Thursday, April 16, 2009

नपुसंक

हम जानते है
जीवन है क्षण भंगुर म्रत्यु
है शाश्वत सत्य
करते है फ़िर भी जीते रहने में विश्वास
हम जानते है
कर्म है शान्ति का द्वार
धन है अशांति की जड़
करते है फ़िर भी
भोतिकता में विश्वास
हम जानते है
चुनाव है एक आडम्बर एक छलावा
मतदान है सिर्फ़ चेहरों का बदलाव
करते है फ़िर भी लोकतंत्र में विश्वास
हम जानते है
सामर्थ्य नही है हममे
ये सोचने समझने का
की खून से रंगे हाथो को जिताए
या की रक्त से सने कीचड़ में उगे कमल को खिलाये
हम तो ऐसे समय
हो जाते है अंधे और बहरे
और यही है हमारी नपुंसकता का प्रमाण
और खून से रंगे हाथ बढ़ते ही जाते है ,
और ऐसे ही कमल खिलते ही जाते है
खिलते ही जाते है |

3 टिप्पणियाँ:

mark rai said...

shobhna jee aap mere blog par aayi ....mai kaaphi khush hoon . aapke comment ki jitani taarif ki jaay kam hai ... aage bhi silsila banaaye rakhegi mujhe pura vishwaas hai .
aapki yah kavita kaaphi achchhi lagi ..carry on ...

Udan Tashtari said...

इसे नपुसंक्ता कहें या ओढ़ी हुई उदासीनता-है तो विडंबना ही.

जयंत - समर शेष said...

bahut aarth hai iname..

~Jayant