Monday, April 11, 2011

दीदी कन्या जिमा दो

पिछले साल अष्टमी पर मैंने यः पोस्ट लिखी थी | जो मेरा अनुभव था आज इसकी कितनी प्रासंगिकता है ?
कृपया अपने अमूल्य विचारो से जरुर अवगत कराये |




आज सुबह से जिससे भी फोन पर बात कि वो इस समय व्यस्त थी |हलवा, पूड़ी ,खीर चने बनाने में व्यस्त थी |आज अष्टमी है देवी के पूजन का अत्यंत पवित्र दिन और आज कन्या के के रूप में साक्षात् देवीका ही पूजन विधान बताते है ,हमारे ज्योतिषी या हमारे पारिवारिक पंडित |बहुत सालो पहले कही -कही ही कन्याओं को जिमाने का प्रचलन था पर जैसे जैसे एक प्रदेश से दुसरे प्रदेशो में जाना आना बढ़ा अपने समाज के आलावा दूसरे समाज से सम्पर्क बढ़ा हम दूसरो के रीती रिवाज अपनी सुविधा और रूचि के अनुसार पालने लगे |और आज प्राय हर घर में अष्टमी और नवमी को बड़ी श्रधा के साथ उपहार के साथ कन्याओं को भोजन कराया जाता है |अब हर कालोनी में इतनी लडकिया तो मिल नहीं पाती इसलिए घर में काम करने वाली बाई को कहकर पूरी कन्याये मिल पाती है |मेरी कालोनी में मुश्किल से सिर्फ दो कन्या है |मेरे अड़ोसी पड़ोसी महाराष्ट्र और उड़ीसा के है वो लोग तो कन्या नही जिमाते | और मै ठहरी थोड़ी आलसी और नास्तिक ?
तो सिर्फ शारदीय नवरात्री में ही कन्या जिमाती हूँ |वो भी बड़ी मुश्किल से कन्या जुटा पाती हूँ |
और जब आज सबके घर कन्या भोजन कि बात सुनी तो मुझे अपने आप पर थोड़ी खीज होने लगी और एक तरह से ग्लानि भी हुई ,टी.वि के कार्यक्रम जिनमे कन्याओ को जिमाने का महत्व बताया जा रहा था तो लगा मेरा जीवन व्यर्थ ही गया |
इस तरह सोचते सोचते खाना खा लिया अपने को कोसते कोसते ||बस खाना खाकर उठी ही थी कि दरवाजे कि घंटी बजी |अमूमन इस समय कोई नहीं आता कभी कभार पोस्ट मेन घटी बजा देता था जबसे उसे कहा है- भैया घंटी मत बजाया करो क्योकि सिर्फ क्रेडिट कार्ड के विवरण और बैंक के स्टेटमेंट ही होते है उसके लिए क्यों दोपहर कि नींद ख़राब कि जाय |तब से वो भी गेट में से डाक खिसकाकर चल देता है |खैर !जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा सात कन्याये ,जिनके हाथ में छोटे छोटे पर्स ,भरी हुई प्लास्टिक कि थैलिया थी |माथे पर ताजा ताजा कुंकू लगा हुआ अपनी उम्र के हिसाब से सबके घुटनों से नीचे लटकते हुए कपडे थे किसी कि बाहं खिसक रही तो कोई अपने स्कर्ट को बार बार ऊपर खीच रही थी |
मुझे देखते ही बोली -कन्या को जिमा दो !मुझे ज्यादा कुछ समझ नहीं आया फिर दोबारा वही वाक्य उन्होंने दोहराया
तब मुझे समझ आया |कन्या जीमना चाहती है ?मै मन ही मन सोचने लगी इन्हें क्या खिलाऊ ?क्योकि खाना तो हम खा ही चुके थे और उतना ही बनाते है |और कितना ही महत्व हो आज कन्या जिमाने का ?मुझमे इतनी तत्परता नहीं थी कि
मै सबके लिए खाना बना पाऊ ?मुझे सोच में पड़ते देख फिर से सारी एक साथ बोल पड़ी -दीदी !कन्या जिमा दो ?मानो कह रही हो ये कैसा घर है ?यहाँ कन्या नहीं जिमाते ?अब घर आई कन्याओं को खाली हाथ जाने देने का भी मन नही हो रहा था |पैसे देना भी सिधान्त के खिलाफ |
अच्छा बैठो- कहकर कुछ लाने के इरादे से मै घर के अन्दर गई उन्हें आँगन में बैठाकर ,वो व्यवस्थित बैठ गई गोल घेरे में मानो उन्हें ट्रेनिग दी गई हो |मै संतरे लेकर आई क्योकि मेरे पास और ज्यादा मात्रा में कुछ खाने वाली वस्तु नहीं थी |
बिना टीका लगाये उन्हें दे दिए -वे मुझे आश्चर्य से देखने देखने लगी |मै भी उनसे पूछताछ करने लगी ?स्कूल जाती हो?
सबने सर हिलाकर हाँ में जवाब दिया |मैंने फिर पूछा ?
कितने घर भोजन किया ?
आठ घर |आपका नोवां घर है |फिर फटाफट उठकर ठन्डे संतरोंको गाल पर लगा कर अपनी बातो में मशगूल हो गई |
मै
पूछती ही रह गई आज क्या छुट्टी है स्कूल कि ?पर वो तो सब दरवाजे से बाहर |
अब
एक संतरे में कितना पूछा जा सकता है ?
शायद मै तुरंत फोटो ले लेती तो आप सबको यकीन दिला देती कि मैंने भी कन्या जिमा दी और अपने आपको तसल्ली भी |

