Thursday, July 22, 2010

जान लेवा .....सच क्या है ??

अख़बार पढो या टेलीविजन पर समाचार देखो ?ऐसा लगता है बस अभी ही अपनी जान चली जायगी |प्रलय मे डूबतीधरती एक चैनल कब से प्रचारित कर रहा है लगता अब तो बस कुछ ही सांसे बची है बाकि तो सब जानलेवा ही है
-- पानी जान लेवा ?
ढूध जान लेवा ?
घी जान लेवा ?
सब्जी जान लेवा ?
फल जान लेवा ?
मसाले जान लेवा ?
दवाई जान लेवा ?
इजेक्शन जान लेवा ?
शहरों का ट्रेफिक जानलेवा?
मौसम जान लेवा ?
बिजली की कटोती जान लेवा ?
स्कूली बसे जान लेवा ?
गर्मी जान लेवा ?
बरसात का न आना जान लेवा ?
और भी कितनी जीवनदायिनी चीजे है जो आज जान लेवा बनती जा रही है पर कम्बखत जान है की इन सबको हँसते हँसते झेल जाती है |जब जब जानलेवा चीजो पर छापा पड़ता है टनों से पकड़े नकली फल ,नकली दूध और दूसरे सामान किसको अर्पण होते है ?किसी को नहीं मालूम ?और इनके पकड़ने से बाजार में भी कोई कमी नहीं रहती ?
यत्र तत्र ठेलो पर भरपूर" जान
लेवा "फल मिलते है
भोग भी लगता है ,ठाकुर को, अभिषेक भी होता है और हम भी खाते है पीते है आराम से क्या करे ?
देखिये जान अभी भी बाकि है | मेरे लिए तो जान लेवा और ही कुछ है जैसे -
करोड़ो का गेहू हर साल गोदामों में रखे रखे सड़ जाना |
शादियों में बेहिसाब खाना बर्बाद होना |
इसी क्रम में अभी अभी एक संस्मरण पढ़ा जो अप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ |

वो दिन
-ब्र .ध्यानाम्रत चैतन्य
"विश्व का आलिंगन "का पुराना वीडियो (१९९८ )देखते समय कुछ पुरानी यादे उभर आई |तब मै अमृत कुटीरम योजना के स्वयम सेवक दल में था |
इस योजना में गरीबो को २५ हजार आवास निशुल्क दिए जाने का लक्ष्य था |
योजना के प्रथम चरण में हार आवेदक के घर में जाकर जाँच करनी थी की कौन सुपात्र है और कौन अपात्र ?
इसके बाद सुपात्रो के बीच प्राथमिकता तय करनी थी की किसे आवास पहले वर्षो में मिलनी थी और किसे बाद के वर्षो में |निर्माण कार्य भी उसी हिसाब से होना था |
कई स्थानों पर आवेदकों के पते पर पहुचना कठिन रहा \परन्तु एक प्रसंग मेरे लिए अविस्मर्णीय बन गया |उस प्रकरण में तो स्थानीय लोग भी ये बताने में असमर्थ रहे की की आवेदिका कहाँ रहती है |
आखिर उसका आवेदक मिल ही गया जिसने हमको उस आवेदिका तक पहुँचाया|आवेदिका ७० -७५ साल की एक वृद्ध महिला थी |वह बहुत ही कमजोर थी वह एक कटहल के पेड़ के साथ ५-६ ताड़ के पत्तो की छाँव बनाकर उसके नीचे रहती थी |उसने एक मैला सा कपड़ा अपने शरीर पर लपेट रखा था \वह इतनी कमजोर और पीली थी की उसका चेहरा भावशून्य हो गया था |ऐसी लग रही थी मानो कोई पत्थर की दोनों घुटनों में अपना सर झुकाकर बैठी हो |
अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए हमने उसके परिवार की जानकारी के लिए पूछताछ की \उसका नाम कथू था |उसके तीन बच्चे थे |५० वर्षीय बड़ा लड़का मानसिक रूप से असंतुलित था |वह किसी से बात नहीं करता था |वह भी एक कटहल के पेड़ के नीचे ताड़ के पत्तो की छाया में रहता था |काम कुछ नहीं करता था बस दिन भर पड़े रहता था |
दूसरी एक लडकी थी जिसे शादी के बाद पति ने छोड़ दिया था उसकी समस्या ये थी की वह दूसरो को दिन भर गाली बकती रहती थी कोई भी उसे सहन नहीं कर पता था \तीसरा लड़का चालीस वर्ष का था उसका भी दिमाग कुछ असंतुलित था पर बडे के मुकाबले कुछ कम वह काम करके कुछ पैसा कमाता था पर घर पर कम ही देता था |चंद्रमा की कलाओ की तरह उसका दिमाग भी बदलता रहता था |
जानकारी लेने के बाद हमने कथू से पूछा ?
क्या तुमने भोजन कर लिया ?
उसने खा -" नहीं, यहाँ खाने को है क्या ?"
-सबेरे का नाश्ता ?-नहीं
-कल खाया था ?-उसने फिर कहा- नहीं |
-कब खाया था ?
उसने कहा -पिछले सप्ताह कुछ प्याज खाए थे जो मेरा छोटा लड़का शादी की झूठन से उठाकर लाया था |
यः सुनकर हम लोगो के मन को एक गहरा आघात लगा |मैंने गरीबी के बारे में सुना था पर ऐसी दशा की कभी कल्पना भी नहीं की थी |हमारे साथ एक राजनितिक कार्य करता भी था जो लोगो के पते ढूंढने में हमारी मदद कर रहा था |उसे भी इस परिवार के बारे में कोई जानकारी नहीं थी |जबकि वह इसी सडक के किनारे थोडा आगे चलकर रहता था \
हमारे दल का एक सदस्य कुछ चावल और सब्जी खरीद कर ले ए और बुढिया माँ को पकाने को दे दिया |वह बड़ी मुश्किल से खड़ी हो पा रही थी एक बर्तन लेकर जाने लगी हमने पूछा कहा जा रही हो ?
उसने कहा -घर में पानी नहीं है करीब १०० कदम नीचे चलकर जाना होगा |रोज पानी मेरा छोटा लड़का लाया करता है |तब हम जाकर पानी लाये उसके पास चूल्हा जलाने को माचिस भी नहीं थी वो हमारे साथी के पास थी ,हमने चूल्हा जलाया और पानी गर्म करने को रखा |
इस बीच हमने कथू का नाम प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखा और अगले आवेदक को खोजने निकल पड़े |
उस रात मै सो नहीं सका |कथू और उसके परिवार के बारे में सोच सोच का मुझे रोना आ रहा था कथू की दयनीय दशा उसकी लाचारी ,उसके बछो की दिमागी हालत !एक दिन क्या एक सप्ताह तक मुझे रोना आता रहा |जब भी मै कुछ खाने को बैठता मुझे कथू का चेहरा सामने घूम जाता |
मै सोच भी नहीं सकता था की १०० प्रतिशत साक्षर ता वाले प्रदेश केरल में किसी गरीब की ऐसी दुर्दशा हो सकती है |
बाद में कथू का मकान सबसे पहले बनाया गया स्थानीय लोगो ने भी कार्य पूरा करने में सहायता की |
इतनी निपट गरीबी मैंने इसके पूर्व नहीं देखी थी |जब अम्मा गरीबो की सहायता करने को कहती तो मै कहता था की
अच्छा विचार है \जब अम्मा कहती - अन्न पानी बर्बाद मत करो तो मुझे यः मितव्ययिता के किये दी गई सीख मालूम होती |दिल दहला देने वाले ऐसे कटु सत्य की तो मै कल्पना भी नहीं कर सकता
उस दिन मेरी आँखे खुल गई |जीवन में पहली बार मै किसी के लिए रोया था -अम्मा ने मेरे करुणा नेत्र खोल दिए थे |
-ॐ -
साभार
"मात्र वाणी "
मासिक पत्रिका
माता अमृतानंदमायी मिशन ट्रस्ट
(पोस्ट )कोल्लम ६९०५२५ ,केरल


28 टिप्पणियाँ:

honesty project democracy said...

अच्छी प्रस्तुती व शानदार पोस्ट...

P.N. Subramanian said...

