Wednesday, February 09, 2011

"विघटन "कहानी

"विघटन "

माँ धीरे धीरे अपनी उमर से छोटी से छोटी होती जा रही है .८० की होने को है किंतु व्यवहार में ऐसा लगने लगा है मानो २० -२१ वर्ष की हो |माँ का यह रूप मै सपने में भी नही सोच सकती हुँ |सदैव अपने सिमित साधनों में संतोष पाने वाली सात्विक विचारो को अपना ध्येय मानकर उन पर अमल कर चलने वाली .माँ !
अपने ५४ वर्ष के जीवन में मैंने कभी भी माँ को , कही से कुछ मांगते हुए किसी की तुलना करते हुए नही पाया |अचानक यह परिवर्तन देखकर खीज भी होती उन पर क्रोध भी आता |दया की मूर्ति ,अपने कारण किसी दूसरे को कष्ट हो सदैव उसी में ध्यान रहता और इसी स्वभाव के कारण सरे परिवार वालो में अपने मूल अधिकारों से भी वंचित रह जाती |शुरू से सम्मिलित परिवार में नन्द देवर की जिम्मेवारी को खुशी खुशी निबाहने वाली माँ को अचानक अपनी बहु से कैसी प्रतिद्वंदिता की भावना गई उठते बैठते मेरी सोच का विषय बनता जा रहा था |

जैसे ही मै शाम को स्कूल से घर आई घर का वातावरण कुछ बोझिल सा लगा | ही भाभी ने चाय को पूछा ,माँ के कमरे में झाककर देखा तो असमय ही माँ चादर ओढ़कर सो रही थी ,ये समय तो उनका बत्ती बनाने का होता है बैठे बैठे माँ रुई की बत्तिया बनाती ,पूरे परिवार में सबके घर में सुबह शाम पूजा घर में माँ के हाथ की बनी बत्तियों के ही दीप जलते |
बड़ी बुआ की बहू बेटिया तक माँ के हाथ की बनी हुई बत्तियों के लिए आग्रह करते जैसे ही बत्तियां ख़त्म होने को आती फोन पर ही आर्डर कर देती मामी बत्तिया ख़त्म होने को आई पापा कुछ कम से एक दो दिन में आपके घर आने वाले है बत्तिया भिजवा दीजियेगा |पिछली बार बाज़ार से लाकर जलाई थी तो मन्दिर काला सा होने लगा ,आपकी बनाई बत्तियां आपके हाथो की तरह ही नरम होती है माँ यह सुनकर दुगुने उत्साह से सैकडो बत्तिया बना डालती | फोन पर ही कहती -हाँ हाँ ! क्यो नही?क्यो नही ?
मैंने इतनी बत्तिया बना रखी है की सालो तक तुम्हे खरीदनी नही पडेगी अगर मै नही भी रही तो भी!
और फ़िर सबके हल चाल पूछने बैठती |बुआ से बात शुरू होती तो फ़िर फोन रखती ही नही ,
मै कहती माँ फोन रखो! उनका बिल बढ़ता ही जा रहा है इतने में तो वो बाज़ार से बत्तिया खरीद लेगी |तब नकली गुस्से से फोन रखती और कहती तुम क्या जानो हमारे मन की बात और ढेर सारा रुई लेकर मंद मंद मुस्कुराते हुए बत्तिया बनाने बैठ जाती |उनका सब काम नियमित होता इसी से इस उम्र में भी उन्हें किसी की जरुरत नही होती अपने सारे काम स्वयम करती खाने में बिकुल संयमित रहती कितना भी आग्रह करो माँ समोसे अच्छे है ,बच्चे कहते दादी पित्जा खालो ?चखो तो सही ? भइया आफिस से आते समय कभी गर्म कचोडी लाते पर माँ कभी भी नही खाती |उनका विघटन सुबह दाल रोटी और शाम को दलिया का नियम बरसो से चल रहा है ,घर में कितने ही पकवान बनते वो ख़ुद हीत्योहारों पर पारम्परिक व्यंजन बहुत मेहनतसे बनाती ,पर कभी भी मुह तक झूठा नही करती उनको कहो तो एक ही जवाब होता -तुम्हारे बाबूजी ने जाने के १५ दिन पहले से कुछ नही खाया था,वे इतने खाने के के शोकिन थे !मै भला कैसे खा सकती हुँ?
हम सब निरुत्तर हो जाते |

