ आपके है ,

शुभकामनाये है हमारी |

Wednesday, December 01, 2010

दर्शन

वो मोर मुकुट वाला
आँखों में शरारत लिए
मेरे सम्मुख खड़ा है
मै उसे निहारती |

उसके होठो से लगी
मुरली की तान सुनकर
जीवंत होती
या कि अपनी
सुध बुध खो देती |


मेरी कल्पना है
या ,आभास
उसमे डूबती उतरती
परमानन्द को पाती |

मेरी कामना हो पूरी
ये आकांक्षा नहीं
सदा मै
तुम्हे पुकारू
ये आकांक्षा
रहे मेरी |

Wednesday, November 24, 2010

" यज्ञ की समिधा ,नैवेध्य " दादा रामनारायण उपाध्याय की दो रचनाये



अपने ५० वर्षो के लेखन मे दादा ने व्यंग्य ,ललित निबंध ,संस्मरण ,रिपोर्ताज ,रूपक लोक साहित्य और गाँधी साहित्य पर विशेष कार्य किया आदरणीय दादा को सन १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपतिजी व्यंकटरमण द्वारा "पद्मश्री "अलंकरण प्रदान किया गया |
अब तक दादा कि ४० पुस्तके प्रकाशित |
प्रस्तुत कविताये उनके एकमात्र काव्य संग्रह " क्रोंच कि चीख " १९९५ से साभार है |

"यज्ञ की समिधा "

मैंने कभी यज्ञ नहीं किया ,
मै स्वयम यज्ञ कि समिधा हूँ |
मैंने कभी गंगा नहीं नहाया ,
मेरे शरीर से
पसीने कि गंगा यमुना बहती रहती है |
मैंने कभी उपवास नहीं किया
मै स्वयम भूखा हूँ |
मैंने कभी दान नहीं दिया ,
मेरा शरीर झाड़े गये तिल्ली(तिल ) के ,
खोखले डंठल कि तरह खड़ा है |
मैंने कभी कलम नहीं चलाई,
मुझपर कलम चलाकर ही
वे अपनी दुकाने चला रहे है |
मैंने कभी सेवा नहीं की
मेरी सेवा के नाम पर
वे सत्ताधीश बने बैठे है |
मैंने कभी भोज नहीं किया ,
हर भोज में
रक्त की गंध आती है |

"नैवेध्य"
फुल्के की तरह
रात के काले
तवे पर
उलटने पलटने के पश्चात् ,
दिन की भट्टी में सिककर
जिस जिन्दगी पर
दाग नहीं लगता ,
वही भगवान को
नैवेध्य
लगाने के काम
आती है |
-रामनारायण उपाध्याय







Sunday, November 14, 2010

"मौन "

बहुत दिनों से कोई पोस्ट नहीं लिख पाई|किन्तु सबको पढना बहुत ही अच्छा लग रहा है इसी बीच अपनी एक कविता याद आ गई उसी को फिर से पोस्ट कर रही हूँ |



जब मौन मुख्रण होता है ,
शब्द चुक जाते है |
तब अहसासों की प्रतीती में ,
पुनः वाणी जन्म लेती है|
और शब्दों की संरचना कर
भावनाओ से परिपूर्ण हो
जीवन को जीवंत करती है |
एक पौधा रोपकर ,
खुशी का अहसास
देती है |
एक पक्षी को दाना चुगाकर ,
सन्तुष्टी का अहसास देती है |
एक दीपक जलाकर
मन के तंम को दूर करती है |
और इसी तरह दिन ,सप्ताह,
महीने और वर्षो की यह यात्रा
जीवन को सत्कर्मो का ,
संदेस दे देती है |
और फ़िर
मौन
शान्ति दे देता है |





Monday, October 18, 2010

"आदेश "लघुकथा

कन्याओ के पांव धोकर उन्हें टीका लगाकर उन्हें उपहार देकर सिंग साहब तैयार होने चले गये क्योकि उन्हें ऑफिस जाना था |अपने गिने चुने बालो को कंघी फेरकर दुरुस्त किया अपनी पुलिस कि वर्दी पहनी |इतने में उनकी श्रीमती जी भी कन्याओ को भोजन परोस कर और बाकि काम अपनी बहू को सोंप कर उनकी सेवा में आ गई उनकी जरुरत का सामान दिया सिंग साहब को |
सिंग साहब ऑफिस जाने के पहले ये कहना नहीं भूले ?अपनी को ?
देखो -आज बहू कि जाँच करवा लेना डाक्टरनी से ?
और लडकी हुई तो तुम जानती ही हो क्या करना है |
आज नवरात्रि समाप्त हो गई है अब कोई दिक्कत नही ?
कल दशहरा है कुछ अच्छी सी मिठाई लेता आऊंगा |

Saturday, October 09, 2010

"नवरात्रि और आभार "

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता :
नमस्तस्यै ,नमस्तस्यै ,नमस्तस्यै नमो नम:

शक्ति कि उपासना के दिन मे और इन मंगलमय दिनों में आपके और आपके पूरे परिवार का हर दिन मंगलमय हो ऐसी शुभकामना करती हूँ |इसी अवसर पर मेरी पिछली पोस्ट "बाबूजी को श्रद्धांजली "और "डायरी के पन्ने "पर आप सभी का जो अमूल्य स्नेह का उपहार मिला है उसके लिए मै ह्रदय से आभारी हूँ |
कभी लगता है हमारे बीते हुए कल कि क्या बात करना ?और लोग कहते भी है बुजुर्गो के पास अतीत कि बखान करने के सिवाय और है ही क्या ?किन्तु ब्लाग जगत में आने के बाद लगता है कि एक दूसरे के संस्मरण पढ़कर हमारे अपनों का संसार और विस्तृत हो गया है |भले ही हम सशरीर हर जगह उपस्थित नहीं हो सकते या वो उपस्थित नहीं हो सकते
किन्तु विचारो से तो दिशा मिल ही जाती है और नाता जुड़ जाता है |
आभार है ब्लाग जगत का जिसके कारण हम इतने लोगो से विभिन्न विषयों पर जुड़ते है जिसमे किसी पर सहमती होती है किसी पर नहीं ?किन्तु फिर भी लगता है अरे !
हम
भी तो यही कहना चाहते है |
बरसो से हम अपने प्राचीन साहित्कारो ,कवियों कि रचनाये पढ़ते आये है आज भी उतनी ही प्रासंगिक है और प्रेरणा देती है |ब्लाग में त्वरित प्रतिक्रिया बहुत कुछ लिखने को प्रेरित करती है और लेखन क्षमता को निखरती जाती है ऐसा मै मानती हूँ |
शक्ति उपासना के दिनों में भारत कि वीरांगनाओ को ,भारत कि अनेकानेक उन महिलाओ को जिन्होंने संघर्ष कर अपने जीवन को सार्थक किया है विभिन्न क्षेत्रो में उन्हें कोटि -कोटि नमन |
इसी अवसर पर मेरे घर काम करने वाली आशा ,ज्योति जैसी अनेक शक्तियों के लिए मेरा सर श्रद्धा से झुक जाता है ,जो इसलिए काम करती है कि अपनी बेटियों को अच्छी शिक्षा दे सके और इसीलिए वो उपवास रखकर दिन भर काम करके शक्ति लगाकर, शक्ति के लिए ,शक्ति कि उपासना कर रही है ......
नमन उनको भी |










Tuesday, October 05, 2010

"जीवन के प्रति "डायरी के पन्ने "





स्कूल कालेज में लिखने का बहुत ही शौक था |आज कि तरह उन दिनों इतनी आसानी से स्टेशनरी नहीं उपलब्ध कराई जाती थी घर से |बड़ी मितव्ययता और सादगी भरा जीवन होता था |इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि पिताजी से कह सके की
हमे एक डायरी खरीद कर ला दे |वैसे भी पिताजी से बहुत डरते थे थोड़ी ही बोलचाल थी | पिताजी आगे के कमरे में तो हम सब बहने अन्दर के कमरे में ही रहते |हमारी सारी आवश्यकताये हमारे दादाजी ही पूरी करते पर डायरी कि मांग तो लक्जरी ही थी! उस समय |टालते रहे दादाजी! भी ..भले ही मै कितनी भी लाडली थी? मैंने भी सोच रखा था लिखूंगी तो डायरी में ही !
छोटी बहन ने स्कूल में एन .सी .सी .ले रखा था उसे डायरी जरुरी थी तो उसे ला दी गई अब कविताओ कि क्या बिसात एन .सी सी के सामने ?उसने तो तो कुछ डायरी मेंटेन नहीं कि एक दो पेज भरे थे मैंने उसे पटा पुटा कर डायरी ले ली |
और अपना पहला लेख लिखा जब बी .ए .प्रथम वर्ष में थी यानीकी सन 1971 में |
उसके
बाद कुछ कविताये भी लिखी |


किन्तु किसी को बताने कि हिम्मत नहीं होती थी छपवाना तो दूर कि बात है |फिर डायरी कहाँ रखा गई पता ही न चला लिखने कि गति भी कम हो गई पढाई और घर का काम फिर नया जीवन |शादी हो गई |ससुराल में लेखन कार्य सोच भी नहीं सकते कुछ कुछ "सारा आकाश "फिल्म जैसे हाल थे |
मुंबई का नया जीवन ?तब तो वहां हर चीज के लिए राशन ,मिटटी का तेल ,चावल आदि के लिए लाइन लगाना होता था |
ये सब कार्य गृहणी के ही होते थे |
अभी कुछ महीने पहले भाई ने पैत्रक घर बदला और सारा पुराना सामान व्यवस्थित किया तो मेरी डायरी मिली जिसे मै तो भूल ही चुकी थी हालत थोड़ी खराब है ,किन्तु लेख सही सलामत है मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं ?

