Wednesday, November 16, 2011

ये सब यू ही नहीं ?

मेरा ये भ्रम
मुझे जीवन देता है
की चाँद ,
तुम मेरे साथ-साथ
चलते हो |
ये भ्रम ,ये आभास
ये कल्पना भी
तभी है
जब मै
तुम्हे चाँद
ही रहने देती हूँ |



तुम्हे पाऊं
तुमहारे कांधे प़र
सर रखू
ऐसी मेरी
कोई तमन्ना नहीं
तुम्हारी तरह
अपनों के काँधे
प़र बन्दूक रखू
ऐसी मेरी फितरत नहीं

तुम्हारे शब्दों के
तीर सहू
तुम्हारी अंकशायिनी बन
इतराऊं
सिर्फ
ये ही तो
मेरी किस्मत नहीं ?




Monday, September 05, 2011

बस कुछ यू ही .....

दो सामानांतर
रेखाओ को
काटती है
है एक
खड़ी लकीर |
ऐसा तुम !
कई बार कह चुके हो|

मै खोज में हूँ ?
वो अद्रश्य
खड़ी लकीर कहाँ से आई ?

तुम्हारी ख़ामोशी
मेरी ख़ामोशी
समानांतर
रेखा
तो नहीं ?

बहुत कुछ छिपाने की
तुम्हारी
ख़ामोशी

मेरे खालीपन की
ख़ामोशी को
समानांतर

कैसे मान लिया ?




Thursday, August 11, 2011

कभी कभी ......





बहुत सारे आहार है
फिर भी
निराहार
महसूस होती
जिन्दगी|

बहुत सारे आधार है
फिर भी
निराधार
महसूस होती
जिन्दगी |


जब अटे पड़े है
बाजार
कपड़ो से
फिर भी
जार जार
महसूस होती
जिन्दगी |

समुन्दर के किनारे
शिद्दत से
प्यास को
महसूस
करती है ज़िदगी |



Saturday, August 06, 2011

"सोच और सपने "

सपनो के आकाश में
चिर परिचित
मेहमान
आशाओ के ,
आकाक्षाओ के |

मन के समुंदर में
ढेर सारे मोती
खुशियों के ,
आंसुओ के |

तन के ठिकाने में
एक नई सुबह ,
एक उनींदी शाम
जागती हुई रात |

सपने
मन
तन
जिन्दगी से जुड़े
या कि ?
जिन्दगी
सपनों से
मन से
तन से
जुडी ?

Wednesday, July 06, 2011

"बस यू ही "

दुकानों की,
लम्बी कतार के बीच
मेरा मकान
कहीं खो गया है |
जाना पहचाना था
सबका
आज अजनबी हो गया है |

गगन चुम्बी इमारतों
की नीरवता
के समक्ष
खंडहर भी वाचाल
हो गया है |

सुना है ?
आलीशान फ़्लैट के
मालिक होकर भी
दो गज
"ज़मीन" की
तमन्ना रखते हो ?

Thursday, June 30, 2011

"समाधान "कहानी

बहुत दिनों से कुछ नया नहीं लिख पाई हूँ |
एक कहानी पोस्ट कर रही हूँ
|अपने आसपास बहुत सी ऐसी बिखरी चीजे देखते है तो लगता है इन्हें समेट कर सब कुछ व्यवस्थित कर लेंगे लेकिन जिंदगियां ड्राइंग रूम की तरह नहीं होती की उन्हें अपने हाथो से सजा दे सवार दे और फिर कई दिन दिन तक वो उतनी ही व्यवस्थित रहती है |हमारी भावनाए ,हमारे अहसास ,हमारी महत्वाकांक्षाएं हमें स्थिर कहाँ रहने देती है ?
और शुरू हो जाती हैएक अंतहीन जंग! दिल और दिमाग की|
प्रस्तुत कहानी एक सच्ची घटना पर ही आधारित है और जो हमारे आसपास होता है वही अभिव्यक्त कर पाते है|


