#यादों की पोटली #२
मुख्य द्वार पर एक पीतल की गोल कुंडी लगी होती
उसके घुमाने पर अंदर लगी लकड़ी जो दो पल्लो पर लगी होती वो हट जाती और दरवाजा खुला जाता जिसे निमाड़ी बोली में" अग्गल" कहते ।जिसे बाहर से कोई भी खोल कर आ जाता सिर्फ रात को ही सांकल लगाई जाती थी अंदर से !
ताले चाबी का कोई रोल नहीँ था।
सुबह सुबह जब सुखलाल मामा आते प्रभात फेरी की घण्टियाँ दूसरी गली से सुनाई देती दादाजी दरवाजे की सांकल खोल देते ।
पिछला दिन दशहरे की खुशी में बीता आज दशहरा मिलने वालों की गहमा गहमी में ।
इस बीच अपना रुपया अपनी चचेरी बहनोँ बुआओं को बताने का सुख भी लूट चुके थे अब क्या करें ?उन दिनों हमारी 24 दिन की छुट्टी होती थी।
अब सब बहनोँ ने अगले दिन से रंगोली बनाने का तय किया उन दिनों रंगोली गांव में नहीँ मिलती थी
गांव के बाहर कुछ गुलाबी पत्थरो की छोटी छोटी सी खदानें थी वहाँ से पत्थर तोड़ कर लाना होता था ।
जिसे सिरगोला कहते थे
दादा दादी बहुत मुश्किल से भेजने को तैयार होते
कहते!सुखलाल ले आएगा !
पर हम भी जिद पर अड़ते और उन्हें हाँ कहनी पड़ती
मामा का काम निपटे !तब जाएं उसके आगे पीछे घूमते
तीन बहने हम और दूसरी सब मिलाकर कुल 8 से 10 हो जाते दौड़ते भागते पत्थर तोड़कर लाते।
दूसरे दिन इमामदस्ते (खलबत्ते) में कूटते छानते
और रंगोली तैयार सफेद झक।
अब रंगीन रंगोली भी चाहिए तो दादा की स्याही की बोतल से नीला रंग,दादी के मसाले के डिब्बे से पीला रंग,और कंकू से लाल रंग कोयले से काला रंग इन सबको बनाने में दो दिन लग जाते ।
बीच बीच मे डांट मिलती (पोर ई न हो न जिमि तो लेव)
लड़कियों खाना तो खा लो।
फिर पड़ोस के घर जाना जीजी तुमने कितने रंग बनाये देखकर आना उत्साहित होकर फिर स्याही घोलना यही क्रम चलता रहता।
हाँ तो मैं बात कर रही थी मुख्य दरवाजे की दरवाजा खुलते ही दाहिने हाथ पर कचहरी(बैठक)तीन सीढ़ी चढ़कर थोड़ी ऊंचाई पर घुसते ही खिड़की पास खुली जगह फिर एक सीढ़ी और एक बड़ा सा गद्दा उस पर सफेद सी चादर बड़े बड़े लोट रखे हुए ,
वहीं दादा की लकड़ी की पेटी ,जिसमे उनका सारा जरूरी सामान ,उस पेटी में कई खाने (खांचे)बने होते
जिसमे करीने से कलम दवात, सुपारी सरोता, माचिस की तीलियाँ ग्राम पंचायत के कागज और भी न जाने कितना सामान ।
पेटी की चाबी दादा के पास जनेऊ में लगी होती
हमें इंतजार रहता उस जादुई पेटी के खुलने का
और 5 पैसे का सिक्का लेने का।,😃
गद्दे के एक तरफ बड़ी सी लकड़ी के टेबल होती दो बड़ी सी कुर्सियां होती।
थोड़ी से नीचे की तरफ बड़ा सा लकड़ी का पलंग
लगा होता सिर्फ दोपहर के आराम के लिए।
पूरी दीवाल पर लकड़ी की फ्रेम में चारो तरफ मढ़ी हुई
तस्वीरें लगी रहती पूर्वजो की, सारे भगवानों की।
एक बड़ी सी घड़ी जिसमे रोज चाबी देना होता था
तब वह टन्न टन्न घण्टियाँ बजाती थी।
पलंग की साइड की तरफ ही पंखे की रस्सी चलाने वाला मानकर दाजी बैठता।(पंखा झलने वाला)
