Monday, August 18, 2008

वर्तमान

खामोश रास्ता पार करते हुऐ,
टूटन का एहसास न हुआ
पर भीड़ भरी सड़क पर
टूट सा गया मै |
पक्षियों के कलरव ने तो ,
चुप्पी ही तोडी है
मगर तुम्हारी एक साँस ने
राहगीरों की आत्मा झिझोडी है |
सपने यथार्थ नही होते ,
कहते है
पर यथार्थ
सपनों में होता है |
कौआ अपनी आदत से परेशान
न चाहकर भी झपटकर
रोटी ले उड़ना ही अब बन गई ,
उसकी पहचान
बँगलो की समर्धि ,
गलियों की कानाफूसी
नुक्कड़ की बेगारी,
गाँवो की
चोपालो को ,
समरसता के सूत्र में पीरो गई
टेलीविजन की देखने की क्षमता |

1 टिप्पणियाँ:

Anonymous said...

I really liked your poems and they touched my heart. Feels like didi is sitting in front of me and reciting the poem! Also very proud that you have a blog and are keeping with the times. Would have liked to post in Hindi but was unable to find the link to do so.

Keep the articles and poems coming! Good luck.

--Chhaya Kesheorey, Bangalore