16 टिप्पणियाँ:

kshama said...

Ek or kanya ko devi mano...doosaree or uske janampe ya to dukh manao ya janam se pahle qatl kardo!Ye kaisee reet hai?

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

शोभना दी! जब दिल्ली आया तब से यह अनुष्ठान देख रहा हूँ.. हमारे तरफ भी शारदीय नवरात्र की पूर्णाहुति पर कन्या जिमाते हैं. लेकिन जैसा यहाँ देखा वैसे नहीं.. मन भर आता है कन्या के रूप में देवियों को देखकर. आपकी पोस्ट हमेशा दिल को छूती है,आज भी!!

ज्योति सिंह said...

is avasar ye dhoom bani rahti hai ,badhiya likha hai aapne .jai durga maiya ki .

shikha varshney said...

पिछली बार भारत प्रवास के दौरान यह सब मैंने भी देखा..और हैरानी से देखती रह गई.समझ में नहीं आया..इसे व्यावसायिकता कहूँ? धार्मिकता? या फिर भावुकता...

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सच में समझ नहीं आता इसे क्या कहा जाय... ...शिखा जी की बात से सहमत हूँ...

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रथा तो कुछ इंगित करती है, हम देख सकें तो देख लें।

रश्मि प्रभा... said...

maa prasann hui ... bahut arth rakhta hai kanyaon ko jimana

अजित गुप्ता का कोना said...

वाह क्‍या व्‍यावसायिकता है?

ZEAL said...

वैसे मुझे अच्छा लगता है ये सब देखकर। सुबह-सुबह गृहणियां पकवान बनाने में व्यस्त , पति भी मदद कराने में और छोटी-छोटी बच्चियां पूरे उल्लास के साथ अपने उपहार एकत्र करते हुए।

rashmi ravija said...

प्रचलन सा ही हो गया है....क्या कहा जाए....वे बच्चियां भी पूरी तरह ट्रेंड हैं....बाद में उनसे हिसाब भी लिया जाता होगा...कितने घर गयीं...

BrijmohanShrivastava said...

बच्चियों ने नौ घर में कितना कितना खाया होगा फिर बिन बुलाये आयीं ।आपने क्या अर्थ लगाया इसका ।खाना खाने के बाद टीका भी किया जाता है उसमें पैसे दिये जाते है कही इस लालच में तो नहीं । कुछ भी हो । नवरात्रि में बिन बुलाये बच्चियां आई और अपने घर से मुह जूुठा करके गई मै तो इसे बहुत ही शुभ मानता हॅू

बाल भवन जबलपुर said...

घणा दिन बाद पढ़्न ख मिली असी पोस्ट

Dr (Miss) Sharad Singh said...

मैंने भी बचपन में कन्या-भोज में जीमा है...
बेशक़ अब वह स्वरूप नहीं रहा.

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

बहुत खूब .परम्पराओं का रूप और अर्थ भले ही बदल गया है पर हमारी परम्पराओं के उद्देश्य बड़े अर्थपूर्ण और कल्याणकारी होते हैं . असल में एक दिन तो प्रतीकात्मक है मूल रूप में यह कन्या के रूप में समग्र नारी जाति के सम्मान का सन्देश देता है . कन्या ही तो बड़ी होकर सृष्टि संचालन करती है . वह मातृस्वरूपा है .

Pooja Anil said...

पढकर बड़ा अजीब लगा, क्या उन बच्चियों को एेसी ट्रेनिंग दी गई कि घर घर जाकर जीमने को कहें? कितना गलत समाज बना रहे हैं इस तरह!

Sadhana Vaid said...

बहुत ही बढ़िया संस्मरण शोभना जी ! हर साल यही होता है ! बच्चों के कई झुण्ड घंटी बजा बजा कर पूछते हैं' "जीमने आ जाएँ क्या ?"