तो चलिए आज आपको भी अपना ऐतिहासिक प्रथम लेख पढवा ही देती हूँ |
मनुष्य
वही है जो हर गम को ख़ुशी ख़ुशी गले लगा ले |जीवन में सुख दुःख तो ही है ,कई गमो के गुजरने के बाद ही सुख कि मंजिल प्राप्त होती है ,अतएव दुःख को भी जीवन कि सच्चाई मानकर चले तो उसका कोई बोझ महसूस नहीं होगा |मनुष्य को अपने लिए नहीं ?वरन दूसरो के लिए जीना चाहिए |
वह दुनिया में ऐसा कार्य करे इस प्रकार जिए कि उसके इस दुनिया से जाते समय हर कोई दो आंसू बहा सके \किसी ने कहा भी है -
"मै एक ही बार इस संसार से गुजर जाना चाहता हूँ "
अर्थात मै इस दुनिया में आया हूँ तो अछे कर्म करके ही जाऊ ताकि बार बार नहीं आना पड़े \मनुष्य को अपने जीवन में वही कर्म करना चाहिए जिसमे दूसरो का भला हो ,समाज का भला हो देश का भला हो दुनिया का भला हो |जिन्दगी यही कहती है |
मानव अपने जीवन में प्रक्रति से कितना कुछ सीख सकता है अगर स्वयम कष्ट सहकर किसी दूसरे का भला किया जा सकता है तो इससे बढ़कर सुख कि बात और क्या हो सकती है |जिस प्रकार सूर्य स्वयम जलकर धरती को प्रकाशमान करता है , पृथ्वी सब कुछ सहकर हर चीज उपलब्ध कराती है ,उसी प्रकार मानव को अपने कर्मो के द्वारा हर किसी कि भलाई करनी चाहिए |
जब से मानव ने पृथ्वी पर जन्म लिया है वह अपने आदर्शो के लिए संघर्ष कर रहा है ,वही मानव जीत सकता है जो विवेकरूपी कठोर वस्त्र धारण करे |विवेक के साथ संयम का सदुपयोग कर मानव जीवन के आदर्शो के प्रति सफल हुआ जा सकता है |जैसा कि महादेवी वर्मा के इस संदेश में है -
"संसार के मानव समुदाय में वही व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है ,वही जीवित कहा सकता है जिसके ह्रदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा मनुष्य समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक सम्बन्ध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो |"
अर्थात मनुष्य कि ह्रदय कि भावना संकुचित न हो और वह अपने विचार हमेशा ऊंचे रखता हो और उसके प्रति उसे निभाने कि उसमे पूरी क्षमता हो |मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह समाज में ही जन्म लेता है और समाज में ही उसकी म्रत्यु होती है बिना समाज के मनुष्य स्थिर नहीं पाता |सुख दुःख ,मिलन वियोग सभी कुछ समाज में ही द्रष्टिगोचर होता है |लेकिन मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए क्या नहीं करता ?मनुष्य अगर जागरूक है तो समाज भी जागरूक होगा यदि वह अपने स्वार्थ में लिप्त रहेगा तो वह कौनसा आदर्श कायम रख सकेगा | क्यों न हम सामाजिक संघर्षो के साथ आगे बढे वही सच्ची मानवता होगी |
मानवीय परिश्रम के द्वारा कुछ भी असम्भव नहीं ?वह एवरेस्ट कि छोटी पर चढ़ सकता है |महात्मा गाँधी कि जिन्होंने कठिन तपस्या से देश को परतन्त्रता कि बेडियो मुक्त कराया और भी कई ऐसे इतिहास के प्रष्टो से प्रेरणा मिलती है |जिससे हम सुन्दर जीवन का प्रारम्भ कर सकते है |मानवीय श्रम के साथ साथ प्रबल मनोबल ही हर असम्भव कार्य को संभव कर सकता है |

जगत और जीवन का संघर्ष चलता रहता है |मनुष्य को अपना जीवन सघर्षमय बिताना पड़े तो निश्चय ही आनेवाला
समय आनंदमय और मानवता का होगा |

Sunday, October 03, 2010

"कुछ ऐसे भी फालोअर गांधीजी के " 'व्यग्य "

मन का मैल विचार से ,भगवान के ध्यान से और अंत में भगवान के प्रसाद से ही जाता है |
महात्मा गाँधी

कल गाँधी जयंती थी ,हमारे
एक पुराने साहित्यिक परिचित है ,मंचीय कवि भी है वो वैसे तो सरकारी कर्मचारी है किन्तु वहां थोड़े कम ही रम पाते है |उनका अधिकांश समय सरकारी कवि गोष्ठियों ,सरकारी साहित्यिक पुरस्कारों के लिए दौड़ धूप लेन देन में बीत जाता है ,इसके कारण उन्हें मौलिक रचनाओ का रचने का समय ही नहीं मिल पाता |इसके लिए उन्होंने एक लेखक हायर कर लिया है जो इधर उधर कि उन किताबो में से (जो किताबे शौक के चलते छप जाती है पर उनके जुड़े पन्ने भी नहीं नहीं खुल पाते )कुछ कविताये कुछ पुरानी पत्रिकाओ के लेख अदि लिखकर हर साल एक किताब छपवा लेते है और जुगाड़ से पुरस्कार तो पा ही जाते है |
तो कल हमारे घर अपनी एक किताब कि प्रति लेकर आये जिसका शीर्षक था" गांधीजी मेरे आदर्श "|
बातो बातो में में वे इजहार करते भाई आज कि पीढ़ी का तो कोई आदर्श ही नहीं है हमारे जमाने में में देखो आदर्श थे हमारे गांधीजी |
हम सब हैरान दिन रात विदेशी वस्तुओ का उपयोग करने वाले के आदर्श गांधीजी ?
अपने घर के कोने में रखे शो केस में सजी बोतलों का प्रदर्शन हर वक्त करने वाले अपनी किताब में से "शराब बंदी "पर लिखी कविता सुनाने वालो के मुख से मेरे आदर्श,, गांधीजी कि कविता सुनना मेरे लिए असहनीय हो गया |
बात बात पर आज कि पीढ़ी को नकारा बताते हुए उनका ये कहना कि ओबामा में वो बात कहाँ ?जो हमारे आदर्श में थी |भई !आदर्श थे तो गांधीजी |
हमने उन्हें कहा -अब चाय पी लीजिये |
उन्होंने कहा -आज गाँधी जयंती है हम चाय नहीं पियेगे अगर बकरी का दूध होतो पी सकते है ?
चलिए नाश्ता कर लीजिये -हमने फिर कहा -आज हमारा उपवास है अगर कुछ फलाहारी व्यंजन बने हो तो खा सकते है |हमारे आदर्श ने तो कई दिनों तक उपवास रखा तो क्या हम एक दिन उपवास नहीं रख सकते ?
इतने में उनका मोबाईल बोल उठा ...वैष्णव जन तो तेने कहियो ...
शायद उनकी पत्नी का फोन था ...????
कहाँ है आप ?शायद उधर से प्रश्न था ?
अरे मै एक सभा में हूँ मेरा व्याख्यान है अभी मिनट बाद" सच कि ताकत "
मुझसे क्यों पूछती हो ?जैसा चाहो वैसा चिकन बना लो शाम को खा लूँगा |
उधर से पूछे गये प्रश्न का उत्तर दिया उन्होंने और फोन काट दिया |
तभी हमने विषयांतर करने के लिए पूछ लिया ?
अच्छा माताजी कहाँ है? कैसी है ?
फिर वो तुरंत बोल पड़े -अरे मै बताना भूल ही गया मेरा अगला कविता संग्रह" माँ "ही तो है |
वो तो ठीक है लेकिन अभी माताजी कहाँ है ?
अरे भई!हम और हमारी श्रीमती जी काफी व्यस्त रहते है तो फ़िलहाल हमने उन्हें शहर के ही वृद्धाश्रम में ही रख दिया है ताकि उन्हें जल्दी -जल्दी मिल सके ?
अच्छा मै चलता हूँ !शाम को कवि गोष्ठी है गाँधी जयंती के अवसर पर उसकी तैयारी देखनी है .....

