अभी दो दिन पहले द्वितीया तिथि में चाँद एक बारीक़ लकीर सा अपना सोंदर्य बिखेर रहा था . तभी मन में ये विचार आये।
चाँद ने हसिये (दराती )का रूप धरा
सूरज ने बादलों में अपने को ढंका
प्रभात कि बेला में धुंध ने अपना राग छेड़ा
गोधूलि बेला में ,उड़ती रज से अंधकार हुआ
बता ऐ उजाले तुझे मैं कहाँ पाऊ ?
(चित्र गूगल से साभार )
चाँद ने हसिये (दराती )का रूप धरा
सूरज ने बादलों में अपने को ढंका
प्रभात कि बेला में धुंध ने अपना राग छेड़ा
गोधूलि बेला में ,उड़ती रज से अंधकार हुआ
बता ऐ उजाले तुझे मैं कहाँ पाऊ ?
(चित्र गूगल से साभार )
3 टिप्पणियाँ:
क्या बात कही है दीदी! लेकिन असली उजाला तो तब मिलेगा, जब शिक्षा की दराँती/हँसिए से अज्ञानता का अन्धकार कटेगा! है ना?
उजाले को ग्रहण लगा है। चीर कर निकलेगा अँधेरे को जरुर!
कम उजाले में भी जीवन के दृश्य छिपे रहते हैं, हम अपने निहितार्थ ढूँढ लें।
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