एक बड़ा सा झालर वाला रंगबिरंगा पंखा आज भी मन बैचेन कर देता जब उसकी गिररी (चकरी) चलती
तो लगता सारा सुख इसी को चलाने में है।
जब भी दादाजी और उनके मिलने वाले कचहरी में बैठते तो लगातार पँखा चलता ।
उस समय हम बच्चों का वहाँ प्रवेश निषेध होता।
दाहिनी तरफ कचहरी फिर लम्बा से गलियारा पार कर
बरामदा होता ।जिस तरह हमारा प्रवेश द्वार वैसे ही
गलियारे की दूसरी तरफ हूबहू वैसा ही गलियारा बायीं तरफ कचहरी वैसे ही नजारा उसका जहाँ मेरे दादाजी के काकाजी बैठते जिनको पूरा गाँव मुंशी दाजी के नाम से जानता था जो मालगुजार थे।
और इसी तरह कचहरी की दाहिनी तरफ से हूबहू वैसे ही 3 घर और थे जहाँ पर मेरे चचेरे परदादाओ की बैठकें थी । बरामदे के बाद एक बड़ा सा आँगन था उस आँगन में एक पत्थर सी खूब चौड़ी सी बैंच बनी थी जो सारे पांचों घरों की एक होने की सबूत है आज भी
जिसे निमाड़ी में दासा कहते है।
हमारा उनकी बैठक में बेरोकटोक आना जाना था
उनसे भी 5 पैसे के सिक्के मिलने का सदा लालच रहता।दोनो घरों के बरामदे के बीच एक दरवाजा था जहां से आने जाने का अपना ही आनन्द था।
अगले दिन सुबह सुबह गोबर से दरवाजे के सामने लीपकर उस पर रंगोली बनाना ।
,आड़ी तिरछी लकीरे बनाना फिर मिटाना इस क्रम में कई घण्टे लग जाते फिर हारकर बड़ी जिजियों के पास जाना,
दूसरी बड़ी बहने बहुत अच्छी रंगोली बनाती उनकी मिन्नत करते जीजी हमारी भी बना दो ।
जिजियाँ बड़ी अच्छी होती हमारी सारी समस्याएं हल कर देती।
दशहरे के कुछ दिन बाद शहर से पिताजी और काकाजी आते तब हमारी कूदा फांदी ,को जरा ब्रेक लग जाता।बाबूजी से सदा डर लगता।
काकाजी भी तोथोड़ा डरते क्योकि वो कॉलेज में पढ़ते और बाबूजी भी उसी कॉलेज में पढ़ाते थे।
अब हम काकाजी के आगे पीछे घूमते क्योकि वो उनके भाइयो दोस्तो के साथ मिलकर दीपावली के लिएआकाश कंदील बनाते
रंग बिरंगी पन्नियां,बांस की लकड़ी, ल ई बनाते ।
और बहुत मेहनत के बाद खूबसूरत आकाश कंदील बन जाते।
एक साथ बनाते ऊपर तीसरी मंजिल पर जहाँ सारा सामान बिखरा रहता कोई नहीँ होता रोकने टोकने वाला।बनने के बाद अपने कंदील सब घर ले जाते।
सुबह की रंगोली जो हम उन्ही दिनों बनाते थे! तब!
पर इधर कुछ दिनों पहले जब वापिस गांव जाना हुआ तो प्रभात फेरी की घण्टियाँ फिर उन दिनों को लौटा ले
आई पर वो मार्च का महीना था किंतु गांव की बालाओ ने सुबह सुबह आँगन में पानी छींटकर रंगोली बनाकर दीपक जलाकर रखे थे।
मैंने उनसे पूछा ?
रोज बनाते हो रंगोली?
तो खुश होकर बोली- जब से गाँव मे भागवत जी हुई
तो पंडित जी ने कहा! सुबह रंगोली बनाओ दीपक जलाओ तब से हम रोज बनाते है।
कहने को सहज सी बात किंतु संस्कारो के बीज ऐसे ही
फैल गए और वो नन्ही लड़की पीढ़ियों तक सींचती रहेगी ये अनमोल फसल।
उन दिनों की तस्वीरें तो नहीं है पर आज 50 साल बाद भी उन गलियों में जब बेटियां जिजियाँ जाती है गणगौर उत्सव में तो उन्ही जगहों पर रांगोली बनाकर जो सुख
पाती है वो अवर्णीय है!!!!!
