Sunday, May 31, 2009

लकीर

जब वो रूठा करती
मौन शब्दों से मनाने
की कोशिश में ,
लगी होती मै |


दिल करता उसे
सीने से लगा लू |

मै जानती हु
मेरा अंश
नही है वो,
फिर भी उसके आफिस से ,
देर से लोटने पर
धड़कता है मेरा दिल |


कभी प्यार से
उसके सर पर
हाथ फेरने का सिर्फ
उपक्रम कर
रह जाती मै |

मम्मी से मम्मा
उसकी जुबान पर
आते ही चुक जाता
तब सिर्फ मम्मीजी
कहकर रह जाती वो


मेरे करीब
प्यार का अहसास
करते
रुक जाती वो
न जाने कोनसी
अद्र्शय लकीर
हम दोनों के
बीच खीच जाती
माँ बेटी
बनने की चाह में
सिर्फ साँस बहू
रह जाते हम |

Tuesday, May 26, 2009

अनमोल रिश्ते

मै हारी नही !
बस थकी हू थोडी
शाम के धुधलके में
रिश्तो को तलाशती ,
रात के अंधेरो में, और गहराए
मेरे अनमोल रिश्ते

इसीलिए फ़िर से
सक्रिय हो जाती हुँ |

पुराने कपडो की तरह
प्रिय लगने वाले रिश्ते |

माँ कहती- कपडो का रंग
उड़ने दो
और झट से उन्हें
दो रूपये के रंग में रंग देती
कपडे चमक जाते |

पिता कहते -बेटी !
कपडो की इज्जत करोगी
वो तुम्हारी इज्जत करेगे
और महगा कपड़ा
लाकर देते |

मै माँ के रंगों में ,
पिता के स्थायित्व मूल्यों को ,
बरकरार रखने का
प्रयत्न करती हुई
भूल जाती हुँ अपनी थकन को |

प्रभात की बेला में
ताजगी के साथ
प्यार करने लगती हुँ
अनमोल रिश्तो को ---------------

शोभना चौरे

Thursday, May 21, 2009

अपनी बात


आज मेरी एक सहेली का देवास से फोन आया हाल चाल पूछने

वो एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका है
मैंने पूछा ?और छुट्टिया कैसी चल रही है ?
इस पर बडे दुखी मन से बोली अरे कहा ? देवास को सूखा जिला घोषित कर दिया है तो मध्यान भोजन में ड्यूटी लगी हुई है
मैंने पूछा ?बच्चे आते है क्या ?
वह बोली- बडी मुश्किल से एक या दो बच्चे आते है फ़िर इतना खाना क्या सब नुकसान ही जाता होगा ?और इसके आगे और कुछ ज्यादा वो बता भी नही पाई पर इतना जरुर कहा -हमारी तो सब छुट्टिया तो बर्बाद हो गई ,और इधर उधर की बाते करके फोन रख दिया
मै हमेशा उसे उपदेश देती , बच्चो को तुम्हे आदर्श नागरिक बनाना हैउन्हें अच्छे से पढ़ना है ,वह हमेशा मुझे अपनी नोकरी की उलझन बताती की उनके उपर पढाई के आलावा कितनी ही जिम्मेवारी है मध्यान भोजन तो है ही इसके आलावा सर्वे करना .पोलियो की दवा पिलाने की ड्यूटी ,कभी ट्रेनिग आए दिन चुनावो का काम और भी कई तरह के काम होते जन्हें पूरा करना पड़ता है, इन सबमे पढाई गौण हो जाती है ,और सरकारी शिक्षक और स्कूल की हालत बेहद खराब है ऐसा हर नागरिक सोचने लगता है
गर्मी की छुट्टियों में मध्यान भोजन का क्या ओचित्य है ?वो भी सूखा क्षेत्र मे.......

