Sunday, July 18, 2010

"नीम की डाली "कहानी

आज जैसे ही सुबह रसोई में आई सुमित्रा ने देखा -रीमा ने प्रियम का टिफिन तैयार करके रख दिया था |सुमित्रा कोआश्चर्य हुआ ! बजे प्रियम को आफिस जाना है और .३० बजे ही टिफिन तैयार |उसने भी कुछ नहीं पूछा और अपनेलिए चाय बनाने लगी ,जैसे ही उसने गैस जलाई पीछे से रीमा आई और सुमित्रा को कंधे से पकड़कर बड़े प्यार से कुर्सीपर बैठा दिया और कहने लगी -मम्मीजी आप आराम से बैठिये मै आपकी चाय बना कर लती हूँ |सुमित्रा भी सोचनेलगी मेरे ऐसे भाग्य कहाँ ?की सुबह उठते ही मुझे चाय तैयार मिल जाय रसोई में भी कुछ करना नहीं है ,बहू ने भी खानेकी सारी तैयारी कर ही ली है चाय बनाते बनाते ही रीमा वहां से कहने लगी -मम्मीजी आपकी और पापाजी की रोटियाबना कर रख दी है \आपको कुछ भी नहीं करना है बस दिभर आराम करना है |
रीमा जानती है पापा ठंडी रोटी नहीं खाते फिर क्यों ?बना डाली रोटिया ?सुमित्रा ने सोचा, फिर विचारो को झटक दियाऔर खुश हुई चलो मुझे और समय मिल जावेगा आज मै अपनी अधूरी पेंटिग पूरी कर लूंगी |और प्रियम के पापा भीठंडी रोटी खाने की आदत डाल लेंगे |
सुमित्रा अपनी चाय लेकर अपनी अपनी पेंटिग पूरी करने के इरादे से अपने कमरे में पहुँच गई |
पेंटिग करते करते वो सोचने लगी यह काम ख़त्म करके छुटकी को नहला धुलाकर तैयार कर दूँगी उसे खाना खिलाकरदिन भर उसके साथ खेलना ,उसकी छोटी छोटी मुस्कानों के साथ बड़ी बड़ी ख़ुशी मिलना ,कितना अच्छे से समयनिकल रहा था मानो जीवन में फिर से बहार गई हो ?
प्रियम के पापा जब रिटायर हुए थे तो सुमित्रा यही सोचती थी परेशान होती थी की कैसे कटेगा आगे का जीवन ?दोनोंबच्चे दूर अपनी अपनी नौकरी के कारण बस गये थे |हमारी सारी रिश्तेदारी यही छोटे से शहर में थी ,प्रियम के पापातो कही जाना ही नहीं चाहते थे थे उन्हें तो अपने रिश्तेदारों से ही ज्यादा लगाव था पर सुमित्रा उन्हें छुटकी के मोह मेंपकड़कर ले आई थी ||नन्ही छुटकी (नमिता )जब तुतलाकर दादी कहती तो मानो सारा स्वर्ग उसकी गोद में सिमटजाता |नमिता के बचपन में अपने बच्चो का बचपन खोजकर सुमित्रा सुख से भर जाती |
मन ही मन कहती सुमित्रा -जब भोपाल वापिस जाउंगी तो पडोस वाली दीदी को कहूँगी आपकी बहू दुराव छिपाव करतीहोगी ?मेरी बहू तो मुझे हाथो हाथ रखती है |रसोई भी मेरे लिए पूरी की पूरी खुली है जो चीज चाहे इस्तेमाल करू ?
अलमारिया भी खुली है (हाँ ये बात और है की मैंने अलमारियो को कभी हाथ नहीं लगाया )अभी मुझे आये दिन ही कितने हुए है !एक महीना भी पूरा नहीं हुआ है |इतने दिनों में प्रियम की सारी पसंद की चीजे बना डाली रसोई में !रीमाकी पसंद की भी डिशेज बना डाली मै खुश थी! चलो रीमा को भी मेरे हाथ का बना खाना अच्छा लगा |और इसी उत्साहमें सुबह -सुबह उनके उठने के पहले दी दोनों का लंच और नाश्ता तैयार कर देती |पहले प्रियम जाता ,रीमा बाद मेंआफिस जाती |मेरे आने से रीमा को थोड़ी तो राहत मिली रसोई से और दुगुने उत्साह से शाम को खाना बनाने कीतैयारी में जुट जाती \