Wednesday, September 29, 2010

एक श्रद्धांजली पिताजी को ......

आज बाबूजी कि एक कविता पोस्ट कर रही हूँ ?मेरे बाबूजी अल्प आयु में ही इस संसार को छोड़ कर चले गये |बहुत संघर्शो के साथ पढाई पूरी की |परिवार कि जिम्मेवारियो को निबाहते हुए १६ साल कि उम्र से ही नौकरी शुरू कि कितु पढाई जारी रखी और कालेज में प्राध्यापक के मुकाम तक पहुंचे जो कि उस समय ५० और ६० के दशक में बहुत महत्व रखता था |इस बीच उनका लेखन कार्य ,रेडियो पर वार्ताए ,कवि सम्मेलनों का आयोजन ,नगर (खंडवा )कि सांस्क्रतिक गतिविधियों में भाग लेना भी सुचारू रूप से चलता रहा |निम्न लिखित कविता उनके कविता संग्रह "लोग लोग और लोग "से है |यह कविता सन ६५ में लिखी थी |


"दिनमान "
मैंने अपनी दीवाल पर
किल से जड़ लिया है
समय को
रोज शाम सूरज
मेरे केलेंडर का एक दिन
फाड़ देता है और
मै अपने इतिहास में
अनुभव का एक नया पृष्ट
जोड़ लेता हूँ |
इतिहास ,धर्म और सभ्यता का
भरी लबादा ओढ़
मै कबसे समय को
पीछे से पकड़ने की
करता रहा हूँ नाकाम कोशिश
और समय सदा ही
उस मेहनतकश के साथ रहा
जिसने उगते सूरज के साथ
उसे थाम लिया
और फिर श्रम से
नापता रहा दिनमान |
हर सुबह उसके लिए
नये साल का पहला दिन है
और साँझ इकतीस दिसंबर
वह वर्षगांठ और जन्मदिन की
संधि बेला में
कभी उदास नहीं होता मेरी तरह
क्योकि तवारीख का बोझ
उसके सर पर नहीं है
उसने जिन्दगी का रस
छक कर पिया है
वह समय के साथ
उन्मुक्त जिया है !
स्व.नारायण उपाध्याय (बाबूजी )




Tuesday, September 28, 2010

"पितृ -पक्ष और खरीददारी"

पितृ पक्ष में हमारे सारे भारत में ऑर जहाँ जहाँ भी भारतीय लोग बसे है बहुत श्रद्धा के साथ हमारे पूर्वजो को याद किया जाता है |अपने परिवार ऑर कुटुंब के साथ पितरो को तर्पण ,ब्राम्हण भोजन आदि कराया जाता है |इसके साथ ही कई मान्यताये जुडी होती है कई कार्य निषिद्ध होते है |जिसमे नये कपड़े खरीदना ,नै गाड़ी खरीदना ,नये मकान में प्रवेश करना ,ऑर भी कोई नई वास्तु का प्रयोग करना आदि |मै अपने बचपन से सुनती आई हूँ और इसका पालन भी किया है चलो क्या जाता है ?अगर १५ दिन कोई नई वस्तु नहीं वापरेंगे तो क्या हो जायगा ?किन्तु हमेशा प्रश्न अनुतरित ही रहता कि क्यों?जब हम बाजार से सब्जी,अनाज ,ऑर खाने कि चीजे खरीद कर लाते है खाते है ?तो फिर अन्य वस्तुए क्यों नहीं ?
ऑर आजकल तो अख़बार में विज्ञापन भी आने लगे है कि ज्योतिषियों ने कहा है नई वस्तुए खरीदने में कोई अड़चन नहीं ?अब ये बाजार का बाजारवाद है ,अथवा हमारी असहनशीलता कि हम कितना नियंत्रण रख पाते है ,खरीददारी पर |
मेरे इस प्रश्न के जवाब में मुझे कुछ जानकारी मिली है कि ,श्राद्ध पक्ष में नई वस्तुओ कि खरीददारी इसलिए नहीं करते है कि अगर हम कोई नई वस्तु लाते है तो हमारा पूरा ध्यान उसी पर रहता है ऑर हम हमारे पूर्वजो कि आवभगत मन से नहीं कर पाते जितना सम्मान उन्हें देना चहिये उतना नहीं दे पाते हमारा ध्यान बंट जाता है |
मै कुछ संतुष्ट नहीं हूँ इस उत्तर से |
आप सब लोग क्या कहते है ?कृपया अपने विचारो से अवगत कराये ताकि आने वाली पीढ़ी को भी सही मार्गदर्शन मिल जाये |