आज शाम को जैसे ही श्याम नगर के उस मोहल्ले से गुजरी तो देखा गली के बीचोबीच एक महिला जिसकी उम्र होगी कोई ३० से ३५ साल के बीच वाह दहाड़ें मारकर रोती या फिर जोर जोर से हंसने लगती उसके आजू बाजू rकुछ कचरा बीनने वाले बच्चे थे जो उसे hघेरे खड़े थे मै उसका पूरा चेहरा देख नहीं पा रही थी ,जैसे ही पास में hजाकर देखा तो मेरी आंखे फटी की फटी ही रह गई|
अरे !
यह तो सुदेशना है |chehra धूल से भरा होने के बावजूद भी उसका गोरा रंग छिप नहीं पा रहा था |
छरहरी काया थी ऊँची पूरी |अगर मिसेस इण्डिया में भाग लेती तो रनर तो जरुर होती ऐसा हमेशा उसे कहती जब इसी मोहल्ले में मैभी उसके घर के थोड़े पास ही में रहती थी|
शर्माजी सुदेशना के पति और मेरे पति देवेश एक ही फेक्ट्री में काम करते थे ,डिपार्टमेंट अलग अलग होते हुए भी अच्छी जान पहचान थी कभी कभी एक दूसरे के घर भी आना जाना हो जाता था |परन्तु जब से दूसरी कालोनी में रहने चले गये थे यहाँ आना कम हो गया था |
देखते देखते ही सुदेशना के पास के बच्चे छिटक गये थे और सुदेशना भी गली के नुक्कड़ तक पंहुच गई थी |
अभी कुछ महीने पहले ही सुदेशना अपना १० साल का छोटा बेटा खो चुकी थी |जब देवेश ने मुझे फोन पर सूचना दी थी उसी समय उसके अंतिम संस्कार के लिए मै आई थी देवेश तो काफी पहले ही पंहूच गये थे क्योकि शर्माजी को सभांलना बहुत मुश्किल हो रहा था |शर्माजी के और रिश्तेदार आते तब तक देवेश और उनके पुराने मित्रों ने ही sari व्यवस्था करनी थी |जैसे ही में वहां पहूची दिल को दहला देने वाली सुदेशना की चींखे और विलाप था |
इसी समय रिक्शा वाले ने ब्रेक लगाया और मै यथार्थ में आई ,घर चुका था मैंने उसे पैसे दिए घर के अन्दर आई तो देवेश चुके थे |
अरे आप आज जल्दी गये ?
हाँ !उन्होंने कहा- आज थोडा जल्दी काम निबट गया था |
मै जल्दी से रसोई में गई चाय का पानी चढाया ,देवेश भी रसोई में मेरे पीछे पीछे ही गये थे |
मै अनमनी सी सुदेशना के ख्यालो मेही थी उन्होंने भांप लिया और पूछने लगे ?
क्या बात है किसी से कुछ कहा सुनी हो गई क्या ?
उन्हें मालूम है मेरा स्वभाव रिक्शावालो ,दुकंवालो से या और भी कोई गलत काम कर रहा हो ?उनसे दो चार बात करना उन्हें उपदेश देना और अपने जागरूक नागरिक होने का एह्साह करना मेरी नियति में था |
इसके कारण कई लोग मेरे दुश्मन भी हो गये थे |
नहीं ?मैंने कहा -आज मै श्याम नगर गई थी |
मेरा वाक्य पूरा होतेही देवेश बोल उठे -अरे !मै तुम्हे बताने ही वाला था ,मिसेस शर्मा रोज ही घर से निकल जाती है और पूरे शहर में धूमती रहती है |कभी पुलिस वाले उसे घर पहुंचा देते है तो कभी कोई परिचित शर्माजी को फोन कर देते है |मैंने दो कपो में चाय bhari और हम दोनों साथ ही ड्राइंग रूम में गये |देवेश ने सोफे पर बैठते हुए कहा -शर्मा की तो ये हालत है ही वो घर संभाल पा रहा है नहीं ?ठीक से नौकरी कर पा रहा है ?कितनी बार उसे समझाया कब तक विदाउट पे पर छुट्टियाँ मनाते रहोगे |अब तो तुम्हारी माँ भी नहीं रही जिनकी पेंशन से तुम्हे सहारा हो जाता था |बड़े भाइयो से भी वो ही लड़ झगड़ कर हमेशा तुम्हारी मदद करती रहती थी रूपये पैसो से ?तुम्हारे बेटे के इलाज में भी उन्ही लोगो ने जी खोलकर मदद की थी |मुझे तो कभी कभी लगता है सारी मुसीबते शर्मा की अपनी ही पैदा की हुई है |
मै सोच रही थी दुसरो के मामले में हम हम कितनी जल्दी अपना निर्णय दे देते है ऐसा हम कैसे ? और कितनी आसानी से बोल जाते है |और मै फिर अतीत में चली गई उस दिन जब सुमेश हाँ सुदेशना के छोटे बेटे का नाम सुमेश ही था |बहुत ही प्यारा होनहार बच्चा था |
उसको ले जाने की तैयारी चल रही थी सारे कमरे ओरतो से खचाखच भरे हुए थे ,सुदेशना का क्रन्दन जोर पर था कभी वो जोर से रोती कभी वो सिर्फ विलाप करती वो अपना मानसिक संतुलन पूरी तरह से खो चुकी थी |कई साल से मानसिक रोगिणी रह चुकी है लेकिन आज उसके अनर्गल वार्तालाप ने पूरे समाज के सामने उसे पागल करार दे दिया है और इसका फायदा उठाकर दुसरे कमरे मै बैठी उनकी पड़ोसिन महिलाओ ने फुसफुसाहट शुरू कर दी!
