Friday, January 03, 2014

"बस अब"

ज़ुबान खामोश है
पर दिल बैचेन है
आँखे ढूँढती है,
समुंदर
डूबने के लिए
अहसासो की चुभन
जीने नही देती
बस अब
कतरा
ज़िदगी की धूप दे दो |


चाँदनी अब
सोने नही देती
बारिश आँसू सूखने नही देती
बसंत सिर्फ़
दर्द
दे जाता है
बस अब
कतरा
जिंदगी की धूप दे दो |
मन के टूटे तारो को
छूटे हुए सहारों को
बादल राग भी
जुड़ा नही पाता
बस अब
एक कतरा
जिन्दगी कि धूप दे दो |

ध्यान और जप के सारथि
आज रथहीन नज़र आते है
योगी भी अर्थ के साथ चलकर
अर्थहीन नज़र आते है

बस अब
कतरा
जिंदगी की धूप दे दो |

शोभना चौरे

Monday, December 30, 2013

पूजा और फल





ईश्वर को याद करने के,उसकी आराधना करने के  हरेक व्यक्ति के अपने तरीके होते है। अपनी माँ को हमेशा पूजा के बजाय पाठ  करते ही देखा क्योकि घर के देवी देवताओ कि पूजा सिर्फ दादाजी ही करते थे घर कि महिला का पूजा घर उसका रसोईघर था ,जब माँ अपने कर्त्तव्यों से निवृत  हुई तो पठन पाठन को ही अपनी पूजा माना, जिसमे उनकी दैनिक प्रातः  संस्कृत में गाई  गई प्रार्थना घर के वातावरण  को मंदिर बना देती।
उनके इस नियम में शुचिता का कोई खास महत्व नहीं था,और जब विदा ली हम सबसे तो नर्मदा किनारे अपना बचपन बिताने वाली माँ ने बस में नर्मदाष्टक बोलकर खंडवा- इदौर के रास्ते में माँ नर्मदा के दर्शन कर अपने को माँ को समर्पित कर दिया फूलो कि तरह। आज एक पारिवारिक कार्यक्रम में इसी तरह से चर्चाये चल रही थी सबकी अपनी अपनी पूजा के बारे में और उसके फल के बारे में, हम मध्यमवर्गीय लोगो कितनी भी गीता पढ़ ले पर अपने कर्म, फल के साथ ही जोड़ते है, मेरी दादी चाय पीती थी उसके छीटे भी भगवान को अर्पण करती थी ,इतने में एक भाभी बोल उठी मेरी माँ सुबह से घूमने निकलती और ढेर सारे  फूल तोड़ कर लाती  है बरसो से ,हम सब कहते- इतने फूल क्यों चढ़ाती हो ?वो कहती -फूलो कि तरह जाउंगी खुशबु बिखेरती बिना किसी को तकलीफ दिए। ईश्वर ने उनके फूल भी स्वीकार कर लिए।

Monday, December 16, 2013

"आ अब लौट चले "

                                                         

