Monday, July 20, 2009

रेल की पटरी

सूर्य देवता फिर अपने नियत समय पर आगमन कर चुके थे .उनकी रश्मिया चारो और छा गई थी | बाहर की हलचल साफ सुनाई देने लगी थी| दूध वालो कि सायकिल की घंटिया अपने चिर परिचित अंदाज में चहकने लगी थी |
अख़बार वाले कि घंटी कि आवाज सुनकर सीमा गैस बंद कर मुख्य दरवाजा खोलने आई ,दरवाजा खोलकर अखबार उठाकर उसने दरवाजा खुला ही रहने दिया सोचा! अभी तो दूध वाला आएगा? और अखबार पढ़ने बैठी ही थी कि,
विशाल आँखे मलता हुआ बाहर आया .और सीमा के हाथ से अखबार ले सीमा को चाय लाने का कहकर सोफे पर पांव पसारकर अखबार पढ़ने बैठ गया |अखबार पढ़ते पढ़ते उसकी नजर बाहर के खुले दरवाजे कि तरफ गई |उसने जोर से सीमा को आवाज लगाई और कहने लगा कितनी बार तुम्हे कहा है? दरवाजा खुला मत छोड़ा करो ?पर सुनता कौन है ?बाहर वालो को कैसे मालूम पडे ?कि हमारे घर में हेमा मालिनी रहती है ?और उठकर दरवाजा टिका दिया |सीमा आई और चुपचाप चाय रखकर चली गई, उसने कोई जवाब नही दिया, वः तो ऐसी बातो कि आदी हो गई थी रसोई में जाकर उसने जल्दी से परांठे बनाये विशाल का टिफिन भरा अपना टिफिन भरा इतने में ही सासू माँ का स्वर सुनाई दिया;
अभी तक मेरी चाय नही बनी क्या?
सीमा फटाफट उनको चाय का कप दे आई |तब तक फिर से विशाल कि से जोर- जोर से आवाज सुनाई देने लगी ,मेरे सारे सहयोगी कार से आते है एक मै ही हूँ ?जो ससुराल के इस फटीचर स्कूटर से ऑफिस जाता हूँ ,सोचा था फ्लैट नही तो कम से कम अपनी इकलौती बेटी को कार तो देगे ससुरजी |
पर अपनी ऐसी किसमत कहाँ ?इतने में विशाल कि माँ भी बेटे कि हाँ में हाँ मिलाने आ बैठी |विशाल नहाकर तोलिया लपेटकर कपडे ढूंढ़ते उसने फ़िर सीमा को आवाज दी ,मेरे कपड़े कहाँ है ?सीमा फ़िर अपना हाथ काम छोड़कर आई उसने चुपचाप कपड़े निकालकर विशाल के सामने रख दिए |उसे अपने पति की रोज की इस दिनचर्या की आदत हो गई थी |उसने जाते जाते इतना कहा -नाश्ता टेबल पर रखा है, मेरी बस निकल जायेगी मै जा रही हूँ |
बाहर आकर माजी से कहा आपका खाना ,नाश्ता सब टेबल पर रखा है !खा लीजियेगा |
माजी भी तैयार ही बैठी थी सीमा को प्रसाद देने -सोचा था बहु आएगी तो सेवा करेगी पर यहाँ तो सुबह से शाम तक अकेले ही घूरते रहो दीवारों को ?और सारे घर की रखवाली करो |अरे कार नही तो कुछ रोकडा ही दे देते ?या नौकर रख देते ??दहेज मे भी बस कुछ बर्तन और वो ठीकरा देकर छुट्टी पा लिए ,इससे तो शर्माजी की बेटी आती तो मुह मांगी रकम तो मिलती सावली थी तो क्या?रूप रंग तो थोड़े दिनों का होता है |
इतने में फोन बज उठा -सीमा बाहर पांव रख भी न पाई थी की विशाल जोर से बोल चिल्लाया अरे! फोन तो सुनती जाओ शायद तुम्हारे पूज्य पिताश्री का हो ?तुम कितनी तकलीफ में हो ,कहकर ये जानने के लिए फोन किया हो ?मै तो हेल्लो कहूगा तो फोन रख देगे? या उपदेश देना शुरू कर देगे || |सीमा ने कभी अपने घर की बात पिता के घर में नही की| कितु उन लोगो का व्यवहार देखकर वो अच्छी तरह जान गये थे, किस प्रक्रति है ये लोग ?
उसने फोन उठाया ,और बात की उसके चेहरे पर चिता की रेखाए उभर आई |
उसने कहा -मै आ रही हूँ
विशाल बोला- अभी तो तुम्हे देर हो रही थी और अब कहाँ जा रही हो ?क्या कहा ?किसका फोन था ?
सीमा जिसने कभी पलटकर जवाब नही दिया था -खडी हो गई ठीक विशाल के सामने और उसकी आँखों में आँखों में डालकर बोली -पिताजी ने कहा है -मैंने रेलवे में एक बोगी का आर्डर कर दिया है 1तुम्हे दहेज में देने के लिए किन्तु
जिनके पास रेल चलाने पटरी होगी उन्हें ही मिल सकती है? वो बोगी |तो दामादजी से कहना पटरियों का इंतजाम कर ले |
इतना कहकर तेजी से सीमा बाहर निकल गई उसे अस्पताल जाना था, जहाँ अभी अभी उसके पिताजी को लेकर गये थे क्योकि उन्हें दिल का दौरा पडा था .....................