नमिता के साथ खेलना ,पेंटिग बनाना और बालकनी में लगे गमलो के पौधो को ठीक ठाक कर नए पोधे लगाकरसुमित्रा बहुत खुश हो रही थी |जीवन को जैसे पंख लग गये थे |
जिस बिल्डिंग में प्रियम का यः फ़्लैट था ठीक उसके सामने एक बहुत बड़ा नीम का पेड़ था और उसकी एक डालीसुमित्रा के बेडरूम की खिड़की के पास लहराती दिखती, सुमित्रा सोचती मेरी जिन्दगी भी ऐसे ही लहरा रही है |
बहुए इतनी अच्छी होती है ?बेकार में ही बड़ी दीदी (नन्द )अपनी बहू की बुराई करती रहती है की कैसे उनकी बहू कोउनका रसोई में आना बिलकुल भी पसंद नहीं था उनकी बहू अपने बच्चो की परवरिश में दीदी को कभी शामिल नहींकरती ऐसे व्यवहार करती मानो दीदी ने तो बच्चे पाले ही नहीं |तबसुमित्रा को भी भी बहुत दुःख होता और वो महसूसकरती शायद दीदी की भी कोई गलती होगी |और उन्हें ही समझाती |
पडोस वाली शर्मा भाभी आती उनकी शिकायत रहती की उनकी बहुए तो उनसे कभी बात ही नहीं करती ?
खाने के समय बच्चो को बुलाने भेज देती ?वैसे भी हमे तो कितना परहेजी खाना खाना पड़ता है|
शर्मा भाभी कहती !
और उससे भी ज्यादा परहेज हमसे हमारी बहुए करवाती है |नाश्ते के डिब्बे भरे रहते है पर क्या मजाल ?जो हमे प्लेटमें कभी दे दे |मेहमान आते टेबल पर नाश्ता लगा होता ,पहले ही बहुए कह देती मम्मीजी को तो ये सब चीजे मना है |
शर्मा भाभी रुआंसी सी हो जाती कहती -कितना नियंत्रण करे ?तुम्हारे भैया होते तो क्या हमारी हालत ऐसी होती ?
उनके सामने क्या बहुए ऐसी शेरनी होती ?सबकी परेड ले लेते ?आँखों में आये आंसुओ को पोंछते हुए कहती - सुमित्रादीदी -बहुए तो पराये घर से आई है !वे ऐसा करती है तो इतना दुःख नहीं होता ,पर मेरे पेट के जाये ही मेरे विरोधी होगये तो अपना दुःख किससे कहू ?
खैर सुमित्रा दीदी आप तो अपने बेटे के पास रहिये पर एक बात अभी भी कहती हूँ ?अपना घर बिखरने नहीं देना |
यहाँ की सूखी रोटी भी अमृत है |
फिर आपके साथ तो जीजाजी है तो ठीक है आप अकेली तो नहीं है ?
अच्छा चलती हूँ वरना उनकी (बहू की )आँखों में अनेक प्रश्न होंगे ?मुझे शर्मा भाभी पर दया आती और उनकी पसंद कीकोई चीज बनाकर उन्हें खिला देती |
आज सुमित्रा ने पेंटिग पूरी कर ली थी और सभी सामान समेट कर रखा |शाम की चाय लेकर वो बैठी और अपने पतिसे कहने लगी -सुनो जी मेरी इच्छा है की मै एक प्रदर्शनी लगाऊ ?मेरे पास काफी पेंटिग्स हो गई है |
मेहताजी ने पत्रिका में से सर निकालकर चश्मे में से आँखे तरेरते हुए कहा -अब इस उम्र में ये सब नाटक करोगी ?क्यातुम्हे बचपना सूझ रहा है ?पेंटिग बनाना तक तो ठीक है भई!घर में बैठकर अपना शौक पूरा कर लिया |अब क्याइनको लेकर दुकान लगाओगी ?