मुख्य द्वार पर एक पीतल की गोल कुंडी लगी होती
उसके घुमाने पर अंदर लगी लकड़ी जो दो पल्लो पर लगी होती वो हट जाती और दरवाजा खुला जाता जिसे निमाड़ी बोली में" अग्गल" कहते ।जिसे बाहर से कोई भी खोल कर आ जाता सिर्फ रात को ही सांकल लगाई जाती थी अंदर से !
ताले चाबी का कोई रोल नहीँ था।
सुबह सुबह जब सुखलाल मामा आते प्रभात फेरी की घण्टियाँ दूसरी गली से सुनाई देती दादाजी दरवाजे की सांकल खोल देते ।
पिछला दिन दशहरे की खुशी में बीता आज दशहरा मिलने वालों की गहमा गहमी में ।
इस बीच अपना रुपया अपनी चचेरी बहनोँ बुआओं को बताने का सुख भी लूट चुके थे अब क्या करें ?उन दिनों हमारी 24 दिन की छुट्टी होती थी।
अब सब बहनोँ ने अगले दिन से रंगोली बनाने का तय किया उन दिनों रंगोली गांव में नहीँ मिलती थी
गांव के बाहर कुछ गुलाबी पत्थरो की छोटी छोटी सी खदानें थी वहाँ से पत्थर तोड़ कर लाना होता था ।
जिसे सिरगोला कहते थे
दादा दादी बहुत मुश्किल से भेजने को तैयार होते
कहते!सुखलाल ले आएगा !
पर हम भी जिद पर अड़ते और उन्हें हाँ कहनी पड़ती
मामा का काम निपटे !तब जाएं उसके आगे पीछे घूमते
तीन बहने हम और दूसरी सब मिलाकर कुल 8 से 10 हो जाते दौड़ते भागते पत्थर तोड़कर लाते।
दूसरे दिन इमामदस्ते (खलबत्ते) में कूटते छानते
और रंगोली तैयार सफेद झक।
अब रंगीन रंगोली भी चाहिए तो दादा की स्याही की बोतल से नीला रंग,दादी के मसाले के डिब्बे से पीला रंग,और कंकू से लाल रंग कोयले से काला रंग इन सबको बनाने में दो दिन लग जाते ।
बीच बीच मे डांट मिलती (पोर ई न हो न जिमि तो लेव)
लड़कियों खाना तो खा लो।
फिर पड़ोस के घर जाना जीजी तुमने कितने रंग बनाये देखकर आना उत्साहित होकर फिर स्याही घोलना यही क्रम चलता रहता।
हाँ तो मैं बात कर रही थी मुख्य दरवाजे की दरवाजा खुलते ही दाहिने हाथ पर कचहरी(बैठक)तीन सीढ़ी चढ़कर थोड़ी ऊंचाई पर घुसते ही खिड़की पास खुली जगह फिर एक सीढ़ी और एक बड़ा सा गद्दा उस पर सफेद सी चादर बड़े बड़े लोट रखे हुए ,
वहीं दादा की लकड़ी की पेटी ,जिसमे उनका सारा जरूरी सामान ,उस पेटी में कई खाने (खांचे)बने होते
जिसमे करीने से कलम दवात, सुपारी सरोता, माचिस की तीलियाँ ग्राम पंचायत के कागज और भी न जाने कितना सामान ।
पेटी की चाबी दादा के पास जनेऊ में लगी होती
हमें इंतजार रहता उस जादुई पेटी के खुलने का
और 5 पैसे का सिक्का लेने का।,😃
गद्दे के एक तरफ बड़ी सी लकड़ी के टेबल होती दो बड़ी सी कुर्सियां होती।
थोड़ी से नीचे की तरफ बड़ा सा लकड़ी का पलंग
लगा होता सिर्फ दोपहर के आराम के लिए।
पूरी दीवाल पर लकड़ी की फ्रेम में चारो तरफ मढ़ी हुई
तस्वीरें लगी रहती पूर्वजो की, सारे भगवानों की।
एक बड़ी सी घड़ी जिसमे रोज चाबी देना होता था
तब वह टन्न टन्न घण्टियाँ बजाती थी।
पलंग की साइड की तरफ ही पंखे की रस्सी चलाने वाला मानकर दाजी बैठता।(पंखा झलने वाला)
एक बड़ा सा झालर वाला रंगबिरंगा पंखा आज भी मन बैचेन कर देता जब उसकी गिररी (चकरी) चलती
