समय के साथ मूल्यों में भी परिवर्तन अवश्यंभावी है |चाहे वो इन्सान के नैतिक मूल्य हो या इन्सान को अपना जीवन चलाने के लिए जिन वस्तुओ की जरुरतहोती है उन वस्तुओ का मूल्य हो |सन १९७४ में देशी घी का मूल्य १८ रूपये किलो था |क्या आज की पीढ़ी इस ?पर विश्वास कर पाती है ठीक उसी तरह जब हमारे बुजुर्ग कहते थे की हमारे जमाने में १ रूपये में ४ सेर घी मिलता था |पहले सेर फिर की और अब लिटर में घी मिलता है यः भी तो परिवर्तन ही है |५० से ६० साल पुरानी फिल्म देखते है तो उसमे भी" महगाई कितनी बढ़ गई है "ये वाक्य रहता था आज भी महंगाई कितनी बढ़ गई है आपस की बात में हम कह ही लेते है ये बात और है की कहने तक ही रह जाते है और वो चीज की आदत होने पर ,जरुरत बन जाने पर कितनी ही महंगी हो खरीद ही लेते है |
नैतिक मूल्यों में परिवर्तन कहे या आदत कहे सिर्फ इतना ही काफी है की मोबाईल फोन के चलते एक आध बार सफेद झूठ तो हरेक इन्सान बोल ही लेता है |
वक्त बीत जाने पर हमारे द्वारा किया हुआ काम कभी कभी व्यर्थ ही लगता है तब हम भूल जाते है की उस समय उस कार्य की क्या महत्ता थी और हमने उसी महत्ता को ध्यान में रखकर ही काम किया था |उसी तरह जैसे शादी में शादी के गीत गायेगे न ?दीवाली के तो नहीं न?
सीमेंट फेक्ट्री टाउनशिप में रहते रहते सेवा समिति के माध्यम से बहुत से सेवा के कार्य करने करने के सुअवसर मिले आदिवासी गाँवो में स्कूल चलाना ,महिलाओ को सिलाई सिखाना ,नेत्र शिविर ,परिवार नियोजन शिविर ,पोलियो शिविर आदि लगाना |"नेत्र शिविर " में काम करना आत्मिक सन्तुष्टी देता था बुजुर्गो की देखभाल वो भी ऐसे जिनको दो वक्त खाना भी मुश्किल से मिलता था |जब भी गाँव -गाँव प्रचार पर जाते उनका याचनाभरा प्रश्न होता ? हम ओपरेशन के बाद देख पायेगे न ?उनको ६ दिन तक शिविर में ही रखा जाता था उनके खाने, सोने की व्यवस्था करना हम सब महिलाओ में काम करने का जोश भर देता था |जैसे कोई उत्सव हो या अपने घर में शादी हो \शादी का प्रसंग तो कभी कभी होता था किन्तु हर साल शिविर उतने ही उत्साह से लगाया जाता |
पोलियो शिविर हम एक ही बार लगा पाए थे पोलियो ग्रस्त बच्चो को शिविर तक लाना ,उसके पहले गाँव गाँव जाकर उन्हें चिन्हित करना बड़ा ही वेदनामय काम था |जिस संस्था के साथ जिनके सहयोग से पोलियो शिविर लगाया था आज भी सोचती हूँ की क्या वो सही था ?आज भी वो संस्था पोलियो शिविर लगा कर
भ्रमित कर रही है |पर शायद यही होता है उस समय हानि -लाभ नहीं देखते एक जज्बा होता होता है काम करने का -सामने वाले के दुखो को देखकर कि हम कैसे इसकी मदद कर सके ?पोलियो शिविर में होने वाले ओपरेशन और ओपरेशन के बाद उनका फालोअप भी पोलियो को नहीं हरा सकता है उसका दुःख हमेशा रहता है |पोलियो शिविर में छोटे छोटे बच्चे अपने माता पिता के साथ शिविर के दो दिन पहले से आने शुरू हो गये थे |उन बच्चो के माता पिता को देखकर मन में कुछ भाव जगे थे उन्हें ही शब्दों में पिरोया था सन ६दिसम्बर १९९९ के दिन |
"कोशिश "
तुम हँसते तो हो किंतु एक दर्द लेकर
तुम रोते तो हो किंतु आंसू पीकर
तुम चलते तो हो किंतु थकान लेकर
तुम्हारे दर्द आंसू और थकान को
जरा सी राहत देने की
कोशिश है हमारी
तुम्हारे इन खिलते हुए ,फूलो की खूशबू
तम्हारे ही होठो पर लाये मुस्कान न्यारी
और हमारे इस संकल्प में ,
साथ आपके है ,
शुभकामनाये है हमारी |
नैतिक मूल्यों में परिवर्तन कहे या आदत कहे सिर्फ इतना ही काफी है की मोबाईल फोन के चलते एक आध बार सफेद झूठ तो हरेक इन्सान बोल ही लेता है |
वक्त बीत जाने पर हमारे द्वारा किया हुआ काम कभी कभी व्यर्थ ही लगता है तब हम भूल जाते है की उस समय उस कार्य की क्या महत्ता थी और हमने उसी महत्ता को ध्यान में रखकर ही काम किया था |उसी तरह जैसे शादी में शादी के गीत गायेगे न ?दीवाली के तो नहीं न?