अपने बच्चो के साथ शांति से रहो |
ये सब फालतू बाते अब नहीं करना और दिमाग से भी निकाल दो इन्हें |
सुमित्रा की चाय का मजा ही किरकिरा हो गया ,वो चुपचाप नमिता को लेकर बालकनी में चली गई और नीचे खेलतेहुए बच्चो को देखने लगी या यू कहो?वहां जाकर अपने आंसू पोछने लगी \
सुमित्रा शादी के पहले से ही सुन्दर गाना गति थी उसने विधिवत शिक्षा भी ली थी पर मेहताजी के परिवार में इनसबकी कोई जगह नहीं थी फिर पेंटिंग उसका दूसरा शौक था |परिवार कुटुंब
की देखभाल में रंग और ब्रश कहाँ खो गये पता ही चला |कुछ सालो पहले एक टी वि कार्यक्रम से प्रेरित होकर उसनेअपना शौक आगे बढ़ाया तब भी मेहताजी ने काफी विरोध किया था पर इस बार उनकी दलीले ज्यादा काम नहीं करपाई थी
तब सुमित्रा ने उसे आगे बढाया और वो ज्यादा ही इन पेंटिग्स को लेकर उत्साहित हो चली थी |पर उसे क्या पता थाकी उसकी कला का इस घर में कोई क़द्र करने वाला नहीं है |फिर उसके मन में ख्याल आया की शाम को प्रियम से बातकरूंगी |शायद अपनी माँ के इस शौक को पूरा करने में वो उसकी मदद करे |और इसी आशा के साथ घर के सारे कामनिपटाने में जुट गई |आज उसने सबके लिए पानी पूरी बनाई थी |
रात सबने अच्छे से पानी पूरी और छोले भठूरे खाए |खाने के बाद सब लोग टी.वि .देख रहे थे तभी सुमित्रा ने सोचाअभी ठीक समय हैप्रियम से पूछने का ?क्योकि प्रियम के सामने उसके पापा ज्यादा बोल नहीं पाते ?
उसने प्रियं से पूछ ही लिया बेटे !मै सोच रही हूँ ये बड़ा शहर है क्या मै यहाँ अपनी पेंटिग्स की प्रदर्शनी लगा लू मैंने एकआर्ट गैलरी में बात भी कर ली है ?अभी १५ दिन के लिए गैलरी फ्री है |उसके बाद तो महीनों तक बुक है |
कमरे में ज्यादा उजाला नहीं था प्रियं और रीमा के चेहरे के भावो को वो देख नहीं पाई |परन्तु प्रियं ने इतना जरुर कहाहाँ माँ मै कोशिश करता हूँ ?इतने में ही सुमित्रा को बल मिला |
दुसरे दिन सुबह सुमित्रा के कमरे के बाहर निकलने के पहले ही रीमा ने खाना बना लिया था और टिफिन तैयार कररख लिए थे |
साथ ही प्रियम ने कहा - मम्मी आज शाम को आप खाना नहीं बनाना आज से खाना बनाने वाली बाई आवेगी |
सुमित्रा और खुश चलो !प्रियम ने मेरी बात को महत्व तो दिया शायद वो चाहता है की मै और समय का सदुपयोग करअपनी पेंटिग्स पूरी करू |
सुमित्रा दिन भर योजनाये बनती रही प्रदर्शनी लगाने की \शाम को प्रियं आया कितु उसकी ये पूछने की हिम्मत नहींहुई की बेटा -तुमने कुछ पता किया क्या ?
उसने सोचा दिन भर काम का टेंशन और अभी मैंने कल ही तो कहा है -दो चार दिन तो लगेगे ये सोचकर सुमित्रा भीसोने चली गई |ऐसे ही दो चार निकल गये | ?
