आज से ४० से ५० साल पहले तक अधिकांश घरो में सात ,आठ ,नौ भाई बहन होना आम बात थी इससे ज्यादा भी हो सकते है और साथ साथ ही गुड्डू ,बड़ा गुड्डू ,छोटा गुड्डू , पप्पू ,मुन्नू ,नन्नू ,बाबा ,बबली ,गुड़िया जैसे ही घर के नाम रखे जाते थे. वो तो भला हो राजकपूर जी का जिनपर फिल्माए गए गीत "मेरा नाम राजू घराना अनाम बहती है गंगा जहाँ मेरा धाम "से घर घर राजू हो गए राजू चाचा ,राजू मामा आज तक चल रहे है। हमारे एक रिश्तेदार थे घर में बुलाये गए नाम से बच्चो को ज्यादा जानते थे एक बार अपने ही एक बच्चे के एडमिशन के लिए स्कूल गए जब वह बच्चे का नाम लिखने की जगह ,तो नाम ही नहीं मालूम उस समय ५ साल के बच्चे को भी अपना असली नाम नहीं !मालूम उसने पप्पू बता दिया .| पिता श्री ने भी तुरंत नया नामकरण कर दिलीप रख दिया क्योकि उस समय बहुत फेमस थे हीरो दिलीप कुमार। घर जाकर जन्म पत्री देखि तो उसमे अशोक नाम था । लड़कियों को ज्यादा स्कूल भेजने का प्रचलन नहीं था सो जो नाम घर में वही बाहर भी| ऐसी एक परिवार में सात बहने थी उनका नाम था ,काजू ,किसमिस ,केसर, बादामी ,इमरती ,जलेबी और बर्फी | बहुए आती तो अगर दूसरे शहर या गांव की होती तो उनका परिचय उनका गांव या शहर ही रहता या मुन्ना की बहु आदि आदि और अगर उसी शहर की होती तो उनके मोह्हले से उन्हें पुकारा जाता।
ये तो आज बच्चो के के हिसाब से काफी पुरानी बात लगती है. हम आज के १५ साल पहले जिस टाउनशिप में रहते थे वहाँ महिलाओ को भाभीजी ,या मिसेस वर्मा या शर्मा जो भी सरनेम हो उससे ही पुकारा जाता था क्योकि फैक्ट्री की टाउनशिप में फैक्ट्री में काम करने वालो का ही परिवार रहता था और काम करने वाले पुरुष ही थे इसलिए उनके नाम से ही जाना जाता था। आज जब" फेसबुक "जैसा माध्यम हो गया है अपने पुराने साथियो से मिलने का, तो कभी कभी बड़ी कोफ़्त होती है की हमने कुछ बहनो के आलावा और बहनो के नाम क्यों नहीं जाने ?कम से कम नाम मालूम होते तो उन्हें ढूंढा तो जा सकता है। इसलिए" नाम में क्या रखा है "
इसे हल्के में न लेकर उसके महत्व को पहचानना जरुरी है।
ये तो आज बच्चो के के हिसाब से काफी पुरानी बात लगती है. हम आज के १५ साल पहले जिस टाउनशिप में रहते थे वहाँ महिलाओ को भाभीजी ,या मिसेस वर्मा या शर्मा जो भी सरनेम हो उससे ही पुकारा जाता था क्योकि फैक्ट्री की टाउनशिप में फैक्ट्री में काम करने वालो का ही परिवार रहता था और काम करने वाले पुरुष ही थे इसलिए उनके नाम से ही जाना जाता था। आज जब" फेसबुक "जैसा माध्यम हो गया है अपने पुराने साथियो से मिलने का, तो कभी कभी बड़ी कोफ़्त होती है की हमने कुछ बहनो के आलावा और बहनो के नाम क्यों नहीं जाने ?कम से कम नाम मालूम होते तो उन्हें ढूंढा तो जा सकता है। इसलिए" नाम में क्या रखा है "
इसे हल्के में न लेकर उसके महत्व को पहचानना जरुरी है।
5 टिप्पणियाँ:
आज जब" फेसबुक "जैसा माध्यम हो गया है अपने पुराने साथियो से मिलने का, तो कभी कभी बड़ी कोफ़्त होती है की हमने कुछ बहनो के आलावा और बहनो के नाम क्यों नहीं जाने ?कम से कम नाम मालूम होते तो उन्हें ढूंढा तो जा सकता है। इसलिए" नाम में क्या रखा है " इसे हल्के में न लेकर उसके महत्व को पहचानना जरुरी है। .......... सच उस समय सोचने की कहाँ फुर्सत थी कि भविष्य में क्या परिवर्तन होने वाले हैं।
बहुत बढ़िया चिंतनशील प्रस्तुति ...
ब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, स्वामी विवेकानंद जी की ११२ वीं पुण्यतिथि , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जी .... ये तो है
नाम को लेकर मैंने दो पोस्ट लिखी थीं अपने ब्लॉग पर... कुछ व्यक्तिगत और कुछ सामान्य.. आज आपने एक नया विवरण प्रस्तुत किया है दीदी! मज़ा आ गया!
नाम में बहुत कुछ रखा है.. एक बार एक ब्लॉगर्स समारोह में मैंने अपना परिचय "सलिल" कहकर एक स्थापित ब्लॉगर महिला को दिया जिनके साथ मेरे बहुत अच्छे सम्बन्ध थे. मगर मुझसे मिलकर उनकी गर्मजोशी ग़ायब थी. बाद में जब मैंने उनसे इस घटना का ज़िक्र किया तो वो बहुत शर्मिन्दा हुईं. कहने लगीं "सलिल" के नाम से तुम्हारा चेहरा याद नहीं आता.. तुम्हें कहना चाहिये था कि मैं हूँ "चला बिहारी"..
:)
नाम में ही तो सब कुछ है ... वाही याद रहता है लम्बे समय तक ...
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