मुझसे घर की खामोशी बर्दाशत नही हो रही थी मै रसोई में गई, गैस पर चाय का पानी चढाया और वहीँ से भाभी को पूछ बैठी ?भाभी खाने को कुछ है ? मुझे बहुत भूख लग रही है ,मुझे मालूम था मेरी आवाज माँ के कमरे तक भी जावेगी ?मै ये भी जानती थी मुझे भूख लगी है यह सोचकर माँ कभी भी नही आएगी शुरू से ही अपने बच्चो का खाने का उतना ध्यान नही रखती जितना अपने नन्द देवर और भांजे भांजियों का रखती ,फ़िर मेरा ध्यान रखने को भाभी जो है ?
माँ कभी मेरे लिए विचलित नही होती ,जैसे ही मैंने भाभी को आवाज दी माँ तुंरत ही उठाकर गई और कहने लगी-
मेरी बेटी थकी मंदी आई है ख़ुद ही चाय बनाकर पि रही है |किसी को इतनी भी गरज नही ?की ख़ुद तो दिन भर घर में आराम से रहती है मेरी बेटी दिन भर बाहर भी खटे और घर में भी खटे ?लाओ बेटी मै बना दू ?
मै माँ के इस अप्रत्याशित व्यवहार पर चकित होकर शर्म से पानी पानी हो रही थी |मेरी वजह से भाभी को को यह सब सुना रही थी |पिछले दिनों से मै देख रही थी भाभी के लिए साडी आती तो माँ भी कोशिश में रहती उसी तरह की साडी लेने की चाहे कही| जाना हो या नही ?पर्स के लिए भी इधर उधर कह कर माँगा लेती|अनजाने में ही वो भाभी के सामान की तुलना स्वयम के सामान से करने लगती |पहले बिना फाल पिकू के ही साडी पहनती पर अब तो जब तक फाल पिकू हो जाता (चाहे वो साडी पहनना हो या पहनना )उन्हें चैन नही पड़ता| पह्ले धुली साडी को गद्दे के नीचे रखकर संतुष्ट हो जाती और अब जब तक धोबी को सबसे पहले अपनी साडी दे देती उन्हें बैचेनी सी ही रहती |
मै विचारो में ही खोई थी की भाभी की आवाज़ से मै चोकी मैंने उनको देखा -उनका चेहरा तमतमाया हुआ था साथ ही वो कुछ कुछ बोले जा रही थी मुझसे आँखे मिलते ही उनकी आवाज और तेज हो गई |
एक दिन चाय नही बने तो कोनसा पहाड़ टूट पड़ा ,मै कोनसा दिन भर पलंग तोड़ती हुँ दिन भर घर का सारा काम करो सबका ध्यान रखो ,मैंने तो किसी को कमाने को नही कहा --मानो सारी भड़ास उन्होंने आज ही निकाल ली |
इतने में भइया की स्कूटर की आवाज आई !
मैंने भाभी से हाथ जोड़कर कहा -भाभी प्लीज़ आप चुप हो जाइये मुझे आपसे कोई शिकायत नही ?बेमतलब भइया परेशान होगे ,वैसे ही उन्हें आफिस में कम टेंशन है क्या ?
मै हाथ पकड़कर उन्हें कमरे में ले गई |
फिर अपने स्वभाव के विरूद्व माँ पर बरस पडी !
माँ घर में क्यो अशांति फैला रही हो ,भगवान के लिए ऐओसा कुछ मत करो जिससे यह घर टूट जाए |
उस समय तो सब कुछ थम गया पर एक अद्रश्य दीवार सबके मन में खीच गई |
सुबह मै जब स्कूल जाने के लिए तैयार होकर निकलने लगी तो देखा माँ अपना बैग भरकर तैयार बैठी थी |
ओह ?यह माँ की योजना थी इस तरह की अपनी जिद पुरी करने की ?पिछले कई दिनों से माँ की एक ही रट थी मुझे अब यह नही रहना है ,मै अपने गाँव वाले घर में रहूगी ,मेरी पेंशन का पैसा है मै चाहे जैसा खर्च करू |
पिछले २० सालो से कितनी पेंशन आती है ये तक नही मालूम?दबे स्वरों में कई बार भइया ने मना भी किया माँ वहा सारी व्यवस्था लगानी होगी इस उम्र में तुम्हे,चूल्हे पर खाना बनाना होगा ?
परन्तु माँ तो आज तैयार बैठी थी भइया से कहा मुझे रिक्शा ला दो ,नही तो आज की बस लिकल जायेगी |
इतने में फोन की घंटी बजी !मैंने फोन उठाया तो उधर से राधा मौसी अपनी मीठी सी आवाज में बोल उठी -
बेटी -कोशल्या गाँव के लिए निकल गई या नही ?
मै जो कल सामान देकर आई थी वो वो रखा या नही ?
अच्छा तो ये बात है -राधा मौसी ने ही ये बीज बोए है ?
उधर से हेलो हेलो की आवाज आती रही मैंने रिसीवर रखा , थके कदमो से माँ के पास आई और कहा -जब रामजी का वनवास नही रुका तो तुम्हारी बस कैसे चुकेगी ?
आख़िर मौसी ने मन्थरा का रोल बखूबी निभाया |
ये सोचते हुए माँ से कहा --आओ मै तुम्हे बस बस तक छोड़ दू ..............