- अब तो रोज ही रीमा खाना बना लेती साथ ही नमिता को भी नहला धुला कर तैयार कर देती बाकि काम के लिए भी बाई थी ही \शाम को भी कुछ काम नहीं होता सुमित्रा ने सोचा चलो आज सब्जी ही ले आऊ उसने मेहताजी को कहा - चलो थोडा घूम भी लेंगे और फल सब्जी भी ले आवेंगे |
मेहताजी ने कहा -नहीं तुम ही जाओ |
फिर सुमित्रा ने भी ज्यादा कुछ नहीं कहा -और अकेले ही चल पड़ी |
थोड़ी
देर बगीचे में बैठी रही |सब अनजाने लोग बस थोडा सा मुसुकरा भर देते मानो उसके भी पैसे लगते हो |
उसका मन नही लगा फिर सब्जी खरीदी और घर चल दी |दूसरी मंजिल पर ही घर था लिफ्ट आएगी उसके पहले ही मै पहुंच जाउंगी और थोड़ी सीढ़िया भी तो चढनी चाहिए ?अपने आपको इतना भी आरामी जीव नहीं बनाना यही सोचते अपने फ़्लैट के पास दम लेने रुकी तो देखा ! दरवाजा खुला है और रीमा और प्रियं के पापा चाय पी रहे है \दोनों की पीठ दरवाजे पर थी और आपस में बात कर रहे थे |रीमा की आवाज थी
पापाजी
आप मम्मी को रोकते नहीं है इस उम्र में ये इच्छाए ?और ये पेंटिग जो किसी को समझ नहीं आती ?कही गोल कही चोकोर /अरे फूल पत्ती हो तो /इन्सान हो तो बात भी ?और मुहं दबाकर हंसने लगी \और प्रियम के पापा उसकी बात का समर्थन कर रहे थे |
सुमित्रा के पैरो तले की जमीन खिसकने लगी थी उसकी कनपत्तियो में मानो आग सी लगी हो ?
किसी तरह अपने को संयत कर उसने घर में प्रवेश किया मानो कुछ सुना ही हो और रीमा से कहा - अरे बाप बेटी ही चाय पियोगे या मुझे भी पिलाओगे |
रीमा चहक कर बोली -अरे वाह! मम्मीजी आप तो इतनी अच्छी और ताजी सब्जी ले आई |
आप थक गई होंगी -मै आपके लिए अभी चाय बनाकर लाती हूँ |और सुमित्रा के हाथ से थैला लेकर चली गई |मानो कुछ हुआ ही हो ?मेहताजी सुमित्रा से आंखे चुरा रहे थे उसने भी नमिता को आवाज दी और गोद में उठाकर उसे प्यार करने लगी |
उसके जेहन में ख्याल आया कोई इतना अच्छा कलाकार कैसा हो सकता है ?
रंगमंच पर तो सभी एक्टिंग करते है उन्हें मालूम होता हैउन्हें मालूम होता है की हमे ये किरदार निभाना है वो उसमेरमकर उसे स्टेज पर जीते है |परन्तु उसके अपने घर की बगिया में ऐसा मंचन ?
शायद
ठीक ही तो है ,मैंने भी तो अभिनय ही किया ?मैंने क्यों नहीं रीमा और प्रियम के पापा की बातो का प्रत्युतर दियाशायद घर में कलह क्लेश हो ?
? इतने में रीमा चाय ले आई |मैंने उसे प्यार से धन्यवाद दिया और चाय पीने में लग गई |सुमित्रा ने सोचा अब प्रियम सेप्रदर्शनी की बात करना व्यर्थ है |
बात
करू या करू ?इसी पशोपेश में सुमित्रा ने तय किया रात के खाने के बाद प्रियम से बात करूंगी |
सुमित्रा
विचारो के भंवर जालमें उलझती जा रही थी मुझे इतनी सी छोटी बात के लिए रीमा को दोषी नहीं माननाचाहिए ? अभी छोटी ही तो है उसे अभी कहाँ जीवन का अनुभव है ?
मुझे
