
गर्मी में
लदी है मोगरे की डालियाँ
गर्मी में
फैली है, हर तरफ
आमो की खुशबू
तरबूजो की ,खरबूजो की
बहार है
लीची ,शहतूतो ,जामुनो की भरमार है
फिर भी
हाय गर्मी ,हाय गर्मी
कहते हुए हम बेहाल है |
इस साल बहुत गर्मी है, जब भी किसी से मिलते है ?तो प्रार भिक बातचीत के बाद यही एक जुमला होता है |अरे भाई साल दर साल इतनी ही गर्मी होती है हाँ ये बात अलग है की टी वि पार रोज चढ़ा हुआ पारा देखकर हमे ज्यादा गर्मी का अहसास होने लगता है औरहो भी क्यों न ?बाजारवाद हम पार हावी जो हो चला है |और इस बाजारवाद ने हमारी सहनशक्ति को ही लील लिया है |बिजली के उपकरणों के बिना हम जीना ही भूल गये है |किसी समय में हर मध्यम वर्गीय घर में एक अदद टेबल फेन होता था जो किसी मेहमान के आने पर लगाया जाता था \धीरे धीरे छत के पंखे आये ,फिर कूलर और अब तो बिना ए .सी के गुजारा ही नहीं |

जमीन से लगा पौधा और उसमे फूल ही फूल |
अगर बिजली चली जाय तो छोटे छोटे बच्चे सो ही नहीं पाते |और गाँव में ये आलम है की बहर खुले में भी लोग कूलर चलाकर सोते है (अगर घंटा दो घंटा बिजली रही तो )|१० साल पहले भी ४५ डिग्री पारा था २० साल पहले भी और रिकार्ड बताते है की ५० साल पहले भी इतना ही पारा रहता था तब भी लोग काम करते थे अब भी करते है फर्क इतना है की अब सुविधाओ में रहकर ही काम किया जा सकता है |प्रकृति अपने नियम से ही चलती है ये अपने उपर है की हम उसे कितने सामान्य ढंग से जीते है |इस पर मुझे एक लोक कथा याद आ रही है जो मेरे दादाजी अक्सर हमे बचपन में सुनाया करते थे |
गर्मी की छुट्टियों में पूरे दो महीने गाँव में ही बीतते थे उस समय कोई समर क्लासेस नही होती थी और चाचा ,बुआ मामा के सभी भाई बहन एक साथ रहकर आम ,तरबूज इमली के चटखारे लेना ,मिटटी के खिओलोने बनाना घर के काम करना और बस मस्ती करना |तब भरी दोपहर से हम सबको बचाने के लिए बैठक में दादाजी हाथ में पंखा लिए ये कथा कहते |
एक बूढी माँ गंगा के किनारे रहती थी अपनी झोपडी बनाकर |गर्मियों में सूत काटती चरखा चलाकर ,जड़ो में स्वेटर बुनती बरसात में गोदाड़ियाँ सिलती और कभी कभी खेत में भी मजदूरी करने चली जाती |सुबह शाम भगवान की आराधना करती |
साधू संतो को भोजन कराती दीन दुखियो की सेवा करती |बरसो तक उसका यही क्रम चलता रहता चाहे कितनी बरसात हो कितनी ही गर्मी ही कितनी ही ठण्ड हो |भगवान राम उसकी इस दिनचर्या से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सोचा चलो आज मै की परीक्षा ली जाय ,वो साधारण इन्सान का भेष बना कर माँ की कुटिया में गये ,माँ ने उन्हें आदर के साथ बैठाया जलपान कराया |
फिर रामजी ने माँ से पूछा ?
क्यों माई ?
खूब धूप पड़ रही है ,सूरज आग उगल रहा है तुम यहाँ कैसे रह पाती हो ?तुम्हे तकलीफ नहीं होती क्या ?
माँ ने जवाब दिया -क्यों भैया धूप नहीं पड़ेगी तो बादल कैसे बने गे और बादल नहीं बनेगे तो बरसात कैसी होगी ?
और ये भी तो भगवान की ही देन है |
फिर रामजी ने माँ से पुछा ?
फिर तो बरसात में तुम को बहुत परेशानी होती होगी गंगा जी में तो बहुत पानी भर जाता होगा? तुम्हारी झोपडी मेभी पानी भर जाता होगा चारो और कीचड ही कीचड ?
माँ ने प्यार से कहा -भैया बरसात नही होगी तो किसान अन्न कैसा बोयेगा धरती में ?फिर हम सब क्या खायेगे ?
और मेरी झोपडी का क्या ?जहाँ पानी टपकता है बर्तन रख देती हूँ मुझे कितनी जगह चहिये सोने को ?और गंगा माँ को भरपूर देखकर जो आनंद मन में उठता है उसकी तो तुम कल्पना भी नहीं कर सकते |
फिर रामजी ने पुछा ?
सर्दियों में तो बहुत ठण्ड लगती होगी ?नदी का किनारा है |
मै फिर उमंग से बोली बेटा -सर्दियों में बर्फ नही जमेगी तो गंगा मै में पानी कहाँ से आवेगा ?और पानी नहीं होगा तो भाप कैसे बनेगी भाप नहीं बने गी तो बरसात कैसे होगी?फसल कैसे होगी ?
देने वाले श्री भगवान
इस पर भगवान प्रसन्न होते है औरमाँ को दर्शन देकर उस झोपडी की जगह महल बना देते है |
किन्तु बूढी माँ की दिनचर्या फिर भी वही रहती है |
अब माँ के पडोस में एक और बुढिया रहती थी उसने माँ का महल देखा तो माँ से पूछने लगी? रातो रात ये चमत्कार कैसा हो गया ?
माँ ने सहज भाव से कहा रामजी आये थे किरपा कर गये |
बस फिर क्या बुढिया सुबह शाम रामजी की मूर्ति पर जल चढ़ाती ,अगर भूले भटके में कोई आता तो उसे भगा देती मेरे घर में कुछ नही है ,दिन भर खटिया पर पड़ी रहती और मुझे महल दे दो , मुझे महल दे दो रटा करती |
रामजी ने सोचा ?चलो कैसे भी हो मेरा स्मरण करती है दर्शन दे ही दू ?
रामजी गये बुढिया के घर
पूछा ?और माँ क्या हाल है ?
अरे भाई मत पूछो ?पसीना निकल रहा है ,न कुछ खाने को है ?न कुछ पीने को ?
मै तो तुझे पानी भी नहीं पिला सकती |
आग लगे इस गर्मी को |
फिर रामजी ने पुछा ?फिर तो तुमको बरसात में अच्छा लगता होगा पानी ही पानी ?

खीजते हुए बुढिया ने उत्तर दिया |
तब तो जाड़े में बहुत अच्छा लगता होगा ?रामजी ने पुछा ?
अरे कहा ठंड के कारण अकड जाती हूँ कोई पानी देने वाला भी नहीं रहता |
और बुढिया ने रामजी से कहा -अरे भाई जाओ न क्यों मेरा माथा खा रहे हो /
मुझे महल दे दो , मुझे महल दे दो जपने लगी!
रामजी ने कहा -मै तो महल ही देने आया था पर उसमे भी तुम्हे तकलीफ होगी ,इसलिए तुम ऐसे ही रहो |और झोपडी भी चली गई और रामजी अन्तर्धान हो गये |
तो जैसे ठूंठ का अपना सौन्दर्य होता है ,फिर गर्मी तो हमे बहुत कुछ देकर जाती है साल दर साल फिर हाय गर्मी क्यों?