शरीर और जीव का द्वंद अविराम चलता ही रहता है ,यह द्वंद हम पर कितना हावी है .हम शरीर के इतर कुछ सोच ही नही पाते है हमारी भावनाओ के नियंत्रण में आकर रह गया है ,जीव इससे परे सोचता है| शारीरिक भावनाए सामाजिक रिश्तो पर आधारित होती है,रिश्ते मान्यताओ पर आधारित होते है मान्यताये हमने तुमने ही गढ़ी है फ़िर जीव तो कोई बंधन में नही है उसे तो बाहर आना ही होगा ,इन सबसे और इस द्वंद से उबरना ही होगा .कुछ सालो पहले स्वामी विवेकानंद इस द्वंद से बाहर आए थे ,और उन्होंने अपने गुरु श्री रामकृष्ण 'परमहंस 'की 'जीव सेवा 'इस वाणीको क्रियान्वित कर सारे विश्व को आलोकित किया था,जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है और आलोकित हो रही है ।
शोभना चौरे
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