Wednesday, May 20, 2009

परदे की आत्मकथा

मेरा जन्म कब हुआ ?तिथि समय का तो कुछ ठीक नही ,पर टेलीविजन की रामायण में लहराते पर्दों को को देखकर ऐसा लगता है शायद सतयुग में हुआ होगा? कितु प्रश्न यह उठता है जब राम राज्य था तो परदे की क्या आवश्यकता थी |शायद द्वापर युग में हुआ होगा ,पर कृष्ण का जीवन तो खुली किताब थी वहा भी पर्दों की आवश्यकता नही थी|अनुमानित जन्म की तिथि कलयुग ही रही होगी तब ही मेरी जरूरत महसूस की गई होगी ,इसीलिए झोपडी से लेकर हवेलियों तक ,चाल से लेकर मकानों फ्लेटो और बंगलो में मेरी छटा बिखरती रही |
कुछ जगह अभावो ने मुझे जन्म दिया तो मेरा आकर प्रकार थोड़ा सख्त था जिसमे मे कटीली झाडियों के ,कभी बांसों के रूप में रहा और आज भी मेरा सखत रूप जीवित है क्योकि आज भी वहा 'कुछ 'नही है जिसके लिए दरवाजा बना सके|वैसे मुझे दरवाजे का भी पर्याय कहते है |कुछ जगह पर फोल्डिंग दरवाजो से काम चलाया जाता है क्योकि मै सब कुछ चुगली कर देता हुँ तो कब तक घर के लोग मुझ पर विश्वास करे ?गाँव के घरो में मै पहले नही होता था पर हा, बैल गाड़ी में मेरी अहम भूमिका थी बैलगाडी के अन्दर कौन है ?यह कपडे की क्वालिटी पर निर्भर करता था की अन्दर किसान की बहु है या जमीदार की बहु बेटी ?या की जमीदार का मनोरंजन करने वाली कोई पार्टी |मै अपने अन्दर इस अंदाज़ से छुपाता की कोई परिंदा भी झाक नही सकता था |समय बीतता गया आवागमन के साधन बदले और मै सिर्फ़ एयर कन्डीशन । गाडियो में नीले रंग में छटा बिखेरने लगा |हा अस्पतालों में मुझे एक सा सम्मान मिला चाहे वह सरकारी अस्पताल हो या पॉँच सितारा होटल जैसा अस्पताल हरे रंग ने मुझे अलग पहचान दी ,इस रंग में इंसानों के दुःख को अन्दर से महसूस किया और उनके दुःख का सहभागी बना इसीलिए उन्होंने मुझे कभी अलग नही किया |
पॉँच सितारा से मुझे याद आया होटलों में मेरे विभिन्न रूप रहे है छोटी होटल से लेकर बडी होटल में मुझे कई आकार प्रकार में सजाया गया पर वहा मेरी उपयोगिता का कोई महत्व नही था मै एक माडल की तरह सजावट का सामान ही रहा |
हा घरो में विविधता से मेरा प्रयोग होता रहा पर्दे का बजट नही होने से कभी पुरानी धोतियो पुरानी सादियो से भी मैंने कई घरो की लाज ढापी है |कभी तो 'टाट की बोरी 'से अन्दर की एक भी साँस को बाहर नही आने दिया है |भले ही मै निर्जीव हुँ, पर मेरी उपस्थति हमेशा सजीवता का अहसास देती है |
अभी भी मै कही पर जरूरत हुँ तो कही पर सजावट !
खिड़कियों में आज भी मेरी उतनी ही महता है जितनी कवियों को विचारो की |
इधर कुछ सालो से टेलीविजन (माफ़ कीजियेगा मुझ पर टी। वि का कुछ ज्यादा ही असर है )की शतिर बहुए मेरा गलत उपयोग कर रही है मेरी आड़ में बड़े बड़े षड्यंत्र रच रही है जिससे मुझे बहुत दुःख पहुंचा है ,ये गाँव में थी तो इनक्के बाथरूम में मैंने ही इन्हे शरण दी |आज ये मुझे ही 'यूज ' कर रही है ये तो बडे बडे राजनीतिज्ञों को भी मात दे रही है मेरी आड़ में |
भई धर्मेन्द्र मेरी आड़ में छुपे थे और शर्मीला टैगोर ने गीत गया था (अबके सजन सावन में )चुपके -चुपके फ़िल्म वो बात और थी वो कहानी की मांग थी तब मुझे खुशी भई हुई थी ,पर आज क्या करू ?नाटक वालो को देखिये बरसो से मेरा उनका साथ है |उनके बिना मेरा कोई वजूद नही और मेरे बिना उनका कोई वजूद नही उन्होंने मुझे शिखर पर पहुचाया है स्टेज बी
पर्याय बन चुका है आज भी मै जब लाल रंग के मखमली रूप में स्टेज को ढकता हुँ तो कुर्सी पर बैठने वाले हजारो दर्शक मुझे प्यार से निहारते है और अदर के कलाकार मुझे लाख धन्यवाद देते है की मै उनकी अस्तव्यस्तता को दर्शको के सामने पेश नही करता |
मुझे गर्व है की मैंने अपने साये में कई महापुरुषो को जन्म दिया है ,मेरे पीछे भले ही सिनेमा और टी.वि। में बडे बडे अपराधो को ,षड्यंत्रों को अंजाम दिया हो पर वो तो अभिनय मात्र है |तभी तो कहते है छोटा परदा ,बड़ा पर्दा |पर वास्तविक जीवन में चाहे कान का पर्दा हो ,चाहे आंख का पर्दा हो ,चाहे बहु के घुघट का परदा हो ,या घर का परदा हो मेरा अस्तित्व कभी नही मिटेगा |
अभी तो मेरा भविष्य उज्जवल है ,मै करोडो का मुनाफा देता हुँ ,मेरे पीछे कई कहानिया छिपी है ,आपको मुनाफा कमाना है तो आइये खिचिये मुझे बार बार, कभी बंद कीजेये ,कभी खोलिए ,मै हुँ आपके साथ |
परन्तु याद रखना ऐ मुझे लगाने वालों जिस तरह बंद मुठ्ठी होती है लाख की और खुली होती है खाक की ...............