कैसी माँ है ? अपने बेटे को ही खा गई और सुदेशना के रिश्तेदारों की ओर अपनी कही बात की प्रतिक्रिया जानने को देखने लगी |उनकी नजरो में अपनी बात का समर्थन पाकर ; मिसेस जोशी जो कि सुदेशना के परिवार के काफी निकट थी |उनकी बातो में सहानुभूति कि अपेक्षा ईर्ष्या कि भावना ज्यादा रही थी |
वो बोली - तो बेटे को खाना देती थी , ही पति को खाना देती थी अपना खाना बनाकर खा लेती थी |
जिस माँ ने बेटे को जन्म दिया १० साल तक पाल पोसकर बड़ा किया सुमेश ;माँ के बिना खाना नहीं खाता था ,जब भी माँ को इस तरह के दौरे पड़ते वो अपनी माँ का अच्छे से ध्यान रखता था वो माँ क्या ?अपने बच्चे कि मौत का कारण बन सकती है ?कितु वहां बैठी सभी महिलाये मिसेस जोशी कि बात कि हाँ में हाँ मिलकर उसे ही दोषी करार दे रही थी |
मै जानती थी सुदेशना जब सामान्य रहती थी तो अपने बूढ़े साँस ससुर कि सेवा करती थी क्योकि वे लोग हमेशा उसके पास ही रहते थे सम्पन्न बेटों के रहते हुए भी वे लोग यहीं पर आदर सत्कार पाते थे इसीलिए शर्माजी कि सीमित आय में भी ,छोटे से घर में भी खुश रहते थे |सुदेशना ने भी हमेशा उन्हें सम्मान के साथ ही रखा |
उसकी साँस हमेशा उसके साथ दोगला व्यवहार करती थी |हमेशा उससे कटु वचनों से ही बात करती थी और शर्माजी भी अपनी माँ का साथ देते थे |
बिन माँ कि सुदेशना जब शादी होकर आई तो सोचा साँस से माँ का प्यार पा लेगी ?कितु यहाँ तो उसका पति ही माँ का लाडला बेटा बना रहा |उसकी भावनाओ उसकी आकाँक्षाओं कि कही कोई क़द्र नहीं की |
साँस जब तक जीवित रही बच्चो पर भी उनका ही अधिकार रहा उसकी हैसियत घर में एक काम वाली जैसी ही रही |मायके में भैया भाभी ने कभी कोई सुध नहीं ली |
जब भी मुझे मिलती हमेशा मुझे कहती -दीदी मै भी क्या आपकी तरह नौकरी कर पाऊँगी ?क्या इनके साथ कभी पिक्चर देखने जा पाऊँगी ?और उसका गोरा चेहरा और लाल हो जाता |
कभी मिलती तो कहती -दीदी मै क्या इतनी बुरी हूँ ?देखने में ?ये हमेशा दूसरी भाभीजियो की ही तारीफ करते है |माताजी भी हमेशा उलाहने ही देती है की मै फूहड़ हूँ |
हमेशा पनीली आँखों से कहती -मुझमे जितनी शक्ति है मै उतना काम कर लेती हूँ ,रूपये पैसे का मैंने कभी मुंह नहीं देखा सारी तनखा ये माताजी के हाथ में रख देते है |घर में आये दिन मेहमान आते है उनके लिए मिठाई उपहार आते है ,इनके लिए अच्छे कपडे बन जाते है ,और फिर सारे रूपये माँ की पेटी में बंद हो जाते है |
सुदेशना का ह्रदय में दबा हुआ लावा आज बाहर निकलने को आतुर था उसकी आकाँक्षाओं का बंधन जैसे आज टूट गया था जिस जिस ने उसके बारे में कुछ उल्टा सीधा कहा -शर्माजी की छिपी हुई बाते वो सभी बाते जो बरसो से उसके मन में दबी थी विलाप करते करते कहे जा रही थी |
पास में बैठी ओरते छिटकने लगी थी इस डर से की कही अब हमारी बारी जावे |बाहर पुरुषो में सुगबुगाहट होने लगी जल्दी करो भाई शाम हो जावेगी |सबके मन में डर था की कही सुदेशना की नज़र हम पर पड़ गई तो जाने क्या क्या कह बैठे ?जल्दी जल्दी अर्थी तैयार करके सुदेशना की नजरो से भागने की तैयारी करने लगे |उस छोटे बच्चे की मौत से जो अब तक दुखी थे वातावरण में बदलाव गया सुदेशनाके अवचेतन मन में कभी के जखम लगे थे मानो आज उनका वो बदला ले रही थी |उसे पकड़ना भी मुश्किल हो रहा था |मारे भय के उसके रिश्तेदार तो उसके नजदीक भी नहीं जा रहे थे |
अरे मम्मी आप कहा खो गई ?ऋचा ने कोचिंग से घर में आते ही पूछा ?आपकी चाय ऐसे ही पड़ी है ?
देवेश अपनी चाय ख़त्म करके अपने कमरे में टी.वि देखने बैठ गये थे |
ऐसे ही ?मैंने ऋचा को कहा - और लम्बी साँस भरकर रात के खाने की तैयारी करने चली गई|ऋचा भी मेरे साथ ही रसोई में गई थी !
ऋचा! वो शर्मा आंटी थी ?
हाँ १वहि ?जो कंधे पर पर्स लटका लेती और कहती थी मै नौकरी करने जा रही हूँ |
और ऋचा उसकी नक़ल करके हँसने लगी |मैंने उसे डांटा -ऐसा नही कहते !
सुदेशना आंटी बहुत ही बुरी स्थिति में है और उसे बताते बताते मेरी आँख में आंसू गये |
ऋचा कहने लगी -माँ आप भी किस किस के लिए दुखी होगीं ?
ये तो संसार है ये तो चलता है ,अंकल को कहो -उन्हें मेंटल हॉस्पिटल में भेज देना चाहिए |
मै ऋचा की इस छोटी सी उम्र में व्यावहारिकता देखकर दंग रह गई
कितनी जल्दी उसने समस्या का समाधान निकाल डाला ?






