Tuesday, December 18, 2012

मेरा शहर ,तुम्हारा शहर

सबके  अपने शहर होते है ।
कुछ सामने होते है ,
कुछ यादो में रहते है ।

चमकती बिन्दियों के सुनहरे पत्तों में
एक अदद  लाल   गोल "माथे की बिंदी "
खोजती रही  मै ,मेरे शहर में .....

सैकड़ो   तरह  की सजी  मिठाइयों के बीच 
कागज की पुडिया  में बंधे "पेड़े " की मिठास 
खोजती रही  मै , मेरे शहर में ....

मन्दिरों में बजते डी .जे .के शोर में ,,
घंटियों की सुमधुर  ध्वनि  और" हरे राम" की धुन 
खोजती रही मै, मेरे शहर में ....

मोबाईल फोन , लेपटाप की दुकानों की बाढ़ में 
मेरे बच्चों के बचपन का पुस्तकालय 
खोजती रही मै मेरे शहर में ....

अतीत क्या कभी बूढ़ा होता है ?
खोजने की जरुरत नहीं  
मेरा शहर "मार्डन  "  हो गया है 
मेरे पोते पोतियों (ग्रेंड चिल्ड्रेन )की तरह ।










9 टिप्पणियाँ:

वाणी गीत said...

समय अपनी गति से बदलता ही है !

प्रवीण पाण्डेय said...

जगहों को कालरोग लगा है, सब बदल रहे हैं।

Apanatva said...

yatharth darshan.....
aap bangalore aae to bataiyega....
pichalee vaar aapse maine baat kee par aap ne fir phone nahee kiya......Navratri chal rahee thee......

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

दीदी,
यहाँ आपने एक अद्भुत तुलनात्मक तस्वीर प्रस्तुत की है.. सचमुच इन्हें खोकर ही हमें पता चलता है कि हमने क्या खोया है!!

Alpana Verma said...

बहुत गहरे से महसूस किया है इस बदलाव को आप ने..कुछ बदलाव मन को बहुत दुःख देते हैं ....सच!शहरों के चेहरे बदल गए हैं.

भावों की सफल अभिव्यक्ति.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...


सबके अपने शहर होते हैं
कुछ सामने होते हैं
कुछ यादो में रहते हैं ...


मर्म छूने वाली रचना लिखी है आपने ...
आदरणीया शोभना चौरे जी

अपने अतीत को याद कर के हम सब भाव-विह्वल हो उठते हैं ...

आपकी रचना के बहाने कितनी बातें... कितने पल...
कितने खोये हुए ख़ज़ानों की यादें ताज़ा हो गईं !

सुरेन्द्र का गाया एक सुनहरा गीत जो दरअसल मेरे स्वर्गीय बाबूजी के ज़माने का था, अचानक याद हो आया ...
क्यों याद आ रहे हैं गुज़रे हुए ज़माने
ये सुख भरे फ़साने
रोते हुए तराने
किसको सुना रहे हैं क्यों याद रहे हैं ... ...


शुभकामनाओं सहित…

Anonymous said...
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Ankur Jain said...

सुंदर प्रस्तुति
नववर्ष की हार्दिक बधाई।।।

Anonymous said...
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