Tuesday, May 19, 2009

श्रद्धा और प्रार्थना

स्वामी विवेकानंद जब विदेश यात्रा से लौटे और उनसे पूछा गया कि अमेरिका के वैभव अवम भोतिक सम्रद्धि को देखने के बाद उन्हें भारत कैसा लगता है ,तो वे तत्काल बोल उठे "पहले मै भारत से प्रेम करता था ,लेकिन वह अब मेरे लिए पुण्यभूमि हो गया है तथा इसका प्रत्येक धूलिकण मेरे लिए तीर्थ बन गया है |"

प्रार्थना के बारे में उनका कहना था -
मनुष्यत्व के लिए प्रार्थना ही भारतवासी की सर्व श्रेष्ठ प्रार्थना है,"हे गौरीनाथ !हे जगदम्बे!मुझे मनुष्यत्व दो !माँ ,मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो ,माँ मुझे मनुष्य बना दो |
साभार
मातर दर्शन

Friday, May 15, 2009

एक विनती नेताओ के नाम


कल चुनाव के रिजल्ट आ ने शुरू हो जावेगे |कुछ दिनों में जोड़ -तोड़ के सरकार भी बन जावेगी |चुनाव के दोरान इतना कुछ लिखा जा चुकाहै |पता नही जिनके लिए लिखा जाता है उन तक शब्दों गूंज पहुचती भी है ?
एक विनती है ब्लागर भाइयो से ,बहनों से अगर नेताओ से जान पहचान हो तो कृपया यह विनती उन तक पहुँचाने का कष्ट
करे|


मैंने कही पढा है जब एक व्यक्ति सेप्यार करते है ,तो उसे प्रेम कहते है और जब समूह से प्रेम करते है तो वह 'धर्म '
बन जाता है
शायद इस धर्म से क्रांति आ जाय |और देश शान्ति पा जाय |



