Sunday, June 14, 2009

सम -द्रष्टि

ओरो के दिलो के काले पन
को अनदेखा करू
ऐसी अन्तर -द्रष्टि कहा से लाऊ?

अपने मन को उजला करू
ऐसी स्रष्टि कहा से लाऊ ?

अनजाने से सुख की चाह में
परिचित सुख से मुख मोड़ कर
अपने आप ही दुःख ओढ़ लिया |

सुख और दुःख के
प्रसंगो में
सम द्रष्टि
कहा से लाऊ ?

8 टिप्पणियाँ:

दिगम्बर नासवा said...

सुख और दुःख के
प्रसंगो में
सम द्रष्टि
कहा से लाऊ

सुन्दर लिखा है shobhnaa जी........... वाकई सम दृष्टि लाना मुश्किल है............. अगर ऐसा हो जाए तो तो वो योगी न बन जाए...........

Anonymous said...

abhibyakti ke liye behatarin shabdon ke sayojan ke liye badhai asha hai aur kbiten dil se nikalkar panno par nikharegi.
kishore kumar jain

writterkishore@gmail.com said...

abhibyakti ke liye behatarin shabdon ke sayojan ke liye badhai asha hai aur kbiten dil se nikalkar panno par nikharegi.
kishore kumar jain

प्रकाश पाखी said...

शोभना जी,
अच्छा लगा कि आपके ब्लॉग का नाम भी अभिव्यक्ति है..हम चाहते भी क्या है ..अपने मनोभावों ,संवेदनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति ...
सम दृष्टि कहाँ से लाऊं ...कह कर आपने कितनी विडम्बनाओं को शब्दों में समेत लिया है..
पढ़ कर अच्छा लगा
बधाई..!

Prem Farukhabadi said...

सर्वोतम रचना .बधाई !!

PN Subramanian said...

bahut hi sundar utkrisht rachna. vaise yah to antarman ki baat hai.

ज्योति सिंह said...

ओरो के दिलो के काले पन
को अनदेखा करू
ऐसी अन्तर -द्रष्टि कहा से लाऊ?

अपने मन को उजला करू
ऐसी स्रष्टि कहा से लाऊ ?
bahut sundar baate kahi .aur hota bhi yahi hai aksar .blog pe aane ke liye shukrjya .

Alpana Verma said...

सम दृष्टि लाना बहुत मुश्किल है!
बहुत अच्छी कविता है.