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Tuesday, May 10, 2011

एक सजा ऐसी भी .....

हम लोग लोगो को आदत सी हो जाती है जिस शहर में जो वस्तु प्रसिद्द हो उसका नाम ,लेने की, अगर कोई ऐतिहासिक वस्तु के कारण प्रसिद्द है और कोई अन्य कारण से तो हम प्रतीकात्मकता से उसका नाम लेते है जैसे, आगरा मशहूर है ताजमहल के लिए किन्तु आगरा वाद विवाद में बात बढ़ जाती है तो दुसरे व्यक्ति को अहसास कराया जाता है तुम्हे तो आगरा में होना चाहिए था (सर्वविदित है की आगरा पागल खाने )के लिए भी प्रसिद्द है | कितु बहुत से लोगो को बहुत से शहरों की प्रसिद्धि का पता नहीं नहीं होता |और वो उस शहर की उपयोगिता को वहा की प्रसिद्धि को जाने बिना ही उस शहर के बारे में जाने अनजाने अपनी राय ,अपनी खीज को उतारते रहते है |
,वैसे
उनका दोष भी नहीं था क्योकि जिस जमाने में वे जिस शहर को कोसती थी ,तब दूसरे प्रदेश क्या ?अपने प्रदेश के पास के शहर के आलावा उन बिचारी को दूसरे शहर का नाम भी नहीं मालूम था |दूर दराज के गाँव में मिडिल स्कूल के हेडमास्टर की पत्नी थी |बहुत बड़ा घर था दादा दादी का , दादी की कोई दूर के रिश्ते दार थे मास्टरजी| दो कमरे रहने को दे दिए थे दो कमरे क्या ?वो तो पूरा घर ही वापरते थे क्योकि घर में दादा दादी के आलावा तो कोई रहता नहीं था हम सब तो छुट्टियों में ही गाँव जाते थे \पूरा आंगन ,कुए का पूरा उपयोग ,करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानती थी वो ,पूरे समय तो उनका और उनके बच्चो का ही राज रहता, बाकि तीन बड़े बच्चे शहर में पढ़ते | वो भी छुट्टियों में ही आते वे शहर में रहते तो थोड़ी मर्यादा से रहते वर्ना वो बच्चे क्या धूम चौकड़ी मचाते दिन भर ?पिताजी हमेशा दादाजी से कहते यहाँ छुट्टियों में शांति से रहने आते है तो यहाँ अलग ही बवाल मचा रहता है!
दादाजी कहते- थोड़े दिनों की बात है इनका तबादला हो जायेगा फिर हमको इनकी अच्छी बस्ती रहती है |
ये
बात अलग है की वो पूरे साल रहे उस घर में |
मास्टर साहब को सब लोग गुरूजी कहते -गुरूजी तो बिलकुल सीधे साधेअपने काम में व्यस्त रहते स्कूल की छुटियाँ होने पर भी उन्हें सारा काम रहता पोस्ट ऑफिस का काम भी वही देखते \घर में तो वे मेहमान की तरह ही
रहते \मास्टरनी जी (अब मास्टर की बीबी तो मास्टरनी होगी )जरा तेज तर्रा दिन भर काम करते करते अभावो से लड़ते लड़ते खीज जाती ,उपर से शैतान बच्चे ?दिन भर में दो चार बार तो सबकी कुटाई हो ही जाती |और वाणी के प्रहार चलते वो अलग \हम सब भाई बहनों को भी उनको पिटते देखने मजा आता साथ में वो क्या बोलती ज्यादा कुछ तो समझ नहीं आता क्योकि उसमे खास गाँव की बोली होती |
एक बार उन्होंने अपनी बेटी के बाल पकड़कर कहा -तुझे तो मै ऐसा मारूंगी की सीधी" नैनीताल " में साँस लेगी |
उस समय तो हमारे लिए भी नैनीताल का कोई महत्व नहीं था नहीं कभी इस शहर का नाम सुना था ?
कहाँ मध्यप्रदेश का एक छोटा सा गाँव और पास ही खंडवा शहर! इसके आगे की दुनिया किताबो के जरिये ही जानी थी \धीरे धीरे शिवानी जी की किताबो के माध्यम से नैनीताल को जाना वहां की खूबसूरती को महसूस किया |
पिछले वर्ष काठगोदाम से अल्मोड़ा जाना हुआ तब बीच में नैनीताल आया था तब अचानक बचपन वो वाकया याद हो आया मन में अचानक विचार आने लगे की कैसे मास्टरनीजी ने नैनीताल जैसे खूबसूरत शहर का प्रयोग अपने बच्चो को सजा देने के लिए किया ?उन्होंने अपने निवास से शायद नैनीताल की दूरी उड़ते उड़ते सुन ली होगी ?
या कभी किसी ने कोई किस्सा सुनाकर डराया होगा ?कोई कोई शहरी लोग( उस समय )गाँव में आकर छोटो छोटी बातो को नमक मिर्च लगाकर किस्से बनाया करते थे \मै आज भी सोचती हूँ की क्या कारण रहा होगा ?
ये बात अलग है उनके सारे बच्चे मेहनत से पढ़कर अच्छे नोकरियो में लगे जो नैनीताल भेजे जा रहे थे वे उससे भी दूर विदेशो में जा बसे है |

Friday, May 06, 2011

"पर उपदेश कुशल बहुतेरे "

आजकल हर व्यक्ति उपदेशात्मक बाते करने लगा है |दिन रात अध्यात्मिक ?चैनलों का प्रभाव शायद जीवन पर गहरा असर डाल रहा है बोलने में हाँ ?आचरण में तो शून्य प्रतिशत ही है |

"दर्द की शामत "

कौनसे दर्द की कहू ?
मेरे हर दर्द का
एक ही जवाब होता है
तुम्हारे पास
तुम्हारे अपने पाले हुए दर्द है |

"सुख की नींद "

क्या कमी है
तुमको घरमे ,
कभी देखा है?
तुमने ?
फुटपाथ पर कैसी
"सुख की नीद "सोते है
मछरदानी लगाकर लोग ?