Tuesday, September 21, 2010

"कोरे दीपक "

मै नहीं जानती
कैसे ?
मेरा
समूचा वजूद
एकअधूरे
नव निर्मित भवन के
छोटे छोटे से
कमरों में
कैद होकर
रह गया है?


पुराने घर की
छत पर
मिटटी के कोरे दीपक
इंतजार में है
पूजे जाने के लिए
मानो
घुटनों में सर दबाये
मेरा बैठना

तेल और बाती
का अभिमान
मै नहीं जानती
कैसे ?
जला जाता है
मेरा
समूचा वजूद |



Saturday, September 18, 2010

"गप शप "

एक अरसे बाद दोनों सहेलियों ने दोपहर कि चाय पर मिलना तय किया एक अच्छे से रेस्तरां में|
इत्तफाक से दोनों कि सास को कुछ ही समय हुआ था परलोक सिधारे हुए |
समाज को सुधरना चाहिए? इस बात पर थोड़ी चर्चा की फिर एक ने चाय का एक घूंट लेते हुए अपनी सहेली से पूछा ?
और कैसा रहा ?तुम्हारी सास के अंतिम क्रिया का कार्यक्रम ?मै तो ऐसे कार्यक्रमों का बहिष्कार करती हूँ इसलिए नहीं पाई तुम्हारे घर |
अच्छा ही रहा कार्यक्रम !उन्होंने मीठा कई सालो से खाया नहीं था, इसलिए मैंने उनकी तेरहवी में लोगो को खूब तरह तरह की मिठाई खिलाई |
उसने एक पकोड़ी खाई और कहा |
सहेली ने अपनी सहेली से पूछा ?
तुम्हारी सास का कार्यक्रम कैसा रहा ?
तुम्हे तो मालूम ही है २० साल पहले उन्हें हार्ट में थोड़ी तकलीफ हुई थी तबसे मैंने उन्हें घी तेल देना बंद कर दिया था
फिर बिना घी तेल के कैसा खाना बन सकता है ?
इतना कहकर दोनों ने चाय पकोड़ी ख़त्म की और एक दुसरे को शुभकामना देकर अगली बार मिलने का वादा किया|

Monday, September 13, 2010

"गणपति बप्पा मोरया "


गणेशोत्सव खूब धूमधाम से मनाया जा रहा है हर जगह गणपति जी मेहमान बनकर आये है दस दिन के लिए बड़े बड़े पंडाल ,गणेश मन्दिरों में आकर्षक झांकिया, जगमगाती बेहिसाब बिजली की रौशनी ,अनवरत चलते भंडारे ,तर माल,हलुए का प्रसाद | मंदिरों में सरकारी लोगो का आगमन ,उनके आगे पीछे घूमते माथे पर तिलक लगाये धोती कुरते ( जैसे फेंसी ड्रेस प्रतियोगिता )पहने पुजारी |सरकारी लोगो के सुरक्षा कर्मी पीछे पीछे उनके परिवार (बहती गंगा में हाथ धो ही ले )साथ में सीना ताने कुछ पार्षद |बुद्धि ? नहीं धन की कामना करने वाले |विशुद्ध दर्शन करने लम्बी लगी भक्तो की कतार को बीच में रोककर गणेशजी की कृपा पाने को आतुर इन विशिष्ट भक्तो को देखकर मेरा कुलबुलाता मन |
गणेशजी को प्रणाम भी नहीं कर पाई ,और पिछले साल लिखी गई पोस्ट जस की तस |हालत भी जस के तस |
और इस बीच नई खबर: बाबाओ का स्टिगओपरेशन मिडिया द्वारा |"पिपली लाइव "फिल्म देखकर मिडिया पर कितना विश्वास करेगी जनता ?ये सोच का विषय है कितु इससे भी ज्यादा सोच का विषय है इस फिल्म को देखने वाले कौन लोग है ?समाज पर इसका असर है ?या समाज को देखकर बनाई है जिस समाज को देखकर बनाई है क्या उन्होंने देखा है इसे ?
स्कूल के दिनों में हिन्दी विषय के अंतर्गत बाबा भारती का घोड़ा की कहानी पढाई जाती थी कहानी का शीर्षक था "हारजीत"के लेखक थे सुदर्शन |बाद में टिप्पणी लिखो :में पूछा जाता था इस कहानी से क्या शिक्षा मिली?क्या संदेस देती है ये कहानी ?तब तो रट रट कर बहुत कुछ लिख देते थे और नंबर भी पा लेते थे |कितु न तो कभी बाबा भारती ही बन पाए और न ही कभी ह्रदय परिवर्तन होने वाले डाकू खड्गसिँह को अपने जीवन में उतार पाए |
आज बाबा भारती(नकली ) बहुत है , सुलतान को बेचने वाले ,आलिशान कुटियों में रहने वाले और डाकुओ के साथ रहकर व्यापार करने वाले |
पिछले दिनों से लगातार समाचार आ रहे है नकली खून के बाजार के |
स्तब्ध हूँ, क्षुब्ध हूँ किंतु अब लगता है की सचमुच भारत भगवान के भरोसे ही चल रहा है |


ईमान तो
कब का बेच दिया !
थाली की
दाल रोटी भी चुराकर
बेच दी !
त्यौहार अभी आए नही ?
पकवानों की मिठास ही
बेच दी !

