Tuesday, May 10, 2011

एक सजा ऐसी भी .....

हम लोग लोगो को आदत सी हो जाती है जिस शहर में जो वस्तु प्रसिद्द हो उसका नाम ,लेने की, अगर कोई ऐतिहासिक वस्तु के कारण प्रसिद्द है और कोई अन्य कारण से तो हम प्रतीकात्मकता से उसका नाम लेते है जैसे, आगरा मशहूर है ताजमहल के लिए किन्तु आगरा वाद विवाद में बात बढ़ जाती है तो दुसरे व्यक्ति को अहसास कराया जाता है तुम्हे तो आगरा में होना चाहिए था (सर्वविदित है की आगरा पागल खाने )के लिए भी प्रसिद्द है | कितु बहुत से लोगो को बहुत से शहरों की प्रसिद्धि का पता नहीं नहीं होता |और वो उस शहर की उपयोगिता को वहा की प्रसिद्धि को जाने बिना ही उस शहर के बारे में जाने अनजाने अपनी राय ,अपनी खीज को उतारते रहते है |
,वैसे
उनका दोष भी नहीं था क्योकि जिस जमाने में वे जिस शहर को कोसती थी ,तब दूसरे प्रदेश क्या ?अपने प्रदेश के पास के शहर के आलावा उन बिचारी को दूसरे शहर का नाम भी नहीं मालूम था |दूर दराज के गाँव में मिडिल स्कूल के हेडमास्टर की पत्नी थी |बहुत बड़ा घर था दादा दादी का , दादी की कोई दूर के रिश्ते दार थे मास्टरजी| दो कमरे रहने को दे दिए थे दो कमरे क्या ?वो तो पूरा घर ही वापरते थे क्योकि घर में दादा दादी के आलावा तो कोई रहता नहीं था हम सब तो छुट्टियों में ही गाँव जाते थे \पूरा आंगन ,कुए का पूरा उपयोग ,करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानती थी वो ,पूरे समय तो उनका और उनके बच्चो का ही राज रहता, बाकि तीन बड़े बच्चे शहर में पढ़ते | वो भी छुट्टियों में ही आते वे शहर में रहते तो थोड़ी मर्यादा से रहते वर्ना वो बच्चे क्या धूम चौकड़ी मचाते दिन भर ?पिताजी हमेशा दादाजी से कहते यहाँ छुट्टियों में शांति से रहने आते है तो यहाँ अलग ही बवाल मचा रहता है!
दादाजी कहते- थोड़े दिनों की बात है इनका तबादला हो जायेगा फिर हमको इनकी अच्छी बस्ती रहती है |
ये
बात अलग है की वो पूरे साल रहे उस घर में |
मास्टर साहब को सब लोग गुरूजी कहते -गुरूजी तो बिलकुल सीधे साधेअपने काम में व्यस्त रहते स्कूल की छुटियाँ होने पर भी उन्हें सारा काम रहता पोस्ट ऑफिस का काम भी वही देखते \घर में तो वे मेहमान की तरह ही
रहते \मास्टरनी जी (अब मास्टर की बीबी तो मास्टरनी होगी )जरा तेज तर्रा दिन भर काम करते करते अभावो से लड़ते लड़ते खीज जाती ,उपर से शैतान बच्चे ?दिन भर में दो चार बार तो सबकी कुटाई हो ही जाती |और वाणी के प्रहार चलते वो अलग \हम सब भाई बहनों को भी उनको पिटते देखने मजा आता साथ में वो क्या बोलती ज्यादा कुछ तो समझ नहीं आता क्योकि उसमे खास गाँव की बोली होती |
एक बार उन्होंने अपनी बेटी के बाल पकड़कर कहा -तुझे तो मै ऐसा मारूंगी की सीधी" नैनीताल " में साँस लेगी |
उस समय तो हमारे लिए भी नैनीताल का कोई महत्व नहीं था नहीं कभी इस शहर का नाम सुना था ?
कहाँ मध्यप्रदेश का एक छोटा सा गाँव और पास ही खंडवा शहर! इसके आगे की दुनिया किताबो के जरिये ही जानी थी \धीरे धीरे शिवानी जी की किताबो के माध्यम से नैनीताल को जाना वहां की खूबसूरती को महसूस किया |
पिछले वर्ष काठगोदाम से अल्मोड़ा जाना हुआ तब बीच में नैनीताल आया था तब अचानक बचपन वो वाकया याद हो आया मन में अचानक विचार आने लगे की कैसे मास्टरनीजी ने नैनीताल जैसे खूबसूरत शहर का प्रयोग अपने बच्चो को सजा देने के लिए किया ?उन्होंने अपने निवास से शायद नैनीताल की दूरी उड़ते उड़ते सुन ली होगी ?
या कभी किसी ने कोई किस्सा सुनाकर डराया होगा ?कोई कोई शहरी लोग( उस समय )गाँव में आकर छोटो छोटी बातो को नमक मिर्च लगाकर किस्से बनाया करते थे \मै आज भी सोचती हूँ की क्या कारण रहा होगा ?
ये बात अलग है उनके सारे बच्चे मेहनत से पढ़कर अच्छे नोकरियो में लगे जो नैनीताल भेजे जा रहे थे वे उससे भी दूर विदेशो में जा बसे है |

Friday, May 06, 2011

"पर उपदेश कुशल बहुतेरे "

आजकल हर व्यक्ति उपदेशात्मक बाते करने लगा है |दिन रात अध्यात्मिक ?चैनलों का प्रभाव शायद जीवन पर गहरा असर डाल रहा है बोलने में हाँ ?आचरण में तो शून्य प्रतिशत ही है |

"दर्द की शामत "

कौनसे दर्द की कहू ?
मेरे हर दर्द का
एक ही जवाब होता है
तुम्हारे पास
तुम्हारे अपने पाले हुए दर्द है |

"सुख की नींद "

क्या कमी है
तुमको घरमे ,
कभी देखा है?
तुमने ?
फुटपाथ पर कैसी
"सुख की नीद "सोते है
मछरदानी लगाकर लोग ?

