मै नहीं जानती ये कविता कैसे बन कैसे बन गई ?एक क्षण कुछ महसूस किया और अगले एक मिनिट में
यह रचना बन गई |
घर में रखे पुराने सामान की तरह
चमकाए जाते है, कभी कभी वो
आज निर्जीव ही सही
कभी जीवन्तता थी उनमे
महकता था उनकी सांसो से घर
चहकता था उनके बोलों से घर
गूंजते थे अमृत वाणी से मंत्र
सौंधी खुशबू से महकती थी रसोई
भरे जाते थे कटोरदान ,पड़ोसियों के लिए
किससे कहे ?कैसे कहे ?
निर्जीव क्या बोलते है ?
उनकी सारी खूबियों पर है प्रश्न चिन्ह ?
बिताते है इस उक्ति के सहारे
वो जीवन की शाम
"कर लिया सो काम ,भज लिया सो राम "|
यह रचना बन गई |
घर में रखे पुराने सामान की तरह
चमकाए जाते है, कभी कभी वो
आज निर्जीव ही सही
कभी जीवन्तता थी उनमे
महकता था उनकी सांसो से घर
चहकता था उनके बोलों से घर
गूंजते थे अमृत वाणी से मंत्र
सौंधी खुशबू से महकती थी रसोई
भरे जाते थे कटोरदान ,पड़ोसियों के लिए
किससे कहे ?कैसे कहे ?
निर्जीव क्या बोलते है ?
उनकी सारी खूबियों पर है प्रश्न चिन्ह ?
बिताते है इस उक्ति के सहारे
वो जीवन की शाम
"कर लिया सो काम ,भज लिया सो राम "|
10 टिप्पणियाँ:
गहरे तक छू गयी ये रचना बल्कि उदास कर गयी..
एक सच यह भी है
समय को साधे रहें, जब तक हो गतिमान बने रहें,
गहरी कविता।
उदासी लिए ... गहरी रचना ...
हिला गई अंदर तक ...
सच को कहती मार्मिक रचना ।
भावपूर्ण रचना बनी है ..!
खरा सच.. और कड़वा भी, ज़हर की मानिंद
अपेक्षाएं और दुखी करती हैं उस शाम की बेला में. ह्रदयद्रवित करती प्रस्तुति लेकिन सच के करीब.
बिताते है इस उक्ति के सहारे
वो जीवन की शाम
"कर लिया सो काम ,भज लिया सो राम "|
...एक कटु सत्य..अंतस को छू गयी..
एक सच ... हर शब्द के साथ शुरू से अंत तक चल रहा है ...
सादर
दिल के गहराई से निकली रचना ।
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