वक्त कि जुराबों में ,अनफिट रहे हम
पत्थरों के शहर में ,शीशा हुए हम|
खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|
उन सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम|
अहसासों के आँगन में ,आवाज कि खामोशिया
चंदा कि चांदनी, में ढूंढते रहे हम|
सरपट दौडती जिदगी के , चोराहे पर
वक्त ही कहाँ नजरे मिलाने चुराने को दे पाए हम |
Wednesday, January 06, 2010
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15 टिप्पणियाँ:
खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|
बहुत सुंदर लगी आप की यह रचना
वक़्त की जुराबों में अनफिट रहे हम ...शिकवा है जिंदगी से ...!!
पत्रों को भगवान् मान पूजते रहते ही हैं हम...
आवाज की भी खामोशियाँ ....हाँ ...होती तो हैं .. खामोशियों में भी आवाज़ .
और सबसे आखिर अफ़सोस जिन्दगी ने इतना समय नहीं दिया की ऑंखें चुराते मिलते ..
बहुत कुछ समेटा है ...!!
उन सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम
बहुत ही खूबसूरत शेर कहे हैं ........... ये मिस्रा तो बहुत पसंद आया ...........वक्त कि जुराबों में ,अनफिट रहे हम|
खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|
अच्छी रचना ,बधाई
वक्त कि जुराबों में ,अनफिट रहे हम
पत्थरों के शहर में ,शीशा हुए हम|
बहुत खूब.....खूबसूरत ग़ज़ल ....सही शिकायतें की हैं....
उन सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम|
.....waah
इतनी तेज चल रही है जिन्दगी कि हम पिछड़ते जा रहे हैं। और यह आपकी कविता तो वही अहसास पुख्ता कर रही है!
इतनी तेज चल रही है जिन्दगी delhi ke jendage bhut taz ha koe aapna pan nhe
"खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|"
बहुत ही सुन्दर रचना है !
न सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम
वाह बहुत सुन्दर शुभकामनायें
अहसासों के आँगन में ,आवाज कि खामोशिया
चंदा कि चांदनी, में ढूंढते रहे हम|
kya baat hai!
खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|
Harek pankti dohraee ja sakti hai!
'पत्थरों के शहर में ,शीशा हुए हम|'
'उन सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम|'
वाह!
बहुत ही बढ़िया शेर कहे हैं!
बहुत अच्छे ख्याल हैं.
बहुत सुन्दर
आप की रचना हमेशा अच्छी होती हैं
वक्त कि जुराबों में ,अनफिट रहे हम
पत्थरों के शहर में ,शीशा हुए हम|
खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|
बहुत सुंदर भाव जीवन का एक कठोर सत्य
are aap gazal bhi likh rahi he..bahut khoob..
वक्त कि जुराबों में ,अनफिट रहे हम
पत्थरों के शहर में ,शीशा हुए हम|...
sach hi to he...
उन सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम|
ye dono she'r bahut achhe lage.
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