Sunday, May 01, 2011

मजदूर दिवस जो जीवन पर्यन्त ख़ुशी का साथ निभाता है मेरे .. ....

बैल गाडियाँ उबड खाबड़ रास्ते को पार करते हुए रात के करीब ९ बजे गाँव के भीतर प्रवेश कर चुकी थी गाँव में खबर फ़ैल चुकी थी बारात आ गई लाड़ी दुल्ल्व(दूल्हा दुल्हन ) भी आ गये |दुल्हन बड़ी मुश्किल से बैल गाड़ी से नीचे उतर पाई थी दूल्हें राजा तो गाँव में प्रवेश करते ही गाड़ी से कूद पड़े थे दुल्हन को तो घर तक बैलगाड़ी में ही जाना था (दुल्हन जो थी ) साथ में हम उम्र नन्द भी थी जो अभ्यस्त थी बैल गाड़ी में चढने उतरने की इसलिए कोई मुश्किल नहीं |दुल्हन को अपने कपडे जेवर भी सम्भालने थे (वैसे आजकल की तरह कोई डिजाइनर लहंगे नहीं थे )फिर भी बनारसी साड़ी तो भारी ही तो होती है न ?साथ में गाँव की बहुत सारी औरते और बच्चो की निगाहे दुल्हन पर ही लगी थी |
सर पर पल्ला सम्भालते सम्भालते दुल्हन बेहाल उस पर द्वार पर ही बहुत सारी रस्मे |मायके छोड़ने का दुःख अलग |
कोई दबे शब्दों में कह रहा था बिजली आ गई !बाद में दुल्हन को मालूम पड़ा की इसी साल गाँव में बिजली आई थी और दुल्हन को सब भाग्यशाली मान रहे थे की देखो लाड़ी के आने के पहले ही गाँव में बिजली आ गई इस लिए दुल्हन को सब बिजली कहने लगे |
बहुत सारी रस्मो के बाद हंसी मजाक के बाद मंडप में मुह मीठा कराने के बाद दुल्हन को जहाँ आंगन के पास में एक बैठक में बहुत सारी महिला रिश्तेदारों के साथ सुला दिया गया |
दुल्हन माँ, पिता ,दादी,दादा , भाई, बहन सबको याद कर सुबकती रही |
किन्तु सुबह की लालिमा ने, घर की बुजुर्ग महिलाओ ने ,दुल्हन को प्यार से उठाया ढेर सारे आशीर्वाद दिए बलाए ली तो दुल्हन जो बहू बन गई थी रात की बात को पीछे छोड़ सुबह के स्वागत में आतुर हो उठी थी |
सन १९७४ में देशव्यापी ट्रक बस रेल हड़ताल थी १ मई को और इसीलिए मेरी बारात को बैलगाड़ी से आना पड़ा और
उस समय मध्यमवर्गीय परिवारों में कार का प्रचलन बहुत कम था |आज ३८ साल बाद भी अपनी अनोखी बारात और दिवा लग्न (दिन का शादी का मुहूर्त )आज भी हुबहू आँखों में चित्रित है |
बड़ो के आशीर्वाद से और अपने प्रगतिवादी ,प्रयोगवादी सादगीपूर्ण ससुराल परिवार ने मेरे जीवन के ३८ सालो को खुशिया ही खुशिया दी है |
वैसे मजदूर दिवस और महाराष्ट्र दिवस 1st may को होता है और जब शादी के बाद मुंबई रहना हुआ तो हर साल शादी की सालगिरह की छुट्टी मिल ही जाती थी जिसमे बैलगाड़ी के धचके कम ही याद आते थे |गेटवे ऑफ़ इण्डिया और चौपाटी की भेल में बेचारी बैलगाड़ी की यात्रा ?
आइये कुछ गिने चुने छाया चित्र देख लिए जाय |




पाणिग्रहण संस्कार( माँ पिताजी )




वरमाला( पहचानिए )?
जो भी यह चित्र देखता है श ही लेता है की कम से कम दूल्हा कुरता तो पहन लेते ?




अब उस समय हमारे यहाँ रिसेप्शन का रिवाज नहीं था तो तो दीवाल पर जाजम लगा दी और खड़ा कर दिया
हम दोनों को |



दोनों परिवार ख़ुशी से बतियाते हुए न ही समधियो जैसी कोई अकड ,न ही !लडकी ब्याहने का तनाव




शादी के तीसरे दिन खेत बाड़ी की सैर



और फिर दो महीने बाद मुंबई (goreगाँव )का घर
उस समय मेरे काका ससुर अमेरिका से आये थे शादी में और उनके पास एक मात्र कलर फोटो का केमेरा था जिसमे स्लाइडमें फोटो होते थे |जिसे प्रोजेक्टर के सहारे देखते थे बाद में उन्होंने वही से ये कापिया भेजी थी |
अन्यथा कोई फोटो मिलना मुश्किल ही था क्योकि फोटोग्राफर का खर्चा बजट में नही था |
शादी के बाद एक स्टूडियो में लिया गया चित्र जरुरी है |