मरने के लिए ही तो जी रहे हैं. सुन्दर आलेख. आभार.

अजित गुप्ता का कोना said...

बहुत ही मार्मिक सत्‍य। पता नहीं हमारे यहाँ के लोगों को क्‍या हो गया है कि वे सब कुछ नकली बनाने पर तुले हैं। एक तरफ तो धार्मिकता भरी हुई है और दूसरी तरफ मिलावट। कितने खोखले होते जा रहे हैं हम लोग? इसी का फायदा तो राजनेता और नौकरशाह उठाते हैं। बहुत अच्‍छी पोस्‍ट।

राज भाटिय़ा said...

मार्मिक लगी यह कथू की कहानी... भगवान सब को दे.. ओर आप् का लेख भी सोचनिया लगा... आज कल जिसे देखो मिलावट कर रहा है... ओर खुद भी मिलावटी समान ही खा रहा है... पता नही लोगो को यह पेसे का लालच कहा तक ले जायेगा. कानून भी इन मिलावटी लोगो की मदद करता है

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत सुन्दर व सामयिक प्रस्तुति।

मनोज कुमार said...

अब तो बस कुछ ही सांसे बची है बाकि तो सब जानलेवा ही है!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

जान लेवा खबरों के साथ कलेजा निकाल देने वाला संस्मरण..!
..सचमुच भारत में अभी बहुत गरीबी है. केरल राज्य की घटना ने चौंकाया, मगर खुशी हुई कि निर्धन का चयन हुआ. इसके लिए राज्य बधाई का पात्र है.
..मीडिया की नाटकीयता ने उसकी विश्वसनीयता को संकट में डाल दिया है. अब तो गलती से अगर समाचार का चैनल खुल जाता है तो पत्नी, बच्चे, रूठ कर दूसरे कमरे में चले जाते हैं.
..उम्दा पास्ट के लिए बधाई.

kshama said...

Bahut,bahut achha aalekh aur jo sansmaran aapne saajha kiya!

शोभना चौरे said...

बैचे न आत्माजी
टिप्पणी के लिए धन्यवाद |राज्य ने चयन नहीं किया अम्मा माँ अमृतानन्दमायी जिनका केरल में आश्रम है उनके द्वारा आवास उपलब्ध कराए जाते है और जिहोने सुनामी में बिखरे लोगो को कई हजार घर बना कर दिए है |
अधिक जानकारी इस लिंक पर मिल सकती है |
http://www.amritapuri.org/

अमिताभ श्रीवास्तव said...

अभी आपकी कहानी फिर से पढने के लिये ब्लॉग पर आया तो नई पोस्ट पढने को मिली। 'जान लेवा..कच क्या है"..इस संदर्भ में मैरी टिप्पणी अज़ीब लग सकती है क्योंकि मैं वर्तमान की इन समस्याओं, या संकटों या मिलावट आदि को लेकर ज्यादा परेशान नहीं होता क्योंकि यह आदिकाल से जनसंसार में विद्ध्मान हैं। दरअसल हम ये हमारे सामने देखते हैं तो लगता है यह कैसा कलयुग? है न/ किंतु आप यदि वेद-पुराणों आदि का अध्ययन करें तो हमे पता चलता है यह सब सारे कालों में मौजूद रहा है। मनुस्मृति हों या इतिहास आदि प्र्त्येक में हमे मिलता है ऐसे मानवीय नियम जिनमें ऐसे कृत्यों को करने की सज़ा तय की गई है। सज़ा आज भी तय है मगर कृत्य होते हैं? ऐसा पहले भी था।
मैरा तो एक मानना है यदि भोग लगता है ठाकुरजी को तो जहर भी पावन हो जाता है। आप खाइये बेपरवाह होकर/ बस अपने मन से, पूरी भक्तिभाव से भोग लगा हो ईश्वर को तो...। यह बात गम्भीरता के लिये है, कुछ इसे नहीं मानेंगे? खैर..न मानें। किंतु जानलेवा..हर काल परिस्थिति में रहा है और जीव जिया है। प्रकृति ने शरीर को शायद इन चीजों का अभ्यस्त कर दिया है। वैसे भी कल्युग है.., अच्छी पोस्ट। अब कहानी पढ रहा हूं।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत संवेदनशील पोस्ट...