bhi

17 टिप्पणियाँ:

राज भाटिय़ा said...

ऎसी मंथरा हर घर या मोहल्ले मे परिवार मे होती हे, अब क्या करे, बहुत सुंदर कहानी, अच्छा हे थोडे दिन मां को इस मंथरा मासी के पास रहने दो फ़िर देखो...
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं.

वाणी गीत said...

अच्छा खासा घर कान भरने वालों द्वारा बर्बाद हो जाता है मगर मैं सोचती हूँ की उनके रिश्तों में कोई तो गैप होगा वर्ना कैसे कोई दूसरा इसमें घुस सकता है !

anshumala said...

कहानी नहीं वास्तविकता है | मेरी एक मित्र के साथ बिल्कुल ऐसा ही हो रहा है वहा भी मौसी ही मंथरा की भूमिका निभा रही है बस फर्क ये है की सास तो है नहीं इसलिए छोटी ननद को ही भड़का रही है | खुद मै भी ऐसी कई स्त्री के साथ ही पुरुष रूपी मंथराव को भी अपने आस पास देखती हूं |

rashmi ravija said...

बिलकुल सच्ची सी लगी कहानी ...कितने ही घरों का सत्य व्यक्त करती हुई....जो महिलाएँ/पुरुष अपने बच्चों के साथ अच्छी तरह नहीं निभा पाते, दूसरों की ख़ुशी देख जल जाते हैं और फिर जोड़-तोड़ में लग जाते हैं कि कैसे किसी सदस्य को उकसा कर, उस घर की शान्ति भंग कि जाए.
बढ़िया कहानी

shikha varshney said...

घर घर की कहानी ..हर घर में एक मंथरा मिल ही जाती है..
बहुत अच्छी कहानी.

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (10/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com

ZEAL said...

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दूसरों के बहकावे में आकर अनेकों घर बिखर रहे हैं। ऐसे में विवेक और धीरज ही साथ देता है। कहानी पढ़कर मन बहुत उदास हो गया ।

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ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

कहानी घर घर की सच्ची कहानी है

Sushil Bakliwal said...

वाकई, घर-घर की कहानी...

Girish Kumar Billore said...

जी बेहद आवश्यक कथा

Sadhana Vaid said...

वास्तविकता और यथार्थ के बहुत करीब आपकी कहानी परिवारों के विघटन की सच्ची तस्वीर है ! अत्यंत संवेदनशील और धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों में ऐसे अप्रत्याशित परिवर्तनों को होते हुए मैंने भी देखा है ! आपकी कहानी पढ़ कर दिल भर आया ! इतनी सुन्दर कथा के लिये बधाई एवं आभार !

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

चुग़ली के घुन की सच्ची दास्तान शोभना दी!समझमें नहीं आता कि समझते बूझते भी लोगों की आँखों पर पर्दा कैसे पड़ जाता है और खुशियों में घुन लग जाता है!!

अजित गुप्ता का कोना said...

पता नहीं कभी-कभी बुढापे में क्‍या हो जाता है? घर-घर का यही राग है। छोटी-छोटी बातों से लोग अपने सुख में ही आग लगा लेते हैं।

Anonymous said...

घर घर का सच बयान करती सी कहानी. मंथराओं की क्या कमी है दुनिया में. अत्यन्त संवेदनशील रचना

ABHIVYAKTI said...

riston mein darar aati hai toh karna hamari nasamjhi hai
aur umar beet jati hai samjh paida karne mein
beautiful!!!

Manoj K said...

घर परिवार के सदस्यों में अब विघटन जैसी स्थिति उत्पन्न हों रही है...
प्रवाहमयी कहानी..

मनोज

प्यार की कहानी said...

Ek Achhi Kahani Ka Prastutikaran Aapke Dwara. Thank You For Sharing.

प्यार की स्टोरी हिंदी में