तो लगता सारा सुख इसी को चलाने में है।
जब भी दादाजी और उनके मिलने वाले कचहरी में बैठते तो लगातार पँखा चलता ।
उस समय हम बच्चों का वहाँ प्रवेश निषेध होता।
दाहिनी तरफ कचहरी फिर लम्बा से गलियारा पार कर
बरामदा होता ।जिस तरह हमारा प्रवेश द्वार वैसे ही
गलियारे की दूसरी तरफ हूबहू वैसा ही गलियारा बायीं तरफ कचहरी वैसे ही नजारा उसका जहाँ मेरे दादाजी के काकाजी बैठते जिनको पूरा गाँव मुंशी दाजी के नाम से जानता था जो मालगुजार थे।
और इसी तरह कचहरी की दाहिनी तरफ से हूबहू वैसे ही 3 घर और थे जहाँ पर मेरे चचेरे परदादाओ की बैठकें थी । बरामदे के बाद एक बड़ा सा आँगन था उस आँगन में एक पत्थर सी खूब चौड़ी सी बैंच बनी थी जो सारे पांचों घरों की एक होने की सबूत है आज भी
जिसे निमाड़ी में दासा कहते है।
हमारा उनकी बैठक में बेरोकटोक आना जाना था
उनसे भी 5 पैसे के सिक्के मिलने का सदा लालच रहता।दोनो घरों के बरामदे के बीच एक दरवाजा था जहां से आने जाने का अपना ही आनन्द था।
अगले दिन सुबह सुबह गोबर से दरवाजे के सामने लीपकर उस पर रंगोली बनाना ।
,आड़ी तिरछी लकीरे बनाना फिर मिटाना इस क्रम में कई घण्टे लग जाते फिर हारकर बड़ी जिजियों के पास जाना,
दूसरी बड़ी बहने बहुत अच्छी रंगोली बनाती उनकी मिन्नत करते जीजी हमारी भी बना दो ।
जिजियाँ बड़ी अच्छी होती हमारी सारी समस्याएं हल कर देती।
दशहरे के कुछ दिन बाद शहर से पिताजी और काकाजी आते तब हमारी कूदा फांदी ,को जरा ब्रेक लग जाता।बाबूजी से सदा डर लगता।
काकाजी भी तोथोड़ा डरते क्योकि वो कॉलेज में पढ़ते और बाबूजी भी उसी कॉलेज में पढ़ाते थे।
अब हम काकाजी के आगे पीछे घूमते क्योकि वो उनके भाइयो दोस्तो के साथ मिलकर दीपावली के लिएआकाश कंदील बनाते
रंग बिरंगी पन्नियां,बांस की लकड़ी, ल ई बनाते ।
और बहुत मेहनत के बाद खूबसूरत आकाश कंदील बन जाते।
एक साथ बनाते ऊपर तीसरी मंजिल पर जहाँ सारा सामान बिखरा रहता कोई नहीँ होता रोकने टोकने वाला।बनने के बाद अपने कंदील सब घर ले जाते।
सुबह की रंगोली जो हम उन्ही दिनों बनाते थे! तब!
पर इधर कुछ दिनों पहले जब वापिस गांव जाना हुआ तो प्रभात फेरी की घण्टियाँ फिर उन दिनों को लौटा ले
आई पर वो मार्च का महीना था किंतु गांव की बालाओ ने सुबह सुबह आँगन में पानी छींटकर रंगोली बनाकर दीपक जलाकर रखे थे।
मैंने उनसे पूछा ?
रोज बनाते हो रंगोली?
तो खुश होकर बोली- जब से गाँव मे भागवत जी हुई
तो पंडित जी ने कहा! सुबह रंगोली बनाओ दीपक जलाओ तब से हम रोज बनाते है।
कहने को सहज सी बात किंतु संस्कारो के बीज ऐसे ही
फैल गए और वो नन्ही लड़की पीढ़ियों तक सींचती रहेगी ये अनमोल फसल।
उन दिनों की तस्वीरें तो नहीं है पर आज 50 साल बाद भी उन गलियों में जब बेटियां जिजियाँ जाती है गणगौर उत्सव में तो उन्ही जगहों पर रांगोली बनाकर जो सुख
पाती है वो अवर्णीय है!!!!!
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