Sunday, May 01, 2011

मजदूर दिवस जो जीवन पर्यन्त ख़ुशी का साथ निभाता है मेरे .. ....

बैल गाडियाँ उबड खाबड़ रास्ते को पार करते हुए रात के करीब ९ बजे गाँव के भीतर प्रवेश कर चुकी थी गाँव में खबर फ़ैल चुकी थी बारात आ गई लाड़ी दुल्ल्व(दूल्हा दुल्हन ) भी आ गये |दुल्हन बड़ी मुश्किल से बैल गाड़ी से नीचे उतर पाई थी दूल्हें राजा तो गाँव में प्रवेश करते ही गाड़ी से कूद पड़े थे दुल्हन को तो घर तक बैलगाड़ी में ही जाना था (दुल्हन जो थी ) साथ में हम उम्र नन्द भी थी जो अभ्यस्त थी बैल गाड़ी में चढने उतरने की इसलिए कोई मुश्किल नहीं |दुल्हन को अपने कपडे जेवर भी सम्भालने थे (वैसे आजकल की तरह कोई डिजाइनर लहंगे नहीं थे )फिर भी बनारसी साड़ी तो भारी ही तो होती है न ?साथ में गाँव की बहुत सारी औरते और बच्चो की निगाहे दुल्हन पर ही लगी थी |
सर पर पल्ला सम्भालते सम्भालते दुल्हन बेहाल उस पर द्वार पर ही बहुत सारी रस्मे |मायके छोड़ने का दुःख अलग |
कोई दबे शब्दों में कह रहा था बिजली आ गई !बाद में दुल्हन को मालूम पड़ा की इसी साल गाँव में बिजली आई थी और दुल्हन को सब भाग्यशाली मान रहे थे की देखो लाड़ी के आने के पहले ही गाँव में बिजली आ गई इस लिए दुल्हन को सब बिजली कहने लगे |
बहुत सारी रस्मो के बाद हंसी मजाक के बाद मंडप में मुह मीठा कराने के बाद दुल्हन को जहाँ आंगन के पास में एक बैठक में बहुत सारी महिला रिश्तेदारों के साथ सुला दिया गया |
दुल्हन माँ, पिता ,दादी,दादा , भाई, बहन सबको याद कर सुबकती रही |
किन्तु सुबह की लालिमा ने, घर की बुजुर्ग महिलाओ ने ,दुल्हन को प्यार से उठाया ढेर सारे आशीर्वाद दिए बलाए ली तो दुल्हन जो बहू बन गई थी रात की बात को पीछे छोड़ सुबह के स्वागत में आतुर हो उठी थी |
सन १९७४ में देशव्यापी ट्रक बस रेल हड़ताल थी १ मई को और इसीलिए मेरी बारात को बैलगाड़ी से आना पड़ा और
उस समय मध्यमवर्गीय परिवारों में कार का प्रचलन बहुत कम था |आज ३८ साल बाद भी अपनी अनोखी बारात और दिवा लग्न (दिन का शादी का मुहूर्त )आज भी हुबहू आँखों में चित्रित है |
बड़ो के आशीर्वाद से और अपने प्रगतिवादी ,प्रयोगवादी सादगीपूर्ण ससुराल परिवार ने मेरे जीवन के ३८ सालो को खुशिया ही खुशिया दी है |
वैसे मजदूर दिवस और महाराष्ट्र दिवस 1st may को होता है और जब शादी के बाद मुंबई रहना हुआ तो हर साल शादी की सालगिरह की छुट्टी मिल ही जाती थी जिसमे बैलगाड़ी के धचके कम ही याद आते थे |गेटवे ऑफ़ इण्डिया और चौपाटी की भेल में बेचारी बैलगाड़ी की यात्रा ?
आइये कुछ गिने चुने छाया चित्र देख लिए जाय |




पाणिग्रहण संस्कार( माँ पिताजी )




वरमाला( पहचानिए )?
जो भी यह चित्र देखता है श ही लेता है की कम से कम दूल्हा कुरता तो पहन लेते ?




अब उस समय हमारे यहाँ रिसेप्शन का रिवाज नहीं था तो तो दीवाल पर जाजम लगा दी और खड़ा कर दिया
हम दोनों को |



दोनों परिवार ख़ुशी से बतियाते हुए न ही समधियो जैसी कोई अकड ,न ही !लडकी ब्याहने का तनाव




शादी के तीसरे दिन खेत बाड़ी की सैर



और फिर दो महीने बाद मुंबई (goreगाँव )का घर
उस समय मेरे काका ससुर अमेरिका से आये थे शादी में और उनके पास एक मात्र कलर फोटो का केमेरा था जिसमे स्लाइडमें फोटो होते थे |जिसे प्रोजेक्टर के सहारे देखते थे बाद में उन्होंने वही से ये कापिया भेजी थी |
अन्यथा कोई फोटो मिलना मुश्किल ही था क्योकि फोटोग्राफर का खर्चा बजट में नही था |
शादी के बाद एक स्टूडियो में लिया गया चित्र जरुरी है |




Thursday, April 21, 2011

"समझौता "

आज हर तरफ अन्ना हजारे जी की चर्चा है और उनकी तुलना गांधीजी से की जाने लगी है |हजारे जी में हम सब गांधीजी ढूंढने में लगे है |पता नही ?क्यों ?
कुछ सालो पहले मैंने एक कविता लिखी थी इन्ही भावो को लेकर |
कितनी प्रासंगिक है आज ?

