Wednesday, September 16, 2009

अपनी बात

सुधा से मिले बहुत दिन हो गये थे सोचा चलो आज मिल लू |सुधा मेरी छोटी बहन है , वो अधिक्तर बीमार ही रहती है ,इसीलिये यो कहिये सबको उससे मिलने उसके घर ही जाना होता है |
दोपहर को ही उसके घर जा पहुंची थी उसकी बहू ने अच्छे से मेरा स्वागत किया बढिया चाय नाश्ता कराया |
हम दोनों बहनों को बाते करते करते बहुत देर हो गई|
मै आने के लिए उठी ही थी की उसकी बहू रीना आई फ़िर पूछा ?
मम्मीजी रात को कितनी भूख है /वैसे बता दीजिये उतना ही खाना बनाऊ ?
मै हैरत में थी रात को खाना है अभी से कैसे बता सकते है ?
सुधा मेरी ओर दयनीय नजरो से देखने लगी |
मै भी उनके घर की व्यवस्था के बारे में अपने विचार रखकर बात बढाना नही चाहती थी |
मै ये अनोखा प्रश्न लेकर सोच में पड़ गई |सुधा ने पहले भी कहा था रीना रोज रोज घर के सारे सदस्यों से पूछकर ही खाना बनाती |
तभी मुझे याद आया माँ की एक सहेली गीता मौसी हमेशा घर आती थी एक दिन मै भी बैठी थी तभी मैंने सुना
मौसी माँ से कह रही थी -देख सुधा की माँ -कभी भी रात के खाने के लिए मना मत करना -चाहे एक रोटी ही खाना |
माँ ने बडी मासूमियत से पूछा ?
क्यो
?
मौसी ने इधर उधर देख और बडे रहस्यमय अंदाज में कहा -अगर तू एक दिन खाने का मना करेगी तो दोबारा कभी भी तेरी बहू रात को तुझे खाने को नही पूछेगी |
तो क्या सुधा की बहू भी इसी दिशा मे जा रही थी ????????/
क्या अगला सवाल यही होगा ?
मम्मीजी आज आप खाना खायेगी या नही ?
और अगर सुधा ने आज कहा तो??????////

19 टिप्पणियाँ:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

आज के माहौल और युवापीढी की आज़िज़ी को उजागर करता संस्मरण.पता नहीं य़ह चिन्ता खुद का काम बचा लेने की है या भोजन के अपव्यय की, कुछ भी हो अशोभनीय तो है ही.

राज भाटिय़ा said...

आप ने आज का सच लिख दिया अपनी इस कहानी मै, लेकिन मेने इस से भी बढ कर देखा है....
धन्यवाद

Mumukshh Ki Rachanain said...

छोटी सी कहानी आज के युग कि मानसिकता को भरपूर उजागर कर गई. पार्टियों में अधधुन्द अपव्यय, खर्च और घर में ऐसी अशोभनीय हरक़ते,...............

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

दिगम्बर नासवा said...

saty ko sahna bahoot kathin hota hai ... par dheere dheere is ko accept karna padhta hai .... kisi kadvi dawaai ki tarah ....

रश्मि प्रभा... said...

ye kaisa aaya zamana !

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

padh ke ek sach ka pata chala......ki kya aisa bhi hota hai? haan! hota to hai........

प्रकाश पाखी said...

kadav sach hai!par sach hai!
aabhaar!

स्वप्न मञ्जूषा said...

bahut hi umda sansmaran. aur aisa hi hota hai ab to.
aapki lekhni kamaal ki hai.
bahut hi badhiya...

ज्योति सिंह said...

ise kartavya kahe ya vyavstha .hairaan hoon is tarah ki sthiti par .vandana ji ki baate bhi sahi hai .main ek mahine bahar rahi aaj laut kar lekh dekhi to padhkar khushi hui .

शरद कोकास said...

इतना कड़वा सच ? सही है अब रिश्तों मे सतर्कता आ ही गई है तो फिर रिश्ते कहाँ रहे

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बेहतरीन प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...
मैनें अपने सभी ब्लागों जैसे ‘मेरी ग़ज़ल’,‘मेरे गीत’ और ‘रोमांटिक रचनाएं’ को एक ही ब्लाग "मेरी ग़ज़लें,मेरे गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी"में पिरो दिया है।
आप का स्वागत है...

नीरज गोस्वामी said...

कहाँ गयीं हमारी संवेदनाएं....कहाँ जा रहे हैं हम...सोचनीय प्रश्न और डरावना सच उजागर करती कहानी...
नीरज

अमिताभ श्रीवास्तव said...

itane kam shbdo me aapne jeevan ka ek bahut bada sach rach diya/ samaaz ke is parivartan ko mene bhi kaee jagah dekha aour sunaa he/ kyu hota he esa? yah savaal apane hal ke liye yugo se bhatak rahaa he/ isame kisaka dosh? kisaka nahi? aadi sabkuchh samajhne ke baavjood vyakt nahi hota/ yahi peeda he/ yahee satya he/
bahut sahi likha he aapne/

देवेन्द्र पाण्डेय said...

यह कथा बताती है कि हमारा समाज कितना भौतिकतावादी हो गया है।
--देवेन्द्र पाण्डेय।

Urmi said...

आपने बड़े ही सुंदर रूप से सच्चाई को प्रस्तुत किया है! बहुत बढ़िया लगा !

गौतम राजऋषि said...

ये आखिरी के सारे प्रश्न-वाचक चिह्न एक भय का माहौल उत्पन्न करते हैं।

कोपल कोकास said...

आप बहुत सुन्दर है आंटी आपने बहुत अच्छा लिखा है आंटी मिअने अभी अपने ब्लोग पर रमज़ान के बारे में लिखा है ज़रुर देखियेगा ।

mark rai said...

mujhe ghar ki yaad aa gayi.....thanks for such post...

Anonymous said...

Mujhey khooshi hai ki bahu ne poocha. har relationship ki duvidha expectations se judi hui hain.

Aashish