मेरा अहं
ये अहं न चाहते हुए भी
कब उग जाता है ?
मेरे अन्दर
गाजर घास की भांति
बहुत पहले, ज्ञान न था
गाजर घास का ?
जब उगते देखा तो
खुश हुई
चलो घर कि गाजर
खाने को मिलेगी
किन्तु
वो तो फैलती गई
और पूरे बगीचे
को लील गई
खुश्की दे
सो अलग |
हर हरी चीज,
सुकून
नहीं देती ?
ये जाना
तब से !
मेरे अहं का
विरोध करती हूँ
तो अलग
बैठा दी जाती हूँ
और
मेरे अहं का
समर्थन
करती हूँ
तो
गाजर घास
बन जाती हूँ |
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15 टिप्पणियाँ:
अच्छी अभिव्यक्ति।
अहम ...सच में गाज़र घास जैसा ही होता है...बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
अहम् की विलक्षण उपमा दी है आपने...साधू वाद...बहुत अच्छी रचना...
नीरज
अहम को तो उखाड़ फेंकना चाहिये । वही निष्कर्ष है ।
shabdon ne abhivyakti ka pura-pura saath nibhaya ....bahut achhi rachana
खुद से खुद की लडाई है..इस कशमकश को बहुत अच्छे से अभिव्यक्त किया है..
अहं को स्वयम मिटाना होता है
जैसे
गाजर घास को
स्वयम ही उखाड पड़ता है।
एक को उखाड़ने में हाथ छिल जाता है
दूसरे को उखाड़ने में
मन।
---सुंदर उपमा.. अच्छे भाव।
मेरे अहं का
समर्थन
करती हूँ
तो
गाजर घास
बन जाती हूँ
बहुत खूब कविता और बहुत खूब उपमा. नया कलेवर अच्छा लगा.
gaajar ghaas ko dekhkar gaajar khaane ki laalsaa paalnaa maatr ek bhrm hai parantu bhrm hote hue bhi kuchh samay tak hamko sanyam me rahne ki prernaa to detaa hi hai jo ki bahut hi achchhe baat hai ,waise aapki rachnaa abhootpurv hai jisko padhkar hrday ko shaanti si prteet hoti hai waise gaajar bhi to hrday ko balishth banaati hai
जैसे
गाजर घास को
स्वय ही उखाड पड़ता है।
एक को उखाड़ने में हाथ छिल जाता है
दूसरे को उखाड़ने में
मन।
.....Antarman ke kashkash ko sundar bimb chitran ke madhyam se bakhubi prastut kiya hai aapne.... Bahut achha laga... Haardik shubhkamnayne..
अहं का अच्छा विश्लेषण
सच में - अहं गाजर घास सा पसरता चला जाता है। बिना जलाये मुक्ति नहीं है।
मेरे अहं का
समर्थन
करती हूँ
तो
गाजर घास
बन जाती हूँ
बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी
आज के जीवन का कटु सत्य हर इन्सान इनसे रोज ही दो चार होता है
अपने आप से झूझना पढ़ता है ,,, ये अहम मजबूर करता है ...
अहं सामान्य मानव जीवन का हिस्सा होता है। हां इसे संतुलित रखने की कसरत जरूरी है।
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