सीमेंट फेक्ट्री टाउनशिप में रहते रहते सेवा समिति के माध्यम से बहुत से सेवा के कार्य करने करने के सुअवसर मिले आदिवासी गाँवो में स्कूल चलाना ,महिलाओ को सिलाई सिखाना ,नेत्र शिविर ,परिवार नियोजन शिविर ,पोलियो शिविर आदि लगाना |"नेत्र शिविर " में काम करना आत्मिक सन्तुष्टी देता था बुजुर्गो की देखभाल वो भी ऐसे जिनको दो वक्त खाना भी मुश्किल से मिलता था |जब भी गाँव -गाँव प्रचार पर जाते उनका याचनाभरा प्रश्न होता ? हम ओपरेशन के बाद देख पायेगे न ?उनको ६ दिन तक शिविर में ही रखा जाता था उनके खाने, सोने की व्यवस्था करना हम सब महिलाओ में काम करने का जोश भर देता था |जैसे कोई उत्सव हो या अपने घर में शादी हो \शादी का प्रसंग तो कभी कभी होता था किन्तु हर साल शिविर उतने ही उत्साह से लगाया जाता |
पोलियो शिविर हम एक ही बार लगा पाए थे पोलियो ग्रस्त बच्चो को शिविर तक लाना ,उसके पहले गाँव गाँव जाकर उन्हें चिन्हित करना बड़ा ही वेदनामय काम था |जिस संस्था के साथ जिनके सहयोग से पोलियो शिविर लगाया था आज भी सोचती हूँ की क्या वो सही था ?आज भी वो संस्था पोलियो शिविर लगा कर
भ्रमित कर रही है |पर शायद यही होता है उस समय हानि -लाभ नहीं देखते एक जज्बा होता होता है काम करने का -सामने वाले के दुखो को देखकर कि हम कैसे इसकी मदद कर सके ?पोलियो शिविर में होने वाले ओपरेशन और ओपरेशन के बाद उनका फालोअप भी पोलियो को नहीं हरा सकता है उसका दुःख हमेशा रहता है |पोलियो शिविर में छोटे छोटे बच्चे अपने माता पिता के साथ शिविर के दो दिन पहले से आने शुरू हो गये थे |उन बच्चो के माता पिता को देखकर मन में कुछ भाव जगे थे उन्हें ही शब्दों में पिरोया था सन ६दिसम्बर १९९९ के दिन |
"कोशिश "
तुम हँसते तो हो किंतु एक दर्द लेकर
तुम रोते तो हो किंतु आंसू पीकर
तुम चलते तो हो किंतु थकान लेकर
तुम्हारे दर्द आंसू और थकान को
जरा सी राहत देने की
कोशिश है हमारी
तुम्हारे इन खिलते हुए ,फूलो की खूशबू
तम्हारे ही होठो पर लाये मुस्कान न्यारी
और हमारे इस संकल्प में ,
साथ आपके है ,
शुभकामनाये है हमारी |
24 टिप्पणियाँ:
आज आपकी पोस्ट पढ़ कर छोटे टाउनशिप में रह कर किये गए अपने काम भी याद आ गए ...बहुत अच्छा लगता था ऐसे शिवरों के आयोजन करके ....सार्थक रचना ...आभार
शोभना जी
आपका आलेख कर्म की सार्थकता और कविता
"कोशिश " पढ़ी , सच अन्दर कुछ हलचल हुई.
शायद सार्थक लेखन इसी को कहते हैं.
तुम हँसते तो हो किंतु एक दर्द लेकर
तुम रोते तो हो किंतु आंसू पीकर
तुम चलते तो हो किंतु थकान लेकर
- विजय तिवारी ' किसलय '
#comments
सार्थक पोस्ट। कविता भी अच्छी लगी।
Aapka kaam behad saarthak raha.Ham kewal koshish hee to kar pate hain!Aapne to bahut sarahneey kaary kiya hai.