नकली घीं
नकली दूध
नकली मसाले
और अब
नकली खून ?
कौनसी ?
ख्वाहिश मे
तुमने पेट की आग
खरीद ली
तुम भूल रहे हो
आग हमेशा ही जलाती है
तुमने
दाल, चीनी गेहू और
खून
नही जमा किया है ?
तुमने जमा की है
अपने गोदाम मे
इनके बदले
ईमानदार की आहे
मेहनतकश की
बद्ददुआए
प्रक्रति की
समान वितरण प्रणाली को
असमानता मे तब्दील कर
तुमने अपनी भूख
बढ़ा ली है
व्यापार के सिद्धांतो
को तोड़कर
प्रक्रति से
दुश्मनी मोल ले ली है
बेवक्त की भूख
कभी शांत नही होती|

"गणेशोत्सव कि शुभकामनाये"




Thursday, September 09, 2010

"काठ कि पुतली "

थकी आँखों को पलकों ने ,
अपना लिहाफ ओढ़ा दिया ,
नज़र आते थे जो अपने ,
बंद आँखों ने भ्रम तोड़ दिया |

पीले पत्तो कि नियति है ,शाख से गिरना ,
मिटटी में मिलना,
हरे पत्ते भी कभी पीले होंगे,
अपने
लहलहाने में उन्हें ये इल्म कहाँ ?

रिश्ते जो घर में निषिद्ध होते है
सिर्फ यादो में ही होते है ,
डरती हूँ ,यादो को भी न आने की ,
हिदायत न दे दो ?


कोने में पड़े दीवान कि मानिंद चुभती हूँ,
और
तो बहुत फेंक दिया है,
काठ की पुतली बदरंग हो गई है ,
ये न सोच लो! बनके मेरे मेहरबाँ.........



Tuesday, September 07, 2010

"हर सिंगार कि महक "




गुलाब के आलावा और भी
बहुत कुछ है


हर साल
हमेशा


सफेद खिले चांदनी के फूल
कहते है मुझे

हम अनगिनत है
तौले नहीं जा सकते ?

हममे कांटे नहीं
बच्चे भी सहला ले हमे

मेरा भाई है भी तो है कनेर
लाल है ,
पीला
है ,नारंगी है

गूँथ लो हमे साथ साथ
साथ में चाहो तो गुडहल लगा लो
साथ
में चाहो तो तिवड़ा लगा लो
हम
है एक परिवार आते है
साथ
साथ रहते है
साथ

पर तुम तो
गुलाबो
के आदि हो गये हो
क्या
हुआ ?
क्या
कहा ?
खुशबू
नहीं है ?
इतने में
हर सिंगार महक उठा
मै तो हूँ खुशबू के लिए
मुझे भी गूँथ दो साथ साथ
अकेले मुरझा जाऊंगा
मुझे अकेले रहने की आदत नहीं
सारे फूल खिलखिला उठे
एक ही माला में
और मै
गुलाबो की आरजू
छोड़
महक गई हर सिंगार में |



Thursday, September 02, 2010

स्पंदन

बहुत पहले लिखी थी ये पोस्ट आज फिर दे रही हूँ
राधा का अर्थ है ...मोक्ष की प्राप्ति
'रा' का अर्थ है 'मोक्ष' और 'ध' का अर्थ है 'प्राप्ति'
कृष्ण जब वृन्दावन से मथुरा गए,तब से उनके जीवन में एक पल भी विश्राम नही था|
उन्होंने आतताइयों से प्रजा की रक्षा की, राजाओं को उनके लुटे हुए राज्य वापिस दिलवाये और सोलह हज़ार स्त्रियों को उनके स्त्रीत्व की गरिमा प्रदान ki
उन्होंने अन्य कईं जन हित कार्यों में अपने जीवन का उत्सर्ग किया उन्होंने कोई चमत्कार करके लड़ाइयाँ नही जीती,अपनी बुद्धि योग और ज्ञान के आधार पर जीवन को सार्थक किया मनुष्य का जन्म लेकर , मानवता की...उसके अधिकारों की सदैव रक्षा की
वे जीवन भर चलते रहे , कभी भी स्थिर नही रहेजहाँ उनकी पुकार हुई,वे सहायता जुटाते रहे|

इधर जब से कृष्ण वृन्दावन से गए, गोपियान्न और राधा तो मानो अपना अस्तित्व ही को चुकी थी
राधा ने कृष्ण के वियोग में अपनी सुधबुध ही खो दी,मानो उनके प्राण ही न हो केवल काया मात्र रह गई थी
राधा को वियोगिनी देख कर ,कितने ही महान कवियों ने ,लेखको ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही आदि संज्ञाओं की उपाधि दी
दे भी क्यूँ न????
राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था...उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें , वृन्दावन की वे कुंजन गलियां , वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते थे , वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वह की हवाओं में विद्यमान रहती हैराधा जो वनों में भटकती ,कृष्ण कृष्ण पुकारती,अपने प्रेम को अमर बनाती,उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नही देखा ...तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाये ,किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नही सुना स्वयं कृष्ण को कहाँ , कभी समय मिला कि वो अपने हृदये की बात..मन की बात सुन सके या फिर यह उनका अभिनय था!


जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर प्रभास -क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तो 'जरा' के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई तभी उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए ,'राधा' शब्द का उच्चारण किया,जिसे 'जरा' ने सुना और 'उद्धव' को जो उसी समय वहां पहुंचे ..उन्हें उनकी आंखों से आंसू लगातार बहते जा रहे हैं ,सभी लोगों ,अर्जुन ,मथुरा आदि लोगो को कृष्ण का संदेश देने के बाद ,जब उद्धव ,राधा के पास पहुंचे ,तो वे केवल इतना कह सके ---
" राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे ...
किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी"


साथ ही एक दैनिक प्रार्थना जो मुझे हर पल आनन्द से जीने का संबल देती है |
प्रार्थना
सांवरे घन श्याम तुम तो ,प्रेम के अवतार हो ,
फंस रहा हूँ झंझटो में ,तुम ही खेवनहार हो ,
चल रही आँधी भयानक ,भंवर में नैया पड़ी ,
थाम लो पतवार हे ! गिरधर तो बेडा पर हो ,
नगन पद गज के रुदन पर, दौड़ने वाले प्रभु ,
देखना निष्फल न मेरे , आंसुओ की धार हो ,
आपका दर्शन मुझे इस छवि में बारम्बार हो ,
हाथ में मुरली मुकुट सिर पर गले बन माल हो ,
है यही अंतिम विनय तुमसे, मेरी ए नन्दलाल ,
मै तुम्हारा दास हूँ और तुम, मेरे महाराज हो ,
मै तुम्हारा दास हूँ और तुम, मेरे महाराज हो..........................
इसे यहाँ मेरी आवाज में भी सुन सकते है |


|

Tuesday, August 31, 2010

"डाक्टरनी जीजी "

डाक्टर साहब के क्लिनिक पर मरीजो की लाइन लगी थी ,बारिश तो बहुत नहीं हुई थी |पर उससे होने वाली बीमारिया
अपने नियत समय पर आ गई थी |मै अपनी एक रिश्तेदार को लेकर डाक्टर के पास लेकर गई थी उन्हें काफी बड़ी बड़ी फुन्सिया हो रही थी |काफी घरेलू उपचार भी किये पर कोई फायदा नजर नहीं आ रहा था |बहुत सोचा किसे दिखाए ?आसपास बड़े बड़े अस्पताल है इतनी छोटी चीज के लिए वहा जाना ?
फिर ब्लड टेस्ट ,एलर्जी टेस्ट ये सब सोच कर हमारे पारिवारिक फिजिशियन को बताना ही उचित समझा |डाक्टर साहब बहुत सह्रदय है (वो इसलिए की सिर्फ उनकी फीस 50 रूपये है )और वहां मजदूर ,सब्जी फल बेचने वाले ,और हमारे जैसे लोग ही जाते है |हमारा नम्बर आया तो देखा की एक महिला पेट दर्द की शिकायत से परेशान थी |डाक्टर साहब ने उसे दवाईयों के साथ हिदायत दी की ,मूंग दाल की खिचड़ी खाना ,अगले दो दिन और आराम करना |
डाक्टर साहब इंजेक्शन लगा दो न ?
आराम करूंगी तो पैसा कहाँ से आवेगा ?
पहले ही चार दिन के पैसे कट जावेंगे |
फिर मूंग दाल की खिचड़ी ?डाक्टर साहब चावल खा लू तो नहीं चलेगा क्या ?
दाल तो १०० रूपये किलो है |
डाक्टर साहब ने कहा ठीक है खा लेना |
डाक्टर साहब ने उससे सिर्फ २५ रूपये ही लिए |
हमने भी दिखाया उन्होंने दवाई भी दी और उससे दो ही दिन में फायदा भी हो गया |
कितु मेरे मन में बार बार यही विचार कोंधता रहा की की दाल? भी एक गरीब आदमी नहीं खा सकता ?
करीब एक साल से इतना ही भाव चल रहा है और न जाने कितने ही लोगो ने दाल भी खाना छोड़ दिया होगा ?
बहुत से लोग सोचते है !की इन गरीबो पर क्या दया करना ?इन्हें तो घर घर से खाना मिल जाता है कपड़े मिल जाते है
इनका क्या खर्चा ?इनका रहन सहन का तरीका भी ऐसा है की इन्हें घर या झोपडी में क्या खर्चा ?इन्हें कपड़ो के साथ दीपावली पर कितना सामान मिल जाता है ?
कितु क्या ? बासी कुसी खाने से इनका स्वस्थ रहना संभव है? फिर रोज कोई इन्हें खाना थोड़ी न देता है जो बचता है वो भी फ्रिज में रखने के बाद हम देते है |
डाक्टर साहब का भी अपना घर बार है यहाँ तक पहुंचने में ही उन्हें कई संघर्ष करने पड़े होंगे ,ये अलग बात है |
मुझे अपना बचपन का गाँव याद आ गया हमारे गाँव में एक सरकारी अस्पताल था\वहां पर डाक्टर साहब की पोस्टिंग थी |
सुबह डाक्टर साहब अस्पताल में बैठते जिसकी उन्हें तनखाह मिलती थी |शाम को या दिन भर कभी भी कोई मरीज आते तो उनसे फीस लेते |ओर बाकि समय हिंद पाकेट बुक्स से मंगाई गई उस जमाने कि लोकप्रिय उपन्यास पढ़ते |और उनकी इस घरेलू लायब्रेरी योजना का गाँव का हर व्यक्ति पूरा उपयोग करता |और इसी बीच गाँव में शहर से छुट्टियों में आए लोगो से भी मुलाकात करते और साथ में चाय का दौर भी चलता जो कि डाक्टरनी जीजी( हाँ यही नाम प्रचलित था उनका सबके बीच )निरंतर रसोई से भेजती रहती \मुझे आज भी याद है मिटटी के चूल्हे के पास बैठी हुई उनकी छबी |गोरा सा मुख, लम्बीसी तीखी नाक, माथे पर चवन्नी जितना बड़ा लाल कुमकुम का टीका ,सर पर ढंका आंचल |चूल्हे के एक तरफ पीतल का चाय पतीला चढ़ा ही रहता और एक तरफ बड़े से पीतल के पतीले में दूध खौलता रहता |
दो भैस ,दो गाय का दूध ,सब डाक्टर साहब कि नज़र में न आए उनके मरीजो को पिला देती यह कहकर कि इतनी गर्म दवाई खाओगे तो और गर्मी बढ़ेगी शरीर में |उधर डाक्टर साहब दो रूपये (उस समय यही बहुत था गाँव में)फीस लेते इधर डाक्टरनी जीजी उनकी ऐसी सेवा कर देती |बदले में मरीज भी भेंसो का दाना पानी समय पर दे देते |
डाक्टरनी जीजी ने गाँव में रामायण पाठ शुरू करवा दिया था हर सोमवारको | जो पढ़ी लिखी महिलाये रहती वो पाठ करती बाकि सब महिलाये ध्यान से सुनती और सारी व्यवस्था लगा देती \गाँव का बहुत स्वरूप बदल गया कितु आज भी ५० साल पहले शुरू कि गई रामायण पढने कि सामूहिक प्रथा आज भी अनवरत चालू है |गाँव में जितनी भी उन दिनों सरकारी योजनाये आती बराबर उनमे सक्रियता से भाग लेती और गावं की महिलाओ को भी प्रोत्साहित करती और गावं की महिलाये उनका भरपूर सहयोग करती |इसमें सिलाई सिलाई सीखना .और आसान सी किश्तों में मशीन
खरीदना मुख्यत; शामिल था और सबसे कठिन था उन दिनों परिवार नियोजन के लिए गाँव में जाग्रति लाना |लडकियों को स्कूल भेजना |