इतना विचलित नहीं होना चाहिए ?मुझमे यही कमी है! छोटी सी बात पर निर्णय लेने की क्षमता त्याग देती हूँमेरा स्वभाव ही ऐसा है की मै ज्यादा ही सोचती रहती हूँ |सुमित्रा की गोद मेही नमिता सो गई थी |उसने सोचा इसेरीमा के कमरे में ही सुला दू | इस बीच प्रियम भी गया था वह नमिता को लेकर रीमा -प्रियम के कमरे की ओर गईपर उसे बाहर ही ठिठक कर खड़ा होना पड़ा |रीमा प्रियम से कह रही थी मम्मी पापा और कितने दिन रहेंगे ?
| प्रियम ने कहा -जब तक उनकी इच्छा होगी रहेंगे |
मुझे
तो ऐसा लगता है जैसे वो अब सारी जिन्दगी यही रहेंगे तीखे स्वर में रीमा बोली ..
तुम
ही तो उन्हें हमेशा फोन पर कहती थी जाओ |सुमित्रा को वो सब याद हो आया !जब भी त्योहारों पर प्रियमरीमा भोपाल आते प्रियम कभी भी मुंबई आने को नहीं कहता |हमेशा रीमा ही घुमा फिराकर कहती मम्मी पापा हमारेपास भी रहने को आओ ?और मै उसके इस निमंत्रण पर गदगद हो जाती \
तुम्ही
ने तो उन्हें आग्रह करके बुलाया था |
वो
लोग सचमुच जावेंगे मैंने ऐसा थोड़े ही सोचा था और आजवेंगे तो यहीं जम जावेंगे क्या ?प्रियम की बात कारीमा ने जवाब दिया \
मैंने
उनका किचन में भी जाना बंद कर दिया, नमिता की देखभाल के लिए मै कर ही रही हूँ ,और अब ये पेंटिग काचक्कर चलाकर यही रहना \चिढ़कर रीमा बोले ही जा रही थी |
प्रियम
उससे कह रहा था धीरे बोलो -पापा मम्मी सुन लेंगे |
सुमित्रा
नमिता को लेकर अपने कमरे मेंआकर पलंग पर बैठ गई उसके आंसू थम ही नहीं रहे थे |उन्ही आंसुओ मेंदीदी ,शर्मा भाभी बार बार नज़र रही थी |उसके हाथ पांव सब सुन्न से हो रहे थे |उसने अपनी बी. पि .की दवाई लीऔर सोने की कोशिश करने लगी |
नमिता
को बगल में ही सुला लिया मेहताजी अभी भी आराम से टी.वि. देख रहे थे ,सिर्फ टूटन महसूस की थी सुमित्रा नेअपने ही विश्वास की |
सुमित्रा
पलंग पर लेटी थी -प्रियम कमरे में आया और नमिता को उठाकर धीरे से से पूछा ?
मम्मी
खाना नहीं खाएगी क्या आप ?
सुमित्रा
ने आँखे बंद किये ही जवाब दिया -नहीं बेटा आज भूख नहीं है |
अच्छा
|कहकर प्रियम नमिता को लेकर बाहर चला गया |
सुमित्रा
को लगा ये कमरा ,ये पलंग ,इस कमरे की हर वस्तु उसे डंक मार रही है ,और घड़ी की सुई मानो आगे ही नहींसरक रही है |
प्रियम
के पापा कब आकर सो गये उसे अहसास ही नही हुआ |उनके खर्राटो से जब सुमित्रा की तन्द्रा टूटी उसे प्यास सीमहसूस हुई पर आज सोने के पहले वह पानी नहीं लाइ थी पर उसकी इच्छा नहीं हो रही थी किचन में जाकर पानी पीनेकी
थोड़ी
देर में प्रियम के पापा ने पानी माँगा तो सुमित्रा को उठाना ही पड़ा पानी लाने के लिए |किचन से पानी लेते समयउसे ऐसा लग रहा था मानो वह बहुत बड़ी चोरी कर रही हो ?वह पानी लाई प्रियम के पापा को दिया परन्तु फिर भीउसने खुद पानी नहीं पिया |
जैसे
तैसे रात गुजारी सुबह उठकर नहा धोकर जैसे ही खिड़की के बाहर देखा :वह नीम की डाली अपनी शाखा से उखड़गई थी और उसके हरे से पत्ते पीले पड़ गये थे .................