एक वैवाहिक समारोह में मेरी एक चचेरी भतीजी मिली   बहुत दिनों बाद ,पारिवारिक कुशल क्षेम पूछने के बाद वह मेरा हाथ पकड़ कर एक तरफ ले गई भीड़ से दूर लेकिन बड़ी स्थिर और शांत चिंत लग रही थी मेरे मन में बड़ी उथल पुथल मच गई थी एक उस मिनट में। वहाँ पड़ी कुर्सी पर बैठकर उसने मुझे कहा- आपने देखा बुआ !उस लाल शर्ट वाले भाई साहब को जो कि मेरी भतीजी के मौसी के लड़के थे ,मैंने कहा उसमे देखना क्या वो तो हर कार्यक्रम  में आते है हमेशा मिलते है समाज में बड़ा नाम है उनका , बहुत सारी  सामाजिक जिम्मेवारिया निभाई है उन्होंने ,सबसे हंसकर मिलते है और फिर तुम्हारे तो भाई ही है न ?उसमे नया क्या है ?
वही  तो आपको बताने जा रही हूँ आज तक वो जब सबसे गले लगाकर मिलते रहते थे आज तो सबको नमस्कार कहकर सबसे मिल रहे है और आज मुझे, मेरे मन में शांति मिल रही है कि जब वो मुझे गले लगाकर मिलते थे तो मुझे उस लिजलिजे अहसास से मुक्ति मिली -आज उन्होंने नमस्कार कहकर मुझसे पूछा और छोटी कैसी हो ?
ओह तो ये बात है,तूने तो पहले कभी बताया नहीं ?
कैसे बताती बुआ वो मेरे भाई जो थे ?
भाई ऐसे होते है क्या ?मैंने कहा
बुआ ;वो कभी कभार ही मिलते थे न ?
लेकिन बुआ कोई बात नहीं आप ज्यादा सोचो नहीं? शायद उन्होंने आमिर खान का प्रोग्राम देखकर ,या कि आज कल जितने तथाकथित बड़े लोगोका जो हश्र हो रहा है ,या कि अपनी हिटलर बीबी कि डांट खाकर अपनी हरकतो को सुधार लिया हो ? देर आये दुरुस्त आये। इतना कहकर भतीजी मुझे हाथ पकड़कर भीड़ में वापिस ले आई फिर भी मैंने पूछा ?तूने मुझे ये सब क्यों बताया जब तेरे पास ही समाधान है या फिर तूने उन्हें उनकी हरकतो के लिए माफ़ कर दिया ?
उसने खाने कि प्लेट हाथ में लेते हुए कहा -बुआ आप ब्लॉग शलाग लिखते  हो तो लोगो को बता सको कि अब लोग सम्भलने ,लगे है और न न न आप चिंता न करो अब ऐसी हरकतो पर  सबक सिखाना भी हम जान गई है
और मैं  प्लेट पकडे -पकडे सोचती और सोचती रह गई इस परिवर्तन के अहसास को।

Sunday, November 24, 2013

बाबूजी कि स्मृति में .....


आज25 नवम्बर के दिन बाबूजी कि चौतीसवी पुण्यतिथि है ,"बाबूजी " शब्द कहते हुए एक पूरा युग बीत  जाता है आँखों के  सामने । ५१ साल कि छोटी सी आयु में अपने जीवन को सार्थक बनाया उन्होंने | छोटी सी उम्र में नौकरी कर परिवार ,समाज ,कि जिम्मेवारी निबाहते हुए पढाई जारी रखते हुए प्राध्यापक पद पर  पहुंचकर शहर कि सांस्कृतिक ,साहित्यिक गतिविधियो को  मधुरता से गतिमान बनाया,  इंदौर आकाशवाणी पर जब उनकी कोई कविता या या गद्य प्रसारित होता पूरा मोहल्ला तन्मयता से उनकी मधुर वाणी कि मधुरता में डूब जाता और हफ्तो उसपर चर्चा चलती रहती । संयोग से बाई (माँ )बाबूजी कि पुण्यतिथि एक ही माह में आती है । आज भी उस दिन को भुला नहीं पाती जब  उनके नहीं होने का समाचार सुना था तब मुझे अहसास हुआ था कि" पैरो तले जमीन खिसकने "का क्या अर्थ होता है ।
हम सभी भाई बहन शोभना चौरे ,साधना चौरे ,कामना बिल्लोरे ,आशीष उपाध्याय ,चेतना डोंगरे कि और से
अनेकानेक प्रणाम |
"बाबूजी" कि स्मृति में उन्ही कि एक कविता  जो  उन्होंने  सन १९७७ में लिखी थी जो आजकि राजनीती के परिप्रेक्ष्य आज भी उतनी ही प्रासंगिक है |
एक कवि सम्मेलन में स्वर्गीय  बाबूजी नारायण उपाध्याय 

इतिहास बोध 

इतिहास अपने को
 दोहराता है ,सही 
किन्तु पात्र नहीं 
और न घटनाये
केवल वृत्तियाँ 
जो बदलती नहीं 
कोई माँ 
अब भी मांगती है 
पुत्र के लिए  राज्य
 और राम को 
अरण्य कष्ट 
पर आवश्यक नहीं 
भरत  को
श्रध्धा हो राम पर 
या उन मूल्यों पर 
जिनके लिए राम 
राम है सदियों से 
यह भी आवश्यक नहीं
कि हर बार 
सीता ही निमित्त हो 
युग के निर्णायक युद्ध का 
कौन जाने सत्य के लिए 
भरत  से लड़ना पड़े 
राम को 
या राम के लिए 
कोल ,किरात ,निषाद 
और वानर जैसे 
 निरीह जन को 
मोह ध्रतराष्ट्र का हो 
या कैकयी का 
अंत सबका होता है वही 
इतिहास अपने को
 दोहराता है, सही ...
-नारायण उपाध्याय


