"किताबों की खिड़की "
ये कैसी बयार चली है?
की किसानों की किसानी
लापता सी हो गईं है।
सुनते है रोजगार नहीं है
क्योंकि
मनपसंद नौकरी की पड़ी है।
किताबों के गाँव किताबों
में ही रह गए है,
अब गुड़ मॉर्निंग ने
प्रभाती की जगह ले ली है।
गोधूलि बेला रील की
हमसफ़र हो गईं है।
बिजली के ढ़ोल, नगाड़े
लील गए
मंदिर की सुरीली
घंटियों को,
बिखरे थे नेकी के चटक रंग
लालच की आंधी में
धुंधले हो गए है।
यादों में थी कलकल बहती नदी
अब
बरसात में,
बरसाती नदी भी
सूखी हो चली है।
3 टिप्पणियाँ:
सुन्दर रचना
आपने बदलते वक़्त की हालत को इतने सच्चे अंदाज़ में दिखाया कि हर लाइन चुभ जाती है। बिलकुल सही है कि कैसे किताबों की महक, गांव की मिट्टी और पुराने रीति-रिवाज़ धीरे-धीरे पीछे छूट रहे हैं। लोग नौकरी के नाम पर घर-आंगन की पहचान तक भूल रहे हैं।
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