28 टिप्पणियाँ:

Manoj K said...

bahut he umda rachna. sab kuch bada he natural. jo dikhta hai woh hamesha sach nahi hota... Regards. Manoj K

वन्दना अवस्थी दुबे said...

होते हैं, बहुत से बेटे-बहू ऐसे ही होते हैं. सुन्दर कहानी.

Unknown said...

मैं ना कहता था दीदी
आप के हाथों में जादू है
आप की कहानी पढ़ी मन गद-गद हो गया
एक मा की निस्वार्थ ममता को
आप ने कितन मार्मिक ढंग से चित्रित किया है
और साथ ही दो पीढ़ियों के विचारो के अंतर को भी...
सही कहा आप ने आज की पीढ़ी रिश्तों को
नफ्हा और नुक्सान के तराजू में ही तोलती रहती है भावनाएं ख़तम हो चुकी हें और सब ने प्रेक्टिकल सोचना सुरु कर दिया है
सयुंक्त परिवारों का विखंडन इस संकीर्ण मानसिकता का ही परिणाम है |

Asha Joglekar said...

जीवन का यथार्थ बहुत ही सहज तरीके से प्रस्तुत कर रहीं हैं आप इस कथा में । अंत तो बहुत ही मार्मिक ।

वाणी गीत said...

जीवन का निर्मम यथार्थ ...
बुढ़ापे की ओर बढ़ते माता पिता धीरे धीरे नीम के पीले पत्तों की तरह होते जाते हैं बच्चों के लिए बिना यह सोचे की आखिर उनकी नियति भी एक दिन वही होनी है ..

Udan Tashtari said...

ओह! डूब गये इसमें.

अजित गुप्ता का कोना said...

बहुत ही सशक्‍त रचना। ऐसी ही होती जा रही है जिन्‍दगी। इसलिए अपने नीम के पेड़ को सुरक्षित रखने की आवश्‍यकता है।

rashmi said...

बहुत ही मार्मिक रचना है ज़यादातर घरों मैं ऐसा ही होता है बुड़े होते माँ बाप नीम के पीले पत्तो की तरह हो जाते है जिनके पेड़ से अलग होने का इंतजार रहता है.

kshama said...

Uf!Kaisa katu saty hai yah!Behad achhee katha hai!

शोभना चौरे said...

krpya ise bhi pdhe
http://rashmi-srivastava.blogspot.com/

रचना दीक्षित said...

कटु सत्य, सच तो ये की यही है आज के जीवन का यथार्थ दिल में गहरे बैठ गई आपकी ये प्रस्तुती

हरकीरत ' हीर' said...

ओह......शोभना जी यूँ ही नहीं उतरती ऐसी कहानियाँ .....
बहुत कुछ झेलना पड़ता है .....आपने एक-एक शब्द को जिया है जैसे .....बेहद ह्रदय स्पर्शी .......
और क्या कहूँ ....अभी आहत हूँ ....सुमित्रा की मनःस्थिति से .....
सच्च ये कैसी विडंबना है कहीं बहू के हाथों सास दुखी है तो कहीं सास के हाथों बहू ......!!

इस सफल लेखन की आपको हार्दिक बधाई ......!!

shikha varshney said...

मार्मिक अंत और कड़वा यथार्थ ..मुझे हमेशा ये बात अचंभित करती है कि एक स्त्री दूसरी ही स्त्री की भावनाये क्यों नहीं समझ पाती .

rashmi ravija said...

मन व्यथित कर गयी, यह रचना...इतनी सहजता से आपने कहानी के ताने-बाने में एक कडवी सचाई से रु-बरु करवा दिया.
सब क्षणिक सुख में ही विश्वास करते हैं,किसी ने अपना भविष्य नहीं देखा...फिर भी नहीं डरते कि कल बिलकुल उनके साथ भी ऐसा हो सकता है.
निर्मम यथार्थ से परिचित करवाती रचना

प्रवीण पाण्डेय said...