Unknown said...

didi बहुत ही संवेदंसील लेख है
बर्तमान की ज्वलंत समस्यों पर सीधा कटाक्ष है
पढ़ कर काफी कुछ सोचने को मजबूर कर दिया आपने ....!!!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

ओह! जरूर देखूंगा और जानकारी प्राप्त करूंगा.
..आभार.

वाणी गीत said...

जानलेवा है क्या क्या फिर भी जान तो बची है ...
मार्मिक ..!

एक विचार said...

बहुत संवेदनशील पोस्ट...

rashmi ravija said...

रोंगटे खड़े हो गए और आँखें नम हो गयीं, उन गाँव वालों को तो उनकी इस हालत का पता होगा....कोई मदद नहीं की??...माना वे लोग भी गरीब ही होंगे...पर दो दिन में एक बार खाना तो उपलब्ध करा सकते थे. पता नहीं....किन किन कोनों में ऐसे लोग भी सिर्फ आती-जाती साँसों पर जिंदा हैं...

ऐसे प्रसंग पढ़कर तो मिलावट की आलोचना का भी मन नहीं हो रहा...अति-मार्मिक..

The Straight path said...

बहुत संवेदनशील पोस्ट...

कविता रावत said...

Vartmaan yatharth ka sachha chitran kiya hai aapne... abhhar

ज्योति सिंह said...

राम भरोसे ही जिन्दगी कट रही और कट जायेगी ,डर के कहां तक जी सकते है ,बहुत पते की बाते कही है आपने .

Asha Joglekar said...

जान कर खुशी हुई कि अम्मा का आखिर मकान की लिस्ट में नाम तो आया । अच्छा होता कि उनके खानेपीने का भी कुछ इन्तजाम हो जाता । हमारे बुजुर्ग जो हमें चीजें सम्हाल कर इस्तेमाल करना सिखा गये हैं उसका यही कारण है । लेख शुरू से अंत तक बांध कर रखने वाला ।

कडुवासच said...

...प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!

hem pandey said...

इस पोस्ट को पढने वाले बहुत से लोगों(मेरे सहित) ने ऐसी गरीबी का विवरण पहली बार सुना होगा. यह घटना भारत की जी.डी.पी.बढ़ने की हकीकत बताती है.

Aruna Kapoor said...

आपने वास्तविकता को कविता में उतारा है!.... सार्थक रचना...बधाई!

दिगम्बर नासवा said...

सबसे अच्छा है इस ईडीएट बॉक्स को बंद कर दें ..... श्रीष्टि अपने आप जो करना है करेगी ... अछा लिओखा है बहुत ...

Apanatva said...

aapkee post bahut acchee lagee .
aapkee safar kee taiyariya v chal rahee hogee .Mai London aa gayee hoo.agalee vaar jab aap aaengee avashy milenge humara ghar bhee usee area me hai......
shubh yatra.

meemaansha said...

marne k pahle kyu dar jaaye......
jaruri h kuchh to ham kar jaaye..

Alpana Verma said...

पोस्ट के शुरू में आप ने कई सवाल उठाये ,
सच में बारिश के नीचे खुले में रहे लाखों टन अनाज की बर्बादी देख कर दिल दुखता है.
मिलावट के ज़माने में क्या जानलेवा है ,क्या नहीं? कुछ मालूम नहीं चलता.
-गरीबी के जिस कटु सत्य को आप ने बताया है वह दिल दहला देने वाला ही है.गरीबी हर जगह है और अब और भी बढ़ेगी जैसा मैं ने अपनी पोस्ट में एक अख़बार की कट्टिंग में भी दिखाया है की भारत के ८ प्रदेशों में भयंकर गरीबी है और २०५० तक भारत के आबादी चीन से अधिक हो जाएगी.जिसके परिणामों की कल्पना भी भयावह है .
बहुत सही मुद्दे उठाये हैं आप ने इस पोस्ट में.

रचना दीक्षित said...

कितना जानलेवा सच है!!!! अच्छी प्रस्तुती व शानदार पोस्ट