गुलाबी गुलाबी ठण्ड शुरू
हो गई है हाथ खोलने के दिन गये
हाथ बांधने के दिन आगये |पॉँच बजते ही सूरज देवत अपना रूप समेटने लगते है , मजदूरों के जलते चूल्हे साँझ की झुरमुट में सूरज की जगह ले लेते है |और तभी मन में कुछ ख्याल आने लगते है |
अब आई है ठण्ड
अपने पंख फैलाकर
घर की चोखटे सजी है
धुप के टुकडो से |
दादी बैठी खटिया पर ,
मालिश का तेल लेकर |
दादाजी कम्बल ओढे बैठे है ,
टी वी के सामने |
नन्हा पानी को देखकर ,
सर पर रजाई ओढ़कर
फ़िर सो गया |
पापा टी वी के सामने बैठकर ,
हाथ में पेपर लेकर
चाय पर चाय गुड़क रहे है |
दीदी फटाफट तेयार हो गई है
कॉलेज जाने के लिए
माँ फिरकनी सी
कभी पराठे सेंकती ,कभी हलवा बनाती |
तरस गई है
, कुनकुनी धुप के लिए
मै कब तक बचूंगा ,
पढाई करने के बहाने बैठा रहकर,
नहाकर नही गया तो ,
क्लास के बाहर कर दिया जाऊंगा,
तब बरामदे से फ़िर ठंडी हवा
मेरे कानो को चूमेगी,
इससे अच्छा है
मै इस ठण्ड का स्वागत
कर लूँ
उसके पंखो को छूकर \
Saturday, November 07, 2009
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21 टिप्पणियाँ:
आपने कोमल कोमल .... इतवार की सर्दी की सुहानी सुबह की याद ताजा कर दी ...........
बहुत ही सुन्दर रचना है ........
मॉं का आंचल, किसी भी स्कूल से ज्यादा सिखाता है।
घर की चोखटे सजी है
धूप के टुकड़ों से
----------------
माँ फिरकनी सी
--तरस गई है
कुनकुनी धूप के लिए..
वाह!
इस रचना में रेखाचित्रनुमा वक्तव्य सयास बांध लेते हैं, रोमांच पैदा करते हैं।
शोभना जी ,
सर्दियों का खूब स्वागत कर रही है आपकी रचना .
कुंकुनाती धुप का भी आनंद मिला...बधाई
शोभनाजी,
दरवाज़े पर दस्तक दे रही शीत के स्वागत में लिखी आपकी यह कविता रोमांचित करती है ! सुन्दर शब्द-चित्र !
साभिवादन--आ.
सर्दी के आगमन का बहुत ही सुन्दर चित्रण कर दिया आप ने कविता में !
एक चलचित्र की भांति है यह कविता.
बहुत सुन्दर!
बहुत सुंदर रचना, लेकिन हमारे यहां तो खुब सर्दी हो रही है, रुम हिटर भी चलते है, ओर बर्फ़ भी एक बार गिर चुकी है, लेकिन आप की कविता ने भारत मी कुन कुनी धूप याद दिला दी.
धन्यवाद
शीत की कुनकुनी धूप का स्वागत इस गुनगुनाहट के साथ ...लाजवाब ...!!
Shobhana ji ye rachana pad ker bahut maza aagaya .
kya likhatee hai aap ....
घर की चोखटे सजी है
धुप के टुकडो से | ati sunder
jaade ki gungunahat aur har rishton ka taana-bana, mujhe sihran se bhar gaya
क्या खूब रचा है मैम...क्या खूब!
मैं तो अभी-अभी कश्मीर वादी की ठिठुरन से निकल कर आया हूं अपने गांव...पूरी तस्वीर खींच दी आपने इस मोहक कविता में।
हम लोग जहाँ रहते है वहाँ अभी शुरुआत नही हुई है ठंड की इसलिये गत वर्ष की अनुभूतियो से काम चला तहे है अब आपकी कविता भी इसमे जुड गई ।
aapne mujhe mere bachpan ke din yaad dilaa diye, bas kuchh isi prakaar ka to hota tha..vah kya din the/ ynha..naa to thand hoti he naa kuchh esa ehsaas/
दादी बैठी खटिया पर ..pata nahi vo khatiya ab kabhi banegi ki nahi ya dikhegi ki nahi..jo aatmaanand prapt karati thi, pitaji ko bunate dekhta tha... ab in palango me vo sukh nahi..
मालिश का तेल लेकर ..vah..maa deti thi maalish ka tel..aour sardi ki us pyaari si lagne vali dhoop me me maalish nahi karta to maa pakad kar bethaa leti..bas yahi to chaahata tha..maa maalish kare.., uff aapne to meri aankhe hi nam karaa di un dino ki yaad dilaa kar..
aapne to ghar ka scene create kar diya......ye jeeti jagti, chalti firti si rachna bahut pasand aayi
जाडे का अहसास करा गयी ये गुनगुनी कविता..बहुत सुन्दर.
सुंदर शोभना जी । भारत की सर्दी का चित्र खींच दिया आपने ।
सर्दी पर ही एक रचना मैने भी पोस्ट की है ।
aapki is rachana se bachpan me padhi rachna yaad aa gayi ,jada aaya ,jada aaya ,thandak ne yah hame bataya ,jaada aaya ....
sardi ke mausam se judi hui har baat ki tasvir khich di .sundar rachna .
जाडे का अहसास करा गयी ये गुनगुनी कविता..बहुत सुन्दर.
बहुत सुन्दर!
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