थकी आँखों को पलकों ने ,
अपना लिहाफ ओढ़ा दिया ,
नज़र आते थे जो अपने ,
बंद आँखों ने भ्रम तोड़ दिया |
पीले पत्तो कि नियति है ,शाख से गिरना ,
मिटटी में मिलना,
हरे पत्ते भी कभी पीले होंगे,
अपने
लहलहाने में उन्हें ये इल्म कहाँ ?
रिश्ते जो घर में निषिद्ध होते है
सिर्फ यादो में ही होते है ,
डरती हूँ ,यादो को भी न आने की ,
हिदायत न दे दो ?
कोने में पड़े दीवान कि मानिंद चुभती हूँ,
और तो बहुत फेंक दिया है,
काठ की पुतली बदरंग हो गई है ,
ये न सोच लो! बनके मेरे मेहरबाँ.........
Thursday, September 09, 2010
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22 टिप्पणियाँ:
बहुत खूब शोभना जी... बधाई !!
आखिर एक दिन सब काठ ही तो हो जाएगा..
दी नमस्ते
बहुत खूब सूरत यथार्त रचना
और ये पंक्तियाँ ......
कोने में पड़े दीवान कि मानिंद चुभती हूँ,
और तो बहुत फेंक दिया है,
काठ की पुतली बदरंग हो गई है ,
ये न सोच लो! बनके मेरे मेहरबाँ.........
.............
आरजू है ये ....
बुढ़ापे की ..
आपकी ......
हमारी .........
सबकी ..........!!!!!
Zindagee kee anishchitata kya khoob bayan hui hai!
बहुत सुंदर रचना । ये हम सब क सच्चाई है कुछ की आज तो कुछ की कल ।
बहुत खूब शोभना जी...जर्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं...
नीरज
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है।
कोने में पड़े दीवान कि मानिंद चुभती हूँ,
और तो बहुत फेंक दिया है,
काठ की पुतली बदरंग हो गई है ,
ये न सोच लो! बनके मेरे मेहरबाँ..
मन की पीड़ा जैसे शब्द बन उभर आई है ..बहुत अच्छी कविता.
बडी गहरी और दिल को छूने वाली रचना लिखी है।
पीले पत्तो कि नियति है ,शाख से गिरना ,
मिटटी में मिलना,
-ओह! क्या बात है!
रिश्ते जो घर में निषिद्ध होते है
सिर्फ यादो में ही होते है ,
डरती हूँ ,यादो को भी न आने की ,
हिदायत न दे दो ?
कोने में पड़े दीवान कि मानिंद चुभती हूँ,
और तो बहुत फेंक दिया है,
काठ की पुतली बदरंग हो गई है ,
ये न सोच लो! बनके मेरे मेहरबाँ.........
बहुत ही संवेदना से भरी हुई पंक्तियाँ ....विशेष रूप से अंतिम पंक्तियाँ ..बस मन बार बार उनको ही सोच रहा है ...
कोने में पड़े दीवान कि मानिंद चुभती हूँ,
और तो बहुत फेंक दिया है,
काठ की पुतली बदरंग हो गई है ,
ये न सोच लो! बनके मेरे मेहरबाँ........
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति...जिंदगी की शाम पर और रूठे रिश्तों पर.
हर पल होंठों पे बसते हो, “अनामिका” पर, . देखिए
थकी आँखों को पलकों ने ,
अपना लिहाफ ओढ़ा दिया ,
नज़र आते थे जो अपने ,
बंद आँखों ने भ्रम तोड़ दिया |
रिश्ते जो घर में निषिद्ध होते है
सिर्फ यादो में ही होते है ,
डरती हूँ ,यादो को भी न आने की ,
हिदायत न दे दो ?
बहुत कुछ याद दिला दिया आपके भावपूर्ण लेखन ने
जितनी बार पढ़ लो मन ही नहीं भर रहा है
इतने अच्छे लेखन के लिए कृपया बधाई स्वीकार करें
बहुत सोच बिचार के बाद आज आपके यहाँ आये हैं हम..कारन कोई नहीं, बस हिचक.. अब त जाने का सवाले पैदा नहीं होता है... आपके कबिता में हमको अपना सम्बेदना देखाई देता है... सब उपमा एतना जीबंत है कि बस भव अपने आप बहने लगता है हृदय में.. बहुत सुंदर!!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.......
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
गणेशचतुर्थी और ईद की मंगलमय कामनाये !
गणेश चतुर्थी और ईद की बधाइयां!
.
हरे पत्ते भी कभी पीले होंगे,
अपने
लहलहाने में उन्हें ये इल्म कहाँ ?
बहुत सुन्दर बात लिखी है आपने। विनम्रता का सन्देश देती खूबसूरत रचना के लिए आभार।
.
दार्शनिक रचना है यह। सीख देती सी। इतनी बडी बात आपने इस खूबसूरत अन्दाज़ में कही है जहां सोच को पूरा पूरा विस्तार मिल जाता है। पीढियों का सच, रिश्ते नातों का सच, और जीवन का सच........। लाजवाब जी।
रिश्ते जो घर में निषिद्ध होते है
सिर्फ यादो में ही होते है ,
डरती हूँ ,यादो को भी न आने की ,
हिदायत न दे दो ?...
बहुत ही लाजवाब पंक्तियाँ हैं ... देर तक गूँजती रह गये ....
पीले पत्तो की नियति है ,शाख से गिरना ,
मिटटी में मिलना,
हरे पत्ते भी कभी पीले होंगे,
अपने
लहलहाने में उन्हें ये इल्म कहाँ ?.....
बस यही तो रोना है....जब पत्ते हरे रहते हैं तो अपनी नियति से बेखबर होते हैं...
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति
Sachmuch atulniy.wakyee abhivyakti taarif ke kaabil hai. Plz follow roop62.blogspot.com kyonki likha unke hi liye jata hai,jinke liye Sarthak ho!
kya baat hai... maja aa gaya.... excellent.... keep going.!
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