गाढ़े अनुभवों की कहानी।

Aruna Kapoor said...

इसे कहानी कहा जाए या हकीकत?...फरक करना बहुत मुश्किल लग रहा है शोभना जी!...एक स्त्री बहू-बेटे से तो ज्यादा उम्मीदे नहीं रख सकती...लेकिन पति भी अगर साथ न दे तो?.... बहुत उमदा रचना!

स्वाति said...

nishabd kar gayi aapki kahani ..kahani bahut pravavsheel hai aur pravah bhi hai...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जीवन की सच्चाई का कथानक बहुत मार्मिक रूप से गढा है....अच्छी कहानी

राजकुमार सोनी said...

बहुत ही मार्मिक कहानी है
अच्छा लगा.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

कहानी बहुत सुंदर लगी...

ज्योति सिंह said...

aese kisse aksar dekhne ko milte ,aapne poori kahani bahut sundar dhang se likhi hai .

Alpana Verma said...

दिल को छू गयी सुमित्रा की कहानी.
सुमित्रा की तरह कितनी ही महिलाएं हैं ...शायद हर ब्याहता उतनी खुशनसीब नहीं होती की उसके हर शौक को पंख मिलें.शायद एक स्त्री की खूबियों को अगर उसके करीबी ही सराहें तो उसे कहीं बाहर से सराहना की आवश्यकता नहीं होती.लेकिन ऐसा नहीं होता ,काश ,मेहता जी ही उनके साथ होते,इस उम्र में अपनी आकान्शाओं को पूरा करने में वह किसी का समय या कहीं अपने कर्तव्य में कटोती नहीं कर रहीं .सच में रंगमंच ही तो है ये दुनिया..कितनी अलग थलग हो गयी सुमित्रा ..मन में यह अहसास ही कसक दे गया.फिर यही कहती हूँ ,सुमित्रा अकेली नहीं है ,यह पात्र तो न जाने कितनी महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है,शुक्र है अंतर्जाल की दुनिया ने घर की चारदीवारी में रहते हुए कुछ 'सुमित्राओं' को बाहर की दुनिया से जोड़ दिया है लेकिन उनका प्रतिशत बहुत ही कम है.
सशक्त लेखन.

नीरज गोस्वामी said...

हमारी कहानियों के बहु बेटे हमेशा ऐसे ही क्यूँ होते हैं? क्या अच्छे बहु बेटे होते ही नहीं? कहानी सच के करीब है लेकिन जिस आशा के साथ बहु के बारे में अच्छे विचार बनाये थे वो अंत आते आते टूट गयी...
नीरज

दिगम्बर नासवा said...

बहुत मार्मिक ... पीडियों की सोच का बदलाव .... नीम के पेड़ के माध्यम से बहुत कुछ कह गयी ये कहानी .....

शोभना चौरे said...

नीरज जी
टिप्पणी के लिए धन्यवाद |जो हम आसपास देखते है अपनों के साथ घटते हुए वही हमारी कहानियों के पात्र बन जाते है |
अगर समय निकाल सके तो यह कहानी" आनन्द " भी पढ़े |लिंक ये है |
http://shobhanaonline.blogspot.com/2009/09/blog-post_29.http://shobhanaonline.blogspot.com/2009/09/blog-post_30.
धन्यवाद

कविता रावत said...

जैसे तैसे रात गुजारी सुबह उठकर नहा धोकर जैसे ही खिड़की के बाहर देखा :वह नीम की डाली अपनी शाखा से उखड़गई थी और उसके हरे से पत्ते पीले पड़ गये थे .................
Rishton kee tutan, aapsi khatak aur dil mein chubte baaton ke teer kab dil ko chhalni kar jay, kah nahi sakta koi.
.....Kahani dil mein gahree utari aur ankhen shunya mein kho gayee...

ZEAL said...

सच को बयान करती कहानी , दुखद किन्तु वास्तविकता को दर्शाता हुआ अंत।

मथुरा कलौनी said...

शोभना जी

बहुत ही मार्मिक कहानी है।