"चिठी आई है आई है चिट्ठी आई है "
इस गीत ने कई लोगो कि आँखों को नम किया था| किसी जमाने में चिट्ठी आना ही दिल कि धड़कन को बढ़ा देता था |
"डाकिया डाक लाया ,""ख़त लिख दे सावरिया के नाम बाबू "इन फ़िल्मी गीतों ने भी ख़त के महत्व को और बढाया |पत्र आना और उसे पूरे परिवार के साथ बैठकर पढना उन दिनों एक उत्सव ही होता था |एक ही बार पढने से मन नहीं भरता तो जितने लोग घर में होते और जो पढ़ सकते थे पूरा हफ्तापढ़ा जाता था |हाँ उस समय सबके जीवन कि पारदर्शिता होती थी कि किसी का कोई सीक्रेट नहीं होता था |अगर बहू के मायके से पत्र आया है तो सारे परिवार के लिए आदरसूचक संबोधन होता था | बेटी के लिए हिदायते ही होती थी ताकि वो परिवार का आदर कर सकेएक
ही चिठ्ठी को कई कई बार पढने का आनन्द ही कुछ और होता था |उन चिट्ठियों में आत्मीयता होती थी ,
तो कई बार उन चिट्ठियों को माध्यम बनाकर कई रिश्ते तोड़े भी जाते क्योकि चिट्ठी ही विश्वस्त सबूत होते थे |
यंत्रो के सहारे हाँ भले ही नजदीक होने का दावा करते है किन्तु मन ही मन मन से दूर ही दूर होते जा रहे है |पहले सिर्फ घर में एक फोन होता था तो कुशल क्षेम के आलावा कोई दुर्घटना के समय ही काम में लिया जाता था |किसी समय १० पैसे या २५ पैसे का पोस्ट कार्ड भेजकर या पाकर हम सूचनाओ से संतोष कर लेते थे |आज दिन भर प्रियजनों के सम्पर्क में रहकर भी बैचेनी महसूस की जाती है |
शहरी बच्चो के लिए चूल्हा ,सिगड़ी ,लालटेन की तरह पारिवारिक चिट्ठी भी दुर्लभ वस्तुओ की श्रेणी में आ गई है |
हम सब कुशल से है ईश्वर की कृपा से आप सब भी कुशल से होंगे |
या ईश्वर से आप सबकी कुशलता की प्रार्थना चाहते है |
घर में यथायोग्य बड़ो को प्रणाम छोटो को प्यार |
पत्रोत्तर शीघ्र देवे |
आपको भी अपनी कोई पुरानी चिट्ठी का किस्सा याद आये तो जरुर बताइयेगा |
Friday, December 24, 2010
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16 टिप्पणियाँ:
आज आपने भी न जाने कितनी चिट्ठियों की याद दिला दी ...छोटे से पोस्ट कार्ड पर कितनी सारी बातें सिलसिलेवार लिखी जातीं थीं ...पुरानी यादों को ताज़ा कर दिया ...
अब तो कूरियर का ज़माना है, पता नहीं डाकिया दिखता क्यों नहीं। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
एक आत्मचेतना कलाकार
उन पत्रों को अब कौन याद करता है, सबने तो ईमेल आदि का सहारा ले लिया।
Kuchh arse baad bachhe shayad 'dakiya' is shabd ka matlab hee bhool jayenge!
Ek aur bahut sundar geet is awsar pe yaad aaya," phool tumhen bheja hai khat me...!"Ab khat hee nahee to sookhe phool kahanse??
मनोजजी
डाकिया आता भी है तो हम कहाँ जान पाते है की वो डाकिया है क्योकि अब तो खाकी वर्दी पहनना आवश्यक नहीं है |और जो डाक आती है वो भी कुछ पत्रिकाए ,शादी के कार्ड आदि होते है जिसका उत्सुकता से इंतजार नहीं होता |
पहले चिट्ठी से ही लोग लिखने की शुरूआत करते थे।
..सुंदर पोस्ट।
chitthi ko pahle ek khushi ka prateek maana jata tha.lekin ab vo baat kahan. sunder prastuti.
jane kahan gaye wo din ... per aaj bhi sahej rakhin hain kuch chitthiyaan maine ... apne papa kee bhi (1975ki )...
बहुत सारी व्यथा एक साथ कह दी। नया जमाना है तो नयी बाते ही होंगी। हमें नये चलन को ना केवल स्वीकार करना होगा अपितु सीखना भी होगा। अब आप देखिए फोन आने पर नवयुवा कमरे से बाहर चले जाते हैं, जैसे गोपनीय हो और पहले सारे एकत्र हो जाते थे। उनसे पूछो कि बाहर क्यों जा रहे हो तो कहते कि इतना भी नहीं पता कि यह आउट ऑफ एटीकेट है और हमारी तरफ बड़ी ही हिकारत की नजर से देखते हैं कि कैसे पुरातनपंथी हैं!
सही कहा है आपने , हम घर में बच्चों से चिट्ठीपत्री के समय की चर्चा करते हैं । राखी - रोचना पर अपनी बेटी से चिट्ठियाँ भी लिखवाते हैं । सहेजी गई चिट्ठियाँ भी दिखाते हैं । आज भी चाहे कितनी भी सुविधा क्यों न हो गई हो , चिट्ठी लिखने का अपना एक अलग ही मजा है । अच्छी पोस्ट ,बधाई । नूतन वर्ष की शुभकामनाएं ।
अब तो पत्र गुजरे ज़माने से लगते हैं .कितना सुखद अहसास देता था डाकिये के हाथ में अपने नाम का पत्र.
कितना कुछ बदल गया है..चिठ्ठी, तार, टेलिफोन...टेलिफोन का आधुनीकरण,मोबाईल फोन...उसके बाद स्काईप!...लेकिन चिठ्ठी तो हमारे अंतरात्मा से अब तक जुडी हुई है!...बहुत सुंदर प्रस्तुति शोभना जी!..नया साल बहुत बहुत मुबारक हो!..बस!..बस!... थोडा सा इंतजार!
हा पत्रों का समय तो वाकई चला गया है | किन्तु आधुनिक यंत्रो का फायदा क्या है वो इस बेटी से पूछिये जो अपने घर से इतनी दूर है भला हो इन यंत्रो का अब तो घर पर रोज बात भी होती है और हर दूसरे दिन माँ बेटी और नानी नतनी एक दूसरे को देख भी लेती है वीडियो चैट से |
चिट्ठी तो चिट्ठी ही हुआ करती हैं ,चिठ्ठी का तो आज भी कोई तोड़ नही हैं .आपकी पोस्ट बहुत भावपूर्ण लगी ,बहुत अच्छा लगा पढ़कर .थैंक्स
सचमुच...क्या दिन थे वे....पूरा घर इकट्ठा हो जाता था,चिट्ठी सुनने को और कोई एक जन बीच में जोर-जोर से पढता ..फिर सबलोग बारी-बारी से खुद से पढ़ते...कितनी तो यादें जुड़ी हैं.
अब इतनी सुन्दर ग़ज़ल कैसे लिखी जायेगी..."तेरे खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे....
पोस्ट पढ़कर चिट्ठियों की याद आई..परन्तु किसी एक विशेष की नहीं...सच लगता है हम भूल गए कागज पर पत्र लिखना !
..............
***नूतन दशक की बहुत सारी मंगल कामनाएं***
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