13 टिप्पणियाँ:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

marmik katha, ek taraf dahej lobh, dusari taraf petrik bhavna. jo sandesh aap dena chahti he, vo yakeenan is katha ke madhyam se ham sabko mil rahaa he/
vecharik star par aour sochne ke kaabil...katha saakaar hoti he/

प्रिया said...

Sahi kaha amitabh ji ne marmik katha .....man ko choo gai

बाल भवन जबलपुर said...

शोभना जी
सार्थक आलेखन
इस में छिपा भारतीय
समाज आगे कब आयेगा ?

राकेश कुमार said...

शोभना जी,

भारतीय समाज की एक विक्रिति कहून्गा, जहा दहेज लोभियो द्वारा एक स्त्री के साथ ऐसा बर्ताव किया जता है, मार्मिक चित्रण , बधाई आपको.

राकेश

गौतम राजऋषि said...

एक झकझोरती कहानी मैम...हम सब की आस-पास की जिंदगी का एक क्रूर सत्य

निर्मला कपिला said...

मार्मिक लघु कथा जैसे को तैसा कुये बिन अब लडकियों का गुज़ारा हे नहीं सीख देती एक सुन्दर रचबा के लिये बधाई

k.r. billore said...

sau sunar ki ek luhar ki ,jis din estri himmat ke sath jabab dene kabil ho jaygi samaj me aamul parivartan ki shuruwat ho jayegi ......kamana mumbai......

Mumukshh Ki Rachanain said...

मगन मरण समान है, ये बात कब समझ आएगी?
लोभ आखिर कब तक मनुष्य की कमजोरी बना रहेगा?
दहेज़ की परिपाटी को आखिर कब तक झेलना होगा?
समाधान भी क्या है?
जब कि
* सबको शार्टकट कि आदत पद गई,
* प्रेम भी स्वार्थपरक हो गया है ,
* आदमी को बदलते देर नहीं लगती,
* आदमी के हिंसक होने में देर नहीं लगती,................
.....................................

गहन भावों से युक्त कहानी पर हार्दिक बधाई.

स्वप्न मञ्जूषा said...

शोभना जी,
बहुत ही सार्थक कथा रही यह, हमारे अपने समाज की विषम विकृति को उकेरती हुई मार्मिक कहानी..
आशा है लड़कियां इससे सबक लेंगी..
बहुत ही अच्छी लगी आपकी रचना..
बहुत बधाई..

दिगम्बर नासवा said...

बहूत ही मार्मिक कहानी........... हमारे समाज का जीवित बिंब रख दिया है आपने..........

Aakash Polra said...

"कि" की जगह "की" होना चाहिए-
..बाहर की हलचल साफ सुनाई देने लगी थी| दूध वालो की सायकिल की घंटिया...

शोभना चौरे said...

aakashji
dhnywad .

daanish said...

sashakt lekhan
sashakt abhivyaktee
saarthak prayaas
swasth sandesh

abhivaadan svikaareiN.
---MUFLIS---