Sunday, April 12, 2009

आम आदमी

जर्जर होती मानवता
दिखती आरपार
खंडित होती अस्मिता
कपड़ो की नुमाइश करती ,
विशव सुंदरी को
लाखो देने को लालायित
बच्चो को शिक्षा खरीद देने की ,
जुगत में दिन भर
कोल्हू के बैल सी फिरती
भारतीय माँ
चुनावो के घोषणा पत्रों में
विद्या उद्योग में
vidhya चली गई
हाशिये पर
तथाकथित आर्थिक मंदी के दौर में
नीची नजरे किए
अपनेही साथी की लाश को
ढोते सवेदना विहीन दोस्त
युवाओ की खोखली
मह्त्वाकक्षाओ को हवा देता
इलेक्ट्रानिक मिडिया
आरोप पर आरोप लगाता
लोकतंत्र
और इन सब को
आश्चर्य से देखता
आम आदमी |


हाशिये विद्या

1 टिप्पणियाँ:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

आप कितना भी सोच ले आम आदमी की किस्मत में सिर्फ आश्चर्य ही है. उसे आश्चर्य से ही सब कुछ देखना होता है.
नई कविता ने हमें लिखने की पूरी छूट दे रखी है, इसलिए रचनाकार को तुकबंदी या किसी प्रकार की धारा ,लय में बंधना नहीं होता, जो विचार आते है उसे उकेर देना होता है. इस लिहाज़ से आपकी रचना सटीकता के करीब है. शब्दों को उसके अर्थो में ढालने में आपका प्रयास सफल कहा जा सकता है.
लिखती रहिये ...
शुभकामनाये.