क्या ही अच्छा हो ,
नेताजी रेल के सामान्य दर्जे में
यात्रा करे

क्याही अच्छा हो,
नेताजी रेल वे प्लेटफोर्म
पर लगे नल से पानी पिए

|
|क्या ही अच्छा हो
नेताजी रसोई यान का
भोजन करे |

क्या ही अच्छा हो
नेताजी नेता टैप के कपडे
पहनना छोड़ दे |

क्या ही अच्छा हो
नेताजी दिल्ली के
बंगले में रहना छोड़ दे |

क्या ही अच्छा हो
नेताजी अभिनेताओ से
दोस्ती करना छोड़ दे |

क्या ही अच्छा हो
नेताजी अपने बच्चों को
नगर पालिका के स्कूल में
दाखिला करवा दे|


और

क्या ही अच्छा हो
नेताजी
काम करना शुरू कर दे |

लोकतंत्र में नेता
राजा नही ,
जनता के सेवक है

और
सेवक का तो यही धर्म
निर्धारित है |

प्रजा

Thursday, May 14, 2009

राम के नाम पर

राम कथा चल रही थी
रामजी को तो
वन में भेज दिया
कथाकार ने ,
बाकी कि कथा पर
नाचने लगे लोग |

रामलीला चल रही थी
दशहरे पर |
रामजी को तो भेज दिया ,
आयोजको ने
रावण को मारने
यहाँ लीला को देखकर ,
झूमने लगे लोग |

एक बुजुर्ग की
बड़ी मुद्दत से तमन्ना थी
रामराज्य बनाने की ,
रामजी को तो बैठा दिया
मन्दिर में ,
उनके रथ में बैठकर
राज्य करने लगे लोग |

शोभना चौरे

Monday, May 11, 2009

अपनी बात


ब्लॉग पढ़ते ,अख़बार पढ़ते हुए ,टी .वि .देखते हुए एक ही समाचार या एक ही विषय आजकल कॉमन है बेटियों या महिलाओ पर अत्याचार टी वि देखकर तो ऐसा लगता है मानो लडकी न हुई कोई कीडा हो गया बस मसल दोहो सकता है कुछ प्रदेशो में अज भी ये सब चला अ रहा हो पर उनको बढा चढा कर दिखाना क्या उसे और प्रोत्साहन देना नही है क्या ?और वो भी एक महिला के माध्यम से
एक तरफ तो लडकिया सिविल सर्विसेस में अव्वल अपना मुकाम हासिल कर रही है ,दूसरी तरफ कई कन्याये धरती पर आने के लिए सघर्ष कर रही है लेकिन आज भी बहुत से घरो में बेटियों को लाढ प्यार से पालकर उनको उच् शिक्षा देने के लिए माँ बाप प्रयत्नरत है और तो और सुदूर विदेशो में पढ़ने और नोकरी करे को भेज रहे है ओर उससे प्रेरणा लेकर कई परिवार अपनी लड़कियों के बारे में सोचने लगे है
मेरा khneका आशय है सभी घरो में एक सा नही होता बाबा दादी अपने पोते पोते के साथ ही उतना ही प्यार अपनी पोती से भी करते है अज जब सबके ब्लॉग पढ़ने लगती हुँ तो मन की स्म्रतियों से धूल हटने लगती है मुझे अपनी विदाई का समय याद आता है आज के ३५ साल पहले का उस साल रेलवे और ट्रांसपोर्ट और बस की राष्ट्र व्यापी हडताल थी ,उस समय मधयम वर्गीय परिवारों के पास कोई कार नही हुआ करती थी तो मेरी बारात बैल गाड़ी से आई थी चूँकि गाँव से बारात आई थी .इसलिए बैलगाडी का अच्छे से प्रबंध हो गया था बढिया पर्दा लगी गाडियों सादे ढग से शादी हुई थी तब के जमाने में इतना ताम झाम नही हुआ करता था, मेरे पिता प्रोफेसर थे ओर हम चार बहने ओर एक भाई मै उनमे सबसे बड़ी थी
जब मेरी विदाई हुई सब लोग बहुत रोये थे दादा दादी,छोटे दादा दादी चाचा चाची पूरा परिवार मै विदा हो चार दिन बाद जब पग फेरे के लिए मै आई तो देखा दादी बीमार है ,सबने बताया मेरे जाने के बाद दादी को अपनी पोती के जाने का इतना दुःख हुआ की वे तुंरत ही बेहोश हो गई उनको अस्पताल ले जाना पडा तब गाँव में कोई फोन तो नही होते थे जिससे ख़बर दी जाती मेरे वापस आने पर दादी फ़िर ठीक हो गई उनको मुझसे बहुत लगाव था कई बार वो मेरे साथ मुंबई में भी रही
ऐसी पोतियों को चाहने वाली भी दादिया होती है न की पोती के पैदा होने पर मातम मनाने वाली दादी
औरमेरा विश्वास है की लड़कियों को प्यार करने वाली तोदादी होती है पर हम उनके निगेटिव चरित्र को ज्यादा महत्व देकर अपने समाज में हमारे द्वारा ही गढ़ी हुई कमियों को ज्यादा उजागर करने में लगे है