Monday, November 11, 2013

स्त्रियो का संसार ,आधी आबादी का संसार

स्त्रियो का संसार ,आधी आबादी का संसार
आज  समाज के हर क्षेत्र में आधी आबादी का महत्वपूर्ण योगदान है |
महानगरो में ,बड़े शहरो में ,छोटे शहरो में अपने कार्यो के अनुरूप महिलाये पुरस्कृत होती है और ये हम सबके लिए गौरव कि बात है किन्तु अपने सिमित साधनो में ,विपरीत परिस्थियो में भी छोटे शहरो कि कस्बो कि ,आधी आबादी निरंतर अपना पूरी क्षमता के साथ समाज को नये आयाम दे रही है चाहे वो पुरस्कृत न होती हो ?न ही कोई संस्था से जुडी हो? ऐसे ही एक स्त्री अपने घर संसार को चलाते हुए अपनी अध्यापन कार्य को बख़ूबी निबाहते हुए अपने इर्द गिर्द कि महिलाओ को एकत्र कर ,उनकी क्षमता को ,उनकी योगयता के अनुसार उन्हें अपने आत्मविश्वास के साथ ,जीवन जीने कि प्रेरक बनी है और इन्ही के साथ समय चुराकर कागजो में अपनी भावनाओ को कलम के द्वारा उकेरने कि भी भरपूर कोशिश कर रही है उसी टुडे मुड़े कागज से ये कविता उभरी है भरपूर सवेदना के साथ कीर्ति भट्ट ने इस समाज से सिर्फ एक विनती की है ...



"बेटी कि पुकार "

दो आँगन कि खुशियाँ हूँ मैं
अपनी लाड़ली बिटिया हूँ मैं
कात्यायनी ,मैत्रैयी सी विदुषी हूँ मैं
उर्मिला सीता सी धर्म परायण हूँ मैं
मुझे हवस भरी नजरो से देखने वालों
तुम्हारे आँगन कि भी शोभा हूँ मैं
मत अपनी पशुता का परिचय दो बार बार
मेरे अस्तित्व को न करो यूं तार  तार
जन्म लिया जिस कोख से ,उसे न करो शर्मसार
माँ ,बहन  , पत्नी के रूप में मैं ही देती हूँ प्यार
न मेरी आत्मा को करो तिरस्कार
न हो सकेगा सृष्टि का विस्तार
मैं ही हूँ जीवन का आधार ,मैं ही हूँ जीवन का आधार --------
कीर्ति भट्ट
देवास म. प्र .




Saturday, October 26, 2013

ऐसा क्यो होता है ?

ऐसा क्यों होता है ,अधिकतर
बियुटी पार्लर वाली डरावनी क्यों होती है ?
जिम का मालिक इतना मोटा क्यों होता है?
फल बेचने वाले इतना कड़वा क्यों बोलते है?
बादाम बेचेवालो का दिमाग ठस क्यों होता है?में कम करने वालेकी मुस्कराहट इतनी महंगी क्यों होती है ?
दूसरो का घर बनाने वाले वाले खुद बेघर क्यों होते है ?
बेशुमार अन्न पैदा करने वाले किसान ही भूखे पेट आत्महत्या क्यों करते है ?
जीवन भर दूसरो के लिए महा म्रत्युन्जय के जप पाठ करने वालो को दिन रात अपनी म्रत्यु का भय क्यों होता है ?
जीवन भर शादी करने वाले पंडित कि बेटी आजीवन क्वारी क्यों रह जाती है |
har vishav sundarismaj
har vishv sundri smaj seva ka vart leti hai fir bhi gli gli bchhe anpdh kyop hai ?shadi me
lakhokharch karne ke bad bhi talko bdhti sankhya kyo hai?
betiya lakshmi ka rup hai fir ghar me ate hi bap ka bojh kyo hai?
बैंक




मेरी माँ

http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/poems/0907/28/1090728054_1.हतं
वेब दुनिया का लिंक है कृपया क्लिक करे .

