Wednesday, July 23, 2008

कागज के फुल


शब्दों के पाँव नही होते ,
भावनाओं के बल पर चलते है
संवादों की आहट नही होती ,फ़िर भी बरसते रहते है
अहसासों की प्रतिद्वंदिता में ,
जीवन स्पन्दित होने लगा है
मुसुक्राहते केमरे की केद होकर रह गई है
जीवन के स्थपित मूल्य दिखावा बनकर रह गये है
करेले को शक्र की चाशनी चढाकर ,
परोसने में माहिर हो गये है
नेस्र्गिक फुल अब हमारे बस में नही ,
बेजान फूलों को सजाने में,
अपनी क्षमता का दोहन क्र रहे है

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