"समझोता "

मेरे घर के आसपास
जंगली घास का घना जंगल बस गया है |
मै इंतजार में हुँ ,
कोई इस जंगल को छांट दे ,
मै अपने मिलने वालो से हमेशा,
इसी विषय पर बहस करता,
कभी नगर निगम को दोषी ठहराता,
कभी सुझाव पेटी में शिकायत डालता,
और लोगो को अपने,
जागरूक नागरिक होने का अहसास दिलाता|
इस दौरान जंगल और बढ़ता जाता,
उसके साथ ही जानवरों का डेरा भी भी जमता गया|
गंदगी और बढ़ती गई
फ़िर मै,
जानवरों को दोषी ठहराता
पत्र सम्पादक के नाम पत्र लिखकर
पडोसियों पर फब्तिया कसता
[आज मै इंतजार में हूँ ]
शायद 'बापू'फ़िर से जन्म ले ले
और ये जंगल काटने का काम अपने हाथ में ले ले|
ताकि मै उनपर एक किताब लिख सकू
किताब की रायल्टी से मै
मेरे " नौनिहालों " का घर 'बना दू
उस घर के आसपास फ़िर जंगल बस गया
किंतु
मेरे बच्चो ने कोई एक्शन नही लिया
उन्होंने उस जंगल को ,
तुंरत 'चिडिया घर 'में तब्दील कर दिया
और मै आज भी शाल ओढ़कर सुबह की सैर को ,
जाता हूँ,
'चिडिया घर 'को भावना शून्य निहारकर
पुनः किताब लिखने बैठ जाता हूँ
क्योकि मै एक लेखक हूँ|




Sunday, April 17, 2011

कुछ अनकही .....

१.

तुम
हमेशा से
कल्पनाओ में,
कल्पनाओ के दुर्ग बनाती रही
भावनाओ से ,सवेदनाओ से ,
अपनेपन के मेल से
तुम्हारे द्वारा निर्मित
इस दुर्ग को कोई जान पाया
तुमने इसे मूर्त रूप
देकर भी अभेध्य ही
रखा !
तुम जानती थी
इस दुर्ग के द्वार
खुलते ही
तुम्हारे हाथ क्या
आयेगा
सिर्फ और सिर्फ चिंगारी |


2.
जाने क्यों ?
सवेदनाये
कागजी होकर रह गई है

जाने क्यो?
सवेदनाये
पानी के बुलबुले
की तरह हो कर रह गई है
जाने क्यो ?
सवेदनाये
बंद पानी की बोतल की खाली बोतल की तरह
हलकी होकर रह गई है
जाने क्यों ?
सवेंदनाये
आभासी होकर रह गई है |
अट्टालिकाओ के सूनेपन में
सुनामी के गूंजते सतत से शोर में
शहरों के रूखेपन में
रिश्तो के बेगानेपन में
भीड़ के अकेलेपन में
कही गुम होकर रह गई है
क्या सवेदनाये ?





Monday, April 11, 2011

दीदी कन्या जिमा दो

पिछले साल अष्टमी पर मैंने यः पोस्ट लिखी थी | जो मेरा अनुभव था आज इसकी कितनी प्रासंगिकता है ?
कृपया अपने अमूल्य विचारो से जरुर अवगत कराये |