अपनी बात

सुधा से मिले बहुत दिन हो गये थे सोचा चलो आज मिल लू |सुधा मेरी छोटी बहन है , वो अधिक्तर बीमार ही रहती है ,इसीलिये यो कहिये सबको उससे मिलने उसके घर ही जाना होता है |
दोपहर को ही उसके घर जा पहुंची थी उसकी बहू ने अच्छे से मेरा स्वागत किया बढिया चाय नाश्ता कराया |
हम दोनों बहनों को बाते करते करते बहुत देर हो गई|
मै आने के लिए उठी ही थी की उसकी बहू रीना आई फ़िर पूछा ?
मम्मीजी शाम को कितनी भूख है /वैसे बता दीजिये उतना ही खाना बनाऊ ?
मै हैरत में थी रात को खाना है अभी से कैसे बता सकते है ?
सुधा मेरी ओर दयनीय नजरो से देखने लगी |
मै भी उनके घर की व्यवस्था के बारे में अपने विचार रखकर बात बढाना नही चाहती थी |
मै ये अनोखा प्रश्न लेकर सोच में पड़ गई |सुधा ने पहले भी कहा था रीना रोज रोज घर के सारे सदस्यों से पूछकर ही खाना बनाती |
तभी मुझे याद आया माँ की एक सहेली गीता मौसी हमेशा घर आती थी एक दिन मै भी बैठी थी तभी मैंने सुना ।
मौसी माँ से कह रही थी -देख सुधा की माँ -कभी भी रात के खाने के लिए मना मत करना -चाहे एक रोटी ही खाना |
माँ ने बडी मासूमियत से पूछा ?
क्यो?
मौसी ने इधर उधर देख और बडे रहस्यमय अंदाज में कहा -अगर तू एक दिन खाने का मना करेगी तो दोबारा कभी भी तेरी बहू रात को तुझे खाने को नही पूछेगी |
तो क्या सुधा की बहू भी इसी दिशा मे जा रही थी ????????/
क्या अगला सवाल यही होगा ?
मम्मीजी आज आप खाना खायेगी या नही ?
और अगर सुधा ने आज न कहा तो??????////

Friday, September 20, 2013

बस कुछ यूँ ही ....कुछ अध लिखा ....

बहुत दिनों से कुछ अधू रा  सा लिखा रखा है आज वो ही .....

 1.
हमने बाँट लिए
 नदी ,पहाड़, झरने
हमने बाँट लिए
 धरती के टुकड़े
 आकाश के कोने
बैचे न है उड़ने को,
तुम्हारे, मेरे
करते रहे हम!

जमा कर ली हमने
नफरत  ईर्ष्या  रंजिश

बाँट लेते हम
स्नेह ,प्रेम, मानवता 



2.
प्रभात  की किरन चमकी
गाये रम्भाई ,
 समूची स्रष्टि जीवंत हुई
साँझ की सुगंध महकी
गायों ने रज उड़ाई
पक्षियों ने कलरव किया ,
बाटा अपन दाना सो गये
 लहरे भी सुस्ताने लगी
घर तो महके ही ,
व्यंजनों से
सडक के आजूबाजू भी
ठेलो पर धुआ महकने लगा
ओ माँ !
तुम भी आराम ले लो
रात  ने अपने पैर पसार दिए है
चाँद ने तारो से दोस्ती कर ली है
अब जाने भी  दो माँ......







Saturday, June 01, 2013

सुविधा भोगी हम

सुविधा भोगी हम


 
 
 
 
सुविधाओ के आगोश में पलते हम ,
सुविधाओ के जंगल में खो गये हम ,
क्रांति की मशाल जलाते जलाते
सुविधाओ की अभिव्यक्ति में सिर्फ वाचाल हो गये हम |
बाजार की सुविधा में ,सुविधा के बाजार में
तन से धनवान मन से कंगाल हो गये हम ।