Friday, March 14, 2014

भरत कि आस्था





  मुझे राजनीती में कोई रूचि नहीं  है शुरू से ही, न ही कभी रूचि ली ,किन्तु आजकल टी वि पर, फेस बुक पर वही  रंग बिखरा है तो कुछ छींटे हम पर भी पड़  गए अब थोड़े छीटे पड़े है तो लगता है कुछ समझ भी आने लगी है ?शायद सत्ता का इससे सीधा संबंध है । छोड़िये भी कहा? मैं और कहाँ भारत कि राजनीती? सूर्य को चिराग दिखाने जैसा ही होगा  ?इधर कुछ खास काम  नहीं होने से जब भी खाली  रहती हूँ अपनी थोड़ी सी किताबो को झाड़ लिया करती हूँ झाड़ते झाड़ते उन्हें पढ़ते पढ़ते झाड़  पोंछ आधी  ही रह जाती है, उसी क्रम में आज दादा कि किताब "धुंधले कांच कि दीवार "पढ़ना शुरू किया तो उनका यह ललित निबंध "भरत "मन को छू गया और लगा कि आज भी कितना प्रासंगिक है .यह किताब सन १९६६ में प्रकाशित हुई थी।
प्रश्न जब सर उठाते है -
इस शीर्षक में दादा ने राम ,सीता और भरत को अपनी भावनाओ में पिरोकर विषय को रेखंकित किया है -
                                          "   भरत "
राम के वन में चले जाने  के पश्चात् शोकमग्न और हड़ताल ग्रस्त अयोध्या में आकर भरत सोचते है कि ,--"आखिर यह सब देखना भी मेरे भाग्य में बदा था . जिस व्यक्ति ने स्व्प्न में भी राज्य कि इच्छा नहीं कि ,जिस व्यक्ति ने पिता कि तरह अपने बड़े भाइयो का सम्मान किया ,जिस व्यक्ति ने अपनी माँ और सौतेली माँ में भेद नहीं जाना और जिस व्यक्ति को महलो में रहकर भी ऐश्वर्य कि भूख छू तक नहीं गई उसी के नाम पर यह सब नाटक खेला  गया !
बहुत कुछ सोचने पर भी मैं समझ नहीं पाता ,कि जिस घर में सदा शांति रही ,जहाँ माता से भी बढ़कर पिता कि आज्ञा मानी गई ,जहाँ छोटे बड़ो का सम्मान करते आये जहाँ बड़ो से छोटो को स्नेह मिलता आया ,जहाँ किसी वस्तु तो दूर ,किसी विचार तक को लेकर किसी के चेहरे पर शिकन तक न आई वहाँ यह सब हुआ . कैसे ?किशोरावस्था में भी भाइयो के बीच  कभी लड़ाई नहीं हुई उन्ही भाइयो के बीच" युवराज पद "के लिए विवाद होगा ,इस "विषाक्त अंकुर" का जन्म कहाँ से हुआ ?
         कुछ लोगो का कथन है कि पिता के द्वारा दिए गये वचनो के कारण ही यह दिन देखने को मिला !लेकिन उन वचनो को दिए हुए तो एक अरसा हुआ ,जिस माँ के मन में उन्हें भुनाने के लिए ऐसा हल्का विचार आ सकता है ,उसमे  उसे इतने दिनों तक छुपाने का गांभीर्य कहा से आया ?
            कुछ लोगो का मत है कि दासी के कहने से माँ कि मति मारी  गई !लेकिन जो एक संस्कार सम्पन्न घराने कि राजरानी रही ,जिसे एक आदर्श पति कि पत्नी आदर्श पुत्र कि माता और आदर्श परिवार कि गृहणी होने का गौरव प्राप्त हुआ हो ,उसका एक तुच्छ दासी के बहकावे में आना कहाँ तक न्याय संगत है ?
    इसी बीच एक विचार उनके दिमाग में बिजली कि तरह कोंध जाता है और वे गुनगुनाते  है --

"अरे मैं  भी कैसा पागल हूँ ,एक साधारण सी बात मेरे समझ में नहीं आई ,जिस घर को आदर्श घर बनाने में परिवार ने कोई कसर न उठा रखी  हो उसी घर में" सत्ता "का एक "विषवृक्ष" भी फलता फूलता आया है !उसकी छाया तले सभी सुख और संतोष अनुभव करते आये ,लेकिन उसके विषाक्त फलो कि और किसी ने ध्यान नहीं दिया ?कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी अपनी भूख पर विजय प्राप्त कर सकता है" सत्ता कि भूख "पर विजय पाना मुश्किल है । सो अपने घर के आँगन मेंउसी खूबसूरत से दिखने वृक्ष में जब " युवराज पद "का  फल लगा ,तो" राजमाता "खलने कि इस सर्वभक्षी भूख ने ही ममतामयी माँ कि मति को हर लिया | यदि इसका शीग्र इलाज नहीं किया तो समुचा  परिवार छिन्न भिन्न हो जाने  वाला है "|
           और तभी उनकी आँखों में राजसिहांसन को ठुकराकर वन कि रह जाते हुए भगवान राम कि नंगी पगथलियों का चित्र छा जाता है और वे गीली आँखों उन्ही कि खोज  करते हुए वन कि रह चले जाते है |
     कहते है उन्ही पादुकाओं को लेकर उन्होंने भारतवर्ष  की डूबती हुई परिवार व्यवस्था को बचा लिया था  ।
-पंडित रामनारायण उपाध्याय
"धुंधले कांच कि दीवार "


5 टिप्पणियाँ:

P.N. Subramanian said...

अब तो युग ही बदल गया है.भरत को हम सभी ढून्ढ रहे हैं

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अच्छा विवेचन है दीदी! आजकल तो भरत बनकर लोग पर्वेश करते हैं और राम बनने के सपने पालते हैं! राजनीति अब अनीति ही तो रह गई है और हम सभी इस कल (machine)युग के हिस्से!!

प्रवीण पाण्डेय said...

सत्ता और धन का लोभ समाज और परिवार को लील जाता है।

अजित गुप्ता का कोना said...

सत्ता को लोभ ही समस्‍त पापों की जड़ है।

Ankur Jain said...

लोभ को पाप का बाप ऐसे ही नहीं कहा गया...सुंदर प्रस्तुति..होली की शुभकामनाएँ