शोभना जी
आप बहुत ही अच्छा और नेक काम कर रही है | इस तरह के शिविर गरोबो के लिए एक बड़ा सहारा होते है | मैंने मोतियाबिन के कई शिविरों को देखा है और उन में आये लोगो के आशा भरी नजरो को भी |
इस सार्थक पहल और सार्थक पोस्ट के लिए बधाई.... शुभकामनायें
समय और स्थान के अनुसार दृष्टिगत बदलाव कईयों को अचम्भित करता है। पर मूल्यों का क्षरण सच में दुखी कर जाता है।
नैतिक मूल्यों में परिवर्तन कहे या आदत कहे सिर्फ इतना ही काफी है की मोबाईल फोन के चलते एक आध बार सफेद झूठ तो हरेक इन्सान बोल ही लेता है |
और उसके बाद झूठ जिन्दगी का हिस्सा बनता जाता है ...शुक्रिया
चलते -चलते पर आपका स्वागत है
अगर नैतिकता व्यक्तित्व का हिस्सा है तो बहुत बदलाव आते हैं। पर अगर चरित्र का हिस्सा है तो स्थिर रहती है नैतिकता।
@ज्ञानदत्त जी
बहुत दिनों बाद आपको अपने ब्लाग पर पाया धन्यवाद |
चरित्र से ही तो व्यक्तित्व बनता है |मूल चरित्र होता है और जो कुछ अंशो में विरासत में मिलता है ,फिर समाज के सामीप्य से हम अच्छे चरित्र का निर्माण कर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैआदर्श नैतिक मूल्यों को चरित्र में उतारकर |
ऐसा मै मानती हूँ |
आपका काम वाकई सराहनीय है .सार्थक पोस्ट .कविता भी बहुत अच्छी लगी.
शिविर आयोजन आपने आप में बड़ा संतोष देने वाला काम है.
आपकी कोशिश काबिल-ए-तारीफ़ है.
मनोज
सार्थक संदेश देती पोस्ट, हार्दिक बधाई।
---------
ईश्वर ने दुनिया कैसे बनाई?
उन्होंने मुझे तंत्र-मंत्र के द्वारा हज़ार बार मारा।
यह पोस्ट सुबह ही पढ़ ली गयी थी लेकिन जैसे ही टिप्पणी बाक्स खोला कि एक मित्र आ गए। बोले की चाय पीनी है। बस इसे सहेज लिया और अब टिप्पणी कर रही हूँ। सामाजिक कार्य करने में हमेशा ही आनन्द मिलता है। जब भी अवसर मिले करते रहिए। शुभकामनाएं।
सार्थक रचना ...
sarthak aur prerna detee rachana.
Shobhana jee maine jo link diya hai us par aap thoda samay deejiye sabhee tab click kariye aapko pata chalega ki bhavi karndharo ne kitna sakaratmk ravaiya apnaya hai.......kitnee baarikee se manovaigyanik vishleshan kar samsya ko suljhaya hai........jagrookata lane ka beeda uthaya hai.....
please ek vaar fir se link padiye mujhe vishvas hai aap prabhavit hongee aur ise promote bhee karengee.......
abhee mai U S AAEE HUEE HOO BITIYA KA KNEE OPERATION THA . ab sab theek hai.
aap JAN me Bangalore aarahee hai na?
सुन्दर और सार्थक प्रयास किये आपने. केवल प्रयास नहीं, क्रियान्वयन भी. शुभकामनायें.
शोभना जी,
आप बहुत ही स्तुत्य और सराहनीय कार्य कर रही हैं....कितने ही लोगों की दुआएं तो मिली ही होंगी..पर उस से बढ़कर आत्म-संतुष्टि है कि कुछ सार्थक किया.
कविता बहुत ही बढ़िया है.
bahut hi sunder..bade dino ke baad mai yahan aa paya..sorry..
koshish ko padhkar bahut hi achcha laga...
शोभना जी
आप बहुत ही अच्छा और नेक काम कर रही है
हमारी शुभकामनाये.
बहुत ह्रेदय्स्पर्शिय रचना ... ऐसा करना यक़ीनन सुकून देता है ...
शोभना जी
आपके व्लाग पर पहली बार आया हूँ बहुत ही सवेदनशील लेख और रचना पढने को मिली अपनी बात निदा फाजली साहेब के शेर से कहता हूँ " घर से मस्जिद है अगर दूर चलो यूँ करले
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये | बहुत अच्छा लगा
.
विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों पर लिखकर आपने बेहतरीन ढंग से समझाया है नैतिक मूल्यों में हुए परिवर्तन को। पोलिओग्रस्त मासूमों के लिए लिखी गयी रचना बेहद भावपूर्ण है। इस दिशा में सार्थक प्रयासों से काफी कुछ काबू पा लिया गया है रोग पर। -आभार।
.
शोभना जी,
आप द्वारा किये जा रहे सामाजिक सेवा को मैं नमन करता हूँ !
आपकी कविता भी अच्छी लगी !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
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