Wednesday, May 20, 2009

परदे की आत्मकथा

मेरा जन्म कब हुआ ?तिथि समय का तो कुछ ठीक नही ,पर टेलीविजन की रामायण में लहराते पर्दों को को देखकर ऐसा लगता है शायद सतयुग में हुआ होगा? कितु प्रश्न यह उठता है जब राम राज्य था तो परदे की क्या आवश्यकता थी |शायद द्वापर युग में हुआ होगा ,पर कृष्ण का जीवन तो खुली किताब थी वहा भी पर्दों की आवश्यकता नही थी|अनुमानित जन्म की तिथि कलयुग ही रही होगी तब ही मेरी जरूरत महसूस की गई होगी ,इसीलिए झोपडी से लेकर हवेलियों तक ,चाल से लेकर मकानों फ्लेटो और बंगलो में मेरी छटा बिखरती रही |
कुछ जगह अभावो ने मुझे जन्म दिया तो मेरा आकर प्रकार थोड़ा सख्त था जिसमे मे कटीली झाडियों के ,कभी बांसों के रूप में रहा और आज भी मेरा सखत रूप जीवित है क्योकि आज भी वहा 'कुछ 'नही है जिसके लिए दरवाजा बना सके|वैसे मुझे दरवाजे का भी पर्याय कहते है |कुछ जगह पर फोल्डिंग दरवाजो से काम चलाया जाता है क्योकि मै सब कुछ चुगली कर देता हुँ तो कब तक घर के लोग मुझ पर विश्वास करे ?गाँव के घरो में मै पहले नही होता था पर हा, बैल गाड़ी में मेरी अहम भूमिका थी बैलगाडी के अन्दर कौन है ?यह कपडे की क्वालिटी पर निर्भर करता था की अन्दर किसान की बहु है या जमीदार की बहु बेटी ?या की जमीदार का मनोरंजन करने वाली कोई पार्टी |मै अपने अन्दर इस अंदाज़ से छुपाता की कोई परिंदा भी झाक नही सकता था |समय बीतता गया आवागमन के साधन बदले और मै सिर्फ़ एयर कन्डीशन । गाडियो में नीले रंग में छटा बिखेरने लगा |हा अस्पतालों में मुझे एक सा सम्मान मिला चाहे वह सरकारी अस्पताल हो या पॉँच सितारा होटल जैसा अस्पताल हरे रंग ने मुझे अलग पहचान दी ,इस रंग में इंसानों के दुःख को अन्दर से महसूस किया और उनके दुःख का सहभागी बना इसीलिए उन्होंने मुझे कभी अलग नही किया |
पॉँच सितारा से मुझे याद आया होटलों में मेरे विभिन्न रूप रहे है छोटी होटल से लेकर बडी होटल में मुझे कई आकार प्रकार में सजाया गया पर वहा मेरी उपयोगिता का कोई महत्व नही था मै एक माडल की तरह सजावट का सामान ही रहा |
हा घरो में विविधता से मेरा प्रयोग होता रहा पर्दे का बजट नही होने से कभी पुरानी धोतियो पुरानी सादियो से भी मैंने कई घरो की लाज ढापी है |कभी तो 'टाट की बोरी 'से अन्दर की एक भी साँस को बाहर नही आने दिया है |भले ही मै निर्जीव हुँ, पर मेरी उपस्थति हमेशा सजीवता का अहसास देती है |
अभी भी मै कही पर जरूरत हुँ तो कही पर सजावट !
खिड़कियों में आज भी मेरी उतनी ही महता है जितनी कवियों को विचारो की |
इधर कुछ सालो से टेलीविजन (माफ़ कीजियेगा मुझ पर टी। वि का कुछ ज्यादा ही असर है )की शतिर बहुए मेरा गलत उपयोग कर रही है मेरी आड़ में बड़े बड़े षड्यंत्र रच रही है जिससे मुझे बहुत दुःख पहुंचा है ,ये गाँव में थी तो इनक्के बाथरूम में मैंने ही इन्हे शरण दी |आज ये मुझे ही 'यूज ' कर रही है ये तो बडे बडे राजनीतिज्ञों को भी मात दे रही है मेरी आड़ में |
भई धर्मेन्द्र मेरी आड़ में छुपे थे और शर्मीला टैगोर ने गीत गया था (अबके सजन सावन में )चुपके -चुपके फ़िल्म वो बात और थी वो कहानी की मांग थी तब मुझे खुशी भई हुई थी ,पर आज क्या करू ?नाटक वालो को देखिये बरसो से मेरा उनका साथ है |उनके बिना मेरा कोई वजूद नही और मेरे बिना उनका कोई वजूद नही उन्होंने मुझे शिखर पर पहुचाया है स्टेज बी
पर्याय बन चुका है आज भी मै जब लाल रंग के मखमली रूप में स्टेज को ढकता हुँ तो कुर्सी पर बैठने वाले हजारो दर्शक मुझे प्यार से निहारते है और अदर के कलाकार मुझे लाख धन्यवाद देते है की मै उनकी अस्तव्यस्तता को दर्शको के सामने पेश नही करता |
मुझे गर्व है की मैंने अपने साये में कई महापुरुषो को जन्म दिया है ,मेरे पीछे भले ही सिनेमा और टी.वि। में बडे बडे अपराधो को ,षड्यंत्रों को अंजाम दिया हो पर वो तो अभिनय मात्र है |तभी तो कहते है छोटा परदा ,बड़ा पर्दा |पर वास्तविक जीवन में चाहे कान का पर्दा हो ,चाहे आंख का पर्दा हो ,चाहे बहु के घुघट का परदा हो ,या घर का परदा हो मेरा अस्तित्व कभी नही मिटेगा |
अभी तो मेरा भविष्य उज्जवल है ,मै करोडो का मुनाफा देता हुँ ,मेरे पीछे कई कहानिया छिपी है ,आपको मुनाफा कमाना है तो आइये खिचिये मुझे बार बार, कभी बंद कीजेये ,कभी खोलिए ,मै हुँ आपके साथ |
परन्तु याद रखना ऐ मुझे लगाने वालों जिस तरह बंद मुठ्ठी होती है लाख की और खुली होती है खाक की ...............

4 टिप्पणियाँ:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

jis tarah jivan ke saamne mrutyu ka pardaa hota he, ki pataa nahi kab uth jaaye aour sabkuchh swaah///
pardaa...bemisaal chij he, kam se kam jo nahi dikhnaa chahiye use poore adab ke saath chhupaa kar to rakhta he//aour yahi ek sachcha he jo apna kartvyaa imaandaari se nibhata he/
bahut achha likhaa he aapne/

शोभना चौरे said...

amitabhji
jeevan aur mrtyuke beech to ak jheena sa parda hai ham jeevan ke par mrtyu bhi dekh skte hai aur mrtyu se jeevan bhi .bas dekhne ki shakti hme hasil krna hai .
dhnywad

Udan Tashtari said...

परदा खिंचा ही रहे तो ठीक..अभी बेपर्दा हुए दिल्ली से चले आ रहे हैं यदि आपने देखा हो तो:

http://udantashtari.blogspot.com/2009/04/blog-post_29.html

-बहुत सही विश्लेषण करते हुए कई जगह परदा लेपट डाला-टीवी सीरियल से...परदों के कान तक.

उम्दा लेखन, जारी रहें.

hem pandey said...

आपके लेख ने पर्दे पर से पर्दा उठा दिया. साधुवाद.