Saturday, May 09, 2009

"उनकी माँ '

आँगन के नल पर
ढेर बर्तन धोती हुई माँ |
आज भी कुए से
पीने का भरकर लाती माँ |

घर के पिछवाडे
उपले थापती माँ |

गैस की टंकी
कुछ दिन और चल जाय ,
इसीलिए
चूल्हे पर रोटी सकती माँ |

रगड़ रगड़ कर मेरी कमीज को
सफ़ेद झग करती मेरी माँ |

मै पढ़ लिख कर बडा आदमी
बन जाऊ
उसके लिए अनेक व्रत उपवास
करती हुई मेरी माँ |

सर्दियों में कई बार
रात को मेरा लिहाफ
मुझे ओढा कर
मेरा माथा सहलाती मेरी माँ |

सुदूर गाँव से
रोटी की तलाश में आई
तीन पत्थर के चूल्हे पर
रोटी सेककर खिलाकर
मजदूरी पर निकल जाती है
उनकी माँ |

दिन भर उसकी ग्रहस्थी की
रखवाली करते
तीनो भाई बहन
रास्ते मे आने जाने वाले
मन्दिर का प्रसाद दे जाते
साँझ को खुशी से
माँ को प्रसाद देते
प्यार से सीने से
लगा ले लेती उनकी माँ |

महिला दिवस पर
चाहे कोई अवार्ड
न मिला हो
फ़िर भी मेरे लिए ,
उनके लिए
महान है,
हमारी माँ ........................

Thursday, May 07, 2009

मास्टर का बेटा

सिक्का तभी चलता है,
उस पर जब "नाम " होता है |
रचना भी तब छपती है ,
जब नामी "नाम "होता है |

पैसा भी तभी आता है ,
जब" पैसा "पास होता है |

आपने देखा है ?


'भिखारी भी अपने कटोरे में
सुबह से कुछ रेजगारी
और
कुछ नोट डालकर ही
काम पर निकलता है |
'पुजारी "भी आरती में
कुछ रेजगारी और कुछ
बडे नोट
डालकर अपने माथे पर
टीका
लगाकर बैठता है |
मंत्री का बेटा , मंत्री
संत्री का बेटा, संत्री
वकील का बेटा ,वकील
डाक्टर ,का बेटा डाक्टर
बना जब मेहनत करके ,
"मास्टर का बेटा डाक्टर "
तो उसकी पहचान ही खो गई ............

Tuesday, May 05, 2009

दुःख सुख




मैंने अपने दुःख को
सार्वजनिक करके ,
और दुःख मोल ले लिया
मैंने अपने सुख को भी ,
सार्वजनिक करके
और दुःख ही मोल ले लिया
जब तक अपना दुःख न ,बताया था
बहुत सुखी थी
जब तक अपना सुख न ,बताया था
बहुत दुखी थी
मुझे मालूम न था ?
मेरे दुःख को बताने से ,
तुम इतने सुखी हो जाओगे
मै कबसे तुम्हे अपना दुःख बता देती
मुझे ये भी मालूम न था ?
मेरे सुख से तुम इतने दुखी हो जाओगे
मै खामोश ही रहती ....
क्योकि मै तुम्हे दुखी नही देख सकती -------
(इमेज सोर्स - एह्जोह्न्सों .कॉम)