बहुत सालो पहले शायद २० साल पहले मैंने यह व्यग्य लिखा था कही भी प्रकाशित नही हुआ था |उस समय सत्ता में परिवर्तन की लहर चली थी और उसी से प्रेरित होकर लिखा लिखा था |आज कितना प्रासगिक है आप तय करेगे |
इधर कुछ सालो से मेरे देश में परिवर्तन की एक लहर सी चली है ,फ़िर वो परिवर्तन चाहे सत्ता में हो ,समाज में हो या फ़िर मुझमे ही हो ?देश में तो परिवर्तन की लहर ही क्यो ? समझो आंधी ही आई और इस आंधी ने सारी सारी सत्ता को ही परिवर्तित कर डाला और यह परिवर्तन बडा सुखद है ऐसा लोग कहते है ?कितु क्या आपने उस परिवर्तन को देखा है ?जिसने समाज के स्वरूप को ही बदलकर उसे कितना कुरूप बना दिया है ?आपसी संबंधो और रिश्तो की पहचान ही ख़त्म हो गई है |अपनापन प्यार ममता सब कुछ स्वार्थ और दिखावापन की भेट चढ़ गये है |तभी तो बेटो के रहते माँ बाप को वृधाश्रमो का सहारा लेना पड़ा |कभी जिन बुजुर्गो से घर की बैठक आबाद होती थी ,आज उन्ही को ड्राइंग रूम में प्रवेश न करने की हिदायते दी जाती है
और यह परिवर्तन की ही देन है की जिन पालकों ने हमे एक खुशनुमा मुकाम तक पहुचाया वाही आज बोझ समझकर हमारे द्वारा सिर्फ़ ढोए जा रहे है |
जिन बच्चो की किलकारियों से घर का कोना कोना गूंजता था उनका बचपन छीनकर उन्हें सुदूर होस्टलों में भेजकर उसके भविष्य को सुरक्षित रखकर उसे आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी जाती है |
चाहे वो माँ बाप के प्यार को तरसता अनेक बुराइयों की ओर ही क्यो न अग्रसर हो जाय | और ये सब परिवर्तन के नाम पर ही होगा न ?क्योकि जिन स्कूलों में पुरानी पीढी ने शिक्षा ली है उनका वो स्टेंडर्ड ही कहाँ रहा अब ?
फ़िर मेरे देश में मेरे समाज में ऐसा परिवर्तन आया की न किसी की आह निकली न ही किसा का दिल पसीजा क्योकि पहले कुछ बहुए जलाई जाती थी, अब तो कुछ के आकडे चोगुने या फ़िर आठ गुने होते चले गये और मेरा ये समाज मौन साधे इस घ्रणित परिवर्तन को स्वीकार करता चला गया ,क्योकि कही न कही, थोड़ा न थोड़ा प्रत्येक इन्सान के मन में दहेज का लालच चाहे वो उपहार ही क्यो न हो?विद्यमान रहता है |और उसकी निमित्त बनती है बहुए !क्योकि वः दुसरे की बेटी होती है |
पहले तो कन्या को जन्म होते ही मार दिया जाता था परन्तु परिवर्तन अब इतना की गर्भ में ही भ्रूण के रूप में ही उसको समाप्त कर देते है |इसके लिए हम आधुनिक चिकित्सा विज्ञानं के आभारी है की न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी |
और साहब मै तो परिवर्तन की आदी हो गई हूँ |जीवन की हरेक दिशा में परिवर्तन लाने में की जैसे मुझे धुन सवार हो गई है|
अपने लंबे बालो को मैंने छाँट लिया है ,साडी जिसे पहनने में मुझे तखलीफ़ होती है और फ़िर बरसो से मेरी दादी नानी साडी पहनती आई है , आख़िर इसे तो मुझे बदलना ही होगा ?और परिवर्तन के नाम पर मैंने अपनी सम्पूर्ण गरिमा को महज तथाकथित आधुनिका बनने के चक्कर में खो दिया |परन्तु लाख कोशिश के बावजूद भी मै अपने रुढिवादी विचारो और न ही अपनी संकुचित मनोवृति और स्वार्थी आदतों में परिवर्तन नही ला सकी |वैसे भी कहते है !मनुष्य की आदते कुत्ते की पूंछ सी होती है चाहे उसे कितना ही सीधा करो वो टेढी की टेढी ही रहेगी ,ठीक उसी प्रकार देश में कितने भी अच्छे परिवर्तन आ जाय ,मेरा निजी लालच स्वार्थ और स्वांग कभी भी परिवर्तित नही होगा |यही स्वार्थी मन आदते और संकुचित मनोवृति विनाशकारी परिवर्तनों को जन्म देगी |
विशेष नोट ;महानुभावो ,ये तो थी मेरे देश में परिवर्तन की छोटी सी" तस्वीर" आप चाहे तो इसे इनलार्ज करके अपने ड्राइंग रूम में लगा सकते है और बारीकिया देखकर उन्हें नज़र अंदाज न करके उसमे परिवर्तन लाने का प्रयत्न करेगे |
धन्यवाद
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8 टिप्पणियाँ:
Samkalin priprekshya men accha likha apne...sarthak post.
"युवा" ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
परिवर्तन !!
शायद जीवन का पर्याय ही परिवर्तन है..
बहुत ही सटीक और सार्थक लेख...
याद भी दिलाती है आपकी रचना हमने भी तो कुछ ऐसा ही किया बच्चों के साथ..
पता नहीं अच्छा है या नहीं ...
बहुत अच्छा लिखती हैं आप..
आप बहुत अच्छा लिखती हैं...यह व्यग्य आज भी प्रासगिक है....
आपका लेख आज भी सार्थक है........... ये परिवर्तन बहूत जरूरी है.......... चलते रहना परिवर्तन का ही नाम है
आपका लेख आज भी प्रासंगिक है । हम भी तो कितने बदल गये हैं । सब कुछ दिखावा, बनावट । ह्रदय से निकलती ही नही कोई बात । आपकी बात मानकर तसवीर को इनलार्ज कर लिया है ।
परिवर्तन यूँ तो सदा ही अच्छा लगता है पर वह ठीक है या नहीं , उसपर आनेवाला समय ही अपनी मुहर लगाता है. वैसे भी , जो चीज़ टिके न समय के साथ, वो ठीक हो भी नहीं सकती...........
lekh achcha hai
जितने लोग ऐसे लिख पढ़ रहे हैं वो भी अगर इस तरह के परिवर्तन से बचे रह सकें तो, बात बन जाए
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