1.
मेरे सिरहाने
बैठी यादे
जुड़ जाती है
और
सक्रीय होकर
सपने बुन लेती है ,
अपनी कल्पनाओ की
झालरों के साथ
2.
फूलो की बस्ती में ,
पत्थरों का क्या काम?
रंगों की मस्ती में ,
सफेदी का क्या काम?
चंदा की चांदनी में ,
रूपसी का क्या काम?
सूरज की रौशनी में ,
मेरे सिरहाने
बैठी यादे
जुड़ जाती है
और
सक्रीय होकर
सपने बुन लेती है ,
अपनी कल्पनाओ की
झालरों के साथ
2.
फूलो की बस्ती में ,
पत्थरों का क्या काम?
रंगों की मस्ती में ,
सफेदी का क्या काम?
चंदा की चांदनी में ,
रूपसी का क्या काम?
सूरज की रौशनी में ,
चिरागों का क्या काम ?
3.
3.
अपराधी पिता को
बचाने
संकल्पित पुत्री को देखकर
उसी पिता के पुत्र का
उत्तर -
हाँ !वे ऐसा कर सकते है ?
उत्तराधिकारी को
परिभाषित कर गया .........
बचाने
संकल्पित पुत्री को देखकर
उसी पिता के पुत्र का
उत्तर -
हाँ !वे ऐसा कर सकते है ?
उत्तराधिकारी को
परिभाषित कर गया .........
12 टिप्पणियाँ:
विडम्बनायें जीवन की !
आजकल बहुत कम नजर आती है !
सारगर्भित क्षणिकाएं...
जीवन के सच,
ख़ूब!
Behad badhiya tareeqese jeewan kee vidambana ko pesh kiya hai aapne!
सच के अपने अपने रंग..
Teeno abhivyakti sach ke Kareeb ... Achee lagee...
बहुत सुंदर शोभना जी । हर कविता अपने आप में सशक्त । उत्तराधिकारी पुत्र का जवाब सन्न कर गया ।
भावपूर्ण रचना क्या कहने...
बहुत ही सुन्दर..
भावविभोर करती रचना...
भावपूर्ण रचना क्या कहने...
बहुत ही सुन्दर..
भावविभोर करती रचना...
बहुत सुन्दर....
सभी क्षणिकाये बेहतरीन
सादर
अनु
बडे दिनों से कुछ लिख नही रहीं । आशा है सब ठीक है ।
अपराधी पिता को
बचाने
संकल्पित पुत्री को देखकर
उसी पिता के पुत्र का
उत्तर -
हाँ !वे ऐसा कर सकते है ?
उत्तराधिकारी को
परिभाषित कर गया .........
VERY TOUCHING EXPRESSION...
.
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