आज सुबह से जिससे भी फोन पर बात कि वो इस समय व्यस्त थी |हलवा, पूड़ी ,खीर चने बनाने में व्यस्त थी |आज अष्टमी है देवी के पूजन का अत्यंत पवित्र दिन और आज कन्या के के रूप में साक्षात् देवीका ही पूजन विधान बताते है ,हमारे ज्योतिषी या हमारे पारिवारिक पंडित |बहुत सालो पहले कही -कही ही कन्याओं को जिमाने का प्रचलन था पर जैसे जैसे एक प्रदेश से दुसरे प्रदेशो में जाना आना बढ़ा अपने समाज के आलावा दूसरे समाज से सम्पर्क बढ़ा हम दूसरो के रीती रिवाज अपनी सुविधा और रूचि के अनुसार पालने लगे |और आज प्राय हर घर में अष्टमी और नवमी को बड़ी श्रधा के साथ उपहार के साथ कन्याओं को भोजन कराया जाता है |अब हर कालोनी में इतनी लडकिया तो मिल नहीं पाती इसलिए घर में काम करने वाली बाई को कहकर पूरी कन्याये मिल पाती है |मेरी कालोनी में मुश्किल से सिर्फ दो कन्या है |मेरे अड़ोसी पड़ोसी महाराष्ट्र और उड़ीसा के है वो लोग तो कन्या नही जिमाते | और मै ठहरी थोड़ी आलसी और नास्तिक ?
तो सिर्फ शारदीय नवरात्री में ही कन्या जिमाती हूँ |वो भी बड़ी मुश्किल से कन्या जुटा पाती हूँ |
और जब आज सबके घर कन्या भोजन कि बात सुनी तो मुझे अपने आप पर थोड़ी खीज होने लगी और एक तरह से ग्लानि भी हुई ,टी.वि के कार्यक्रम जिनमे कन्याओ को जिमाने का महत्व बताया जा रहा था तो लगा मेरा जीवन व्यर्थ ही गया |
इस तरह सोचते सोचते खाना खा लिया अपने को कोसते कोसते ||बस खाना खाकर उठी ही थी कि दरवाजे कि घंटी बजी |अमूमन इस समय कोई नहीं आता कभी कभार पोस्ट मेन घटी बजा देता था जबसे उसे कहा है- भैया घंटी मत बजाया करो क्योकि सिर्फ क्रेडिट कार्ड के विवरण और बैंक के स्टेटमेंट ही होते है उसके लिए क्यों दोपहर कि नींद ख़राब कि जाय |तब से वो भी गेट में से डाक खिसकाकर चल देता है |खैर !जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा सात कन्याये ,जिनके हाथ में छोटे छोटे पर्स ,भरी हुई प्लास्टिक कि थैलिया थी |माथे पर ताजा ताजा कुंकू लगा हुआ अपनी उम्र के हिसाब से सबके घुटनों से नीचे लटकते हुए कपडे थे किसी कि बाहं खिसक रही तो कोई अपने स्कर्ट को बार बार ऊपर खीच रही थी |
मुझे देखते ही बोली -कन्या को जिमा दो !मुझे ज्यादा कुछ समझ नहीं आया फिर दोबारा वही वाक्य उन्होंने दोहराया
तब मुझे समझ आया |कन्या जीमना चाहती है ?मै मन ही मन सोचने लगी इन्हें क्या खिलाऊ ?क्योकि खाना तो हम खा ही चुके थे और उतना ही बनाते है |और कितना ही महत्व हो आज कन्या जिमाने का ?मुझमे इतनी तत्परता नहीं थी कि
मै सबके लिए खाना बना पाऊ ?मुझे सोच में पड़ते देख फिर से सारी एक साथ बोल पड़ी -दीदी !कन्या जिमा दो ?मानो कह रही हो ये कैसा घर है ?यहाँ कन्या नहीं जिमाते ?अब घर आई कन्याओं को खाली हाथ जाने देने का भी मन नही हो रहा था |पैसे देना भी सिधान्त के खिलाफ |
अच्छा बैठो- कहकर कुछ लाने के इरादे से मै घर के अन्दर गई उन्हें आँगन में बैठाकर ,वो व्यवस्थित बैठ गई गोल घेरे में मानो उन्हें ट्रेनिग दी गई हो |मै संतरे लेकर आई क्योकि मेरे पास और ज्यादा मात्रा में कुछ खाने वाली वस्तु नहीं थी |
बिना टीका लगाये उन्हें दे दिए -वे मुझे आश्चर्य से देखने देखने लगी |मै भी उनसे पूछताछ करने लगी ?स्कूल जाती हो?
सबने सर हिलाकर हाँ में जवाब दिया |मैंने फिर पूछा ?
कितने घर भोजन किया ?
आठ घर |आपका नोवां घर है |फिर फटाफट उठकर ठन्डे संतरोंको गाल पर लगा कर अपनी बातो में मशगूल हो गई |
मै
पूछती ही रह गई आज क्या छुट्टी है स्कूल कि ?पर वो तो सब दरवाजे से बाहर |
अब
एक संतरे में कितना पूछा जा सकता है ?
शायद मै तुरंत फोटो ले लेती तो आप सबको यकीन दिला देती कि मैंने भी कन्या जिमा दी और अपने आपको तसल्ली भी |

Tuesday, April 05, 2011

गणगौर की बिदाई ,गणगौर गीत भाग 2

गणगौर की बिदाई परसों है अभी से बिदाई के क्षणों की कल्पना कर सभी लोग भावनाओ में बह रहे है किन्तु अगले साल फिर नै उमंगो के साथ गणगौर को घर लाने की आकांक्षा में गणगौर की विदाई की तैयारी शुरू हो गई है लापसी ,दही भात , मीठा इमली का पानी ,पूड़ी मेथी दाने का साग ,और पूरण पोली, पीली चुनरी , साफा
सब कुछ है तैयार |



रणुबाई
के श्रंगार का वर्णन और मायके से विदाई



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अरघ देने के लिए कन्याओ द्वारा लाये गये पूल और पत्तिया पाती खेलना कहते है |
मौली राजा (जब सारी टोकरिया भर जाती है और जो कस्तूरी और गेहू बच  जाते है उन्हें एक स्थान पर रखकर सींचा जाता है )




बह सामूहिक पूजा के बाद गाँव कि सारी महिलाये अपने दिन भर के खेती के काम निबटाती है क्योकि यह समय गेंहू कि कटाई का होता है |किसी के खेत में कटाई हो रही है तो किसी के गेहू खलिहान में रखे जा रहे है |कड़ी मेहनत के बावजूद
रात को बाड़ी जहाँ जवारे बोये जाते है पूरे गाँव कि एक ही बाड़ी होती है वहां आकार गणगौर के गीत ,सामूहिक नृत्य
बिना कोई खर्च के, बिना कोई तामझाम के देवी के गीत जिसमे श्रंगार ,दैनिक जीवन के कार्य का वर्णन होता है कुछ पारम्परिक गीत जो सदियों से गाये जाते है ,कुछ और मनोरंजन के लिए तुकबंदी कर के रचे जाते है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते है |ऐसा ही ये एक श्रंगार गीत जिसमे रणुबाई चाँद तारो। सूरज से अपने श्रंगार के लिए उनके गुणों का वर्णन कर अपने धनियेर (पति ) से उनकी मांग करती है |
सिर्फ तालियों कि ताल और लय पर अपना सारी भक्ति और उत्साह देखते ही बनता है |