भले ही इन कामो के लिए वे कभी भी पुरस्कृत नहीं हुई न ही कभी उनकी चर्चा हुई किन्तु जो जाग्रति के बीज उन्होंने बोये थे एक ग्रहिणी बनकर वे आज लहलहा रहे है |
आज भी मेरे मन में, मेरी हम उम्र भाई बहनों के दिल में ,कुछ गाँव के लोगो के मनमें उनके प्रति अपार श्रद्धा है ,क्योकि हम तो उन्हें सिर्फ गर्मी की छुट्टियों में ही मिल पाते थे जब गावं जाते थे
फिर उस जमाने की हम लडकियाँ शादी के बाद कहाँ इतना मायके और वो भी गावं जाना हो पता था ?
सिर्फ वो सुनहरी और अनमोल यादे ही हमारे पास शेष रह जाती है |
डाक्टरनी
जीजी जब भी शहर से कोई फिल्म देखकर आती महीनो तक उसकी कहानी, उनके पात्रो कि चर्चा करती रहती |उन दिनों गाँव से शहर जाना इतना आसान नहीं था ग्रामीणों के लिए विशेषकर महिलाओ के लिए जितना आज सुलभ हो गया है |
कालांतर में बहुत सारे डाक्टर आए किन्तु उस डाक्टर परिवार में जो विशेषताए रही वे बेमिसाल थी |
आज जब वो सारे दिन याद आते है !और आज के डाक्टर साहब और उनकी पत्नी को देखती हूँ तो डाक्टर साहब तो फिर भी दयावान हो जाते है ,पर श्रीमती डाक्टर? या सचमुच में वो खुद भी डाक्टर हो सकती है ?
उन्हें भी तो अपने बच्चो को डाक्टर बनाना है न ?
तो सेवा धर्म एक सपना सा लगने लगता है |

Sunday, August 29, 2010

"हार सिंगार कि महक "




गुलाब के आलावा और भी
बहुत कुछ है


हर साल
हमेशा


सफेद खिले चांदनी के फूल
कहते है मुझे

हम अनगिनत है
तौले नहीं जा सकते ?

हममे कांटे नहीं
बच्चे भी सहला ले हमे

मेरा भाई है भी तो है कनेर लाल है ,
पीला
है ,नारंगी ही



गूँथ लो हमे साथ साथ
साथ में चाहो तो गुडहल लगा लो
साथ
में चाहो तो तिवड़ा लगा लो
हम
है एक परिवार आते है
साथ
साथ रहते है साथ पर तुम तो गुलाबो के आदि हो गये हो क्या हुआ ? क्या कहा ? खुशबू नहीं है ? इतने में
हर सिंगार महक उठा मै तो हूँ खुशबू के लिए मुझे भी गूँथ दो साथ साथ अकेले मुरझा जाऊंगा मुझे अकेले रहने की आदत नहीं सारे फूल खिलखिला उठे एक ही माला में और मै गुलाबो की आरजू छोड़ महक गई हर सिंगार में |