शुक्र को तारो रे ईश्वर उंगी रह्यो |
कि
तेकी मख टिकी घड़ाव ||
अर्थ
-एक दिन रनु अपने पति से हट पकड जाती और कहती है -हे पतिदेव !वः आकाश में सबसे तेजस्वी शुक्र का तारा चमक रहा है ?उसकी मुझे बिंदी घडवा दो |
ध्रुव कि बदलाई रे ईश्वर तुली रही
तेकी मख तबोल रंगाव \
अर्थ
-और यह जो ध्रुव कि ओर (उत्तर में )बरसने योग्य बदली छाई हुई है उसकी मुझे चुनर रंगवा दो |
सरग कि बिजलई रे ईश्वर चमकी रही
तेकी मख मगजी लगाव
अर्थ -और सुनो स्वर्ग में कडकने वाली बिजली कि उसमे मगजी लगवा देना |
नव लाख तारा ,रे ईश्वर चमकी रह्य
तेकी मख अंगिया सिलाओ
चाँद
और सूरज रे ईश्वर चमकी रह्या |
कि तेखी मख बदन घड़ाव
अर्थ -साथ ही आकाश में चमकने वाले लाखों तारो कि मुझे कंचुकी सिलवाओ जिसके अग्र भाग में चाँद और सूरज जड़े हो| बासुकी नाग रे ईश्वर देखि रह्यो
कि तेकी मख येणी गुन्थाव
बड़ी
हट वालाई रे गोरल -गोरड़ी
अर्थ
-हे पतिदेव !जो ,वो जो इठलाता हुआ काले वर्ण का वासुकी नाग दिख रहा है , उसकी मुझे वेणी गुथवा दो | इस पर ,मुस्कुराते हुए उसके पति कहते है कि - "हे गोरवर्णरनु !तू बड़ी हट वाली है |" इस तरह अनेक गीत गाये जाते है और महिलाये अपने समर्द्ध परिवार कि कामना करती हुई रनु बाई कि बिदाई कि तैयारी करती है |क़ल गणगौर कि बिदाई का दिन है |
गणगौर देवी कि आराधना का पर्व है बेटी को ही देवी रूप में पूजते है और बेटी जब ९ दिन मायके रहकर जाती है तो उसका ससुराल जाने का मन नही है|अपने पिता से हठ करती है पिताजी आपके बाग में आम और इमली है मै सखियों के संग खाना और बाग में खेलना चाहती हूँ अभी मुझे ससुराल मत भेजो |,पिताजी कहते है -बेटी तुम्हारे ससुर ,जेठ ,देवर काले सफेद और घोड़े पार लेने आये थे तब उन्हें मैंने आदरपूर्वक लौटा दिया है पर ये lजो कुवंर लाडला अपनी छैल बछेरी लेकर आया है वो तुम्हे साथ लिए बिना नहीं जायेगा |
समझा बुझाकर विदा देते है
और साथ ही उपदेश भी देते है |माँ का उपदेश जहन ममता से भीगा होता है ,वहां पिता का उपदेश भी प्यार और गांभीर्य से खाली नहीं होता है |गीत का भावार्थ इस तरह है -बेटी जब अपनी सखियों। के साथ खेलने कि जिद करती है तो पिता समझाते है |बेटी !तुम खेलने के लिए जरुर जाओ पार स्रष्टी रूपी लम्बा बाजार देखकर दौड़ कर नहीं चलना क्योकि उसमे उलझकर गिरने का भय रहता है |पराये पुरुष से कभी हंस कर बात मत करना |कही पानी देख कर ही वस्त्र धोने नहीं लगना , क्योकि इससे साध्य के लिए ही साधन का उपयोग करने कि द्रढ़ता का लोप हो जाता है |कर्ण वस्त्र धोने के लिए पानी है ,पानी के लिए वस्त्र धोना नहीं |
गीत
पिताजी कि गोद बठी रनुबाई बिनय |
कहो तो पिताजी हम रमवा हो जावा
जावो बेटी रनुबाई रमवा जाओ
लंबो बाजार देखि दौड़ी मत चलजो
उच्चो व्ट्लो देखि जाई मत बठ्जो
परायो
पुरुष देखि हंसी मत बोलजो
नीर देखि चीर मत धोवजो
पाठो देखि बेटी ,आड़ी मत घसजो
परायो बालो देखि हाय मत करजो
संपत
देखि बेटी चढ़ी मत चलजो
विपद देखि बेटी रडी मत बठ्जो
जाओ
बेटी राज करजो
इस तरह रणु बाई अपने लश्कर के साथ ९ दिन तक अपने मायके में रहती है और अपने भक्तो पर आशीष कि वर्षा कर विदा लेती है सारे गावं कि विपदाओं से रक्षा करती है और ढोल बाजे के साथ लहलहाते जवारो का बहती नदी में विसर्जन कर दिया जाता है और अगली चैत्र में फिर से आने का भावपूर्ण निमंत्रण दिया जाता है |
देवी गणगौर कि भावपूर्ण बिदाई |


 
बिदाई के पहले ज्वारो से गले मिलना हे देवी हमसे कुछ भूल हो तो क्षमा करे और और आपदाओ से रक्षा करे |