Wednesday, June 10, 2009

"आओ थोड़ा मुस्कुरा ले "

प्रश्नों का सिलसिला मन मस्तिषक में चलता ही रहता है ,कभी सामाजिक व्यवस्था पर ,कभी घरेलू व्यवस्थाओ पर ,कभी देश की व्यवस्थाओ पर और भी हमसे जुड़े ऐसे कई ऐसे क्षेत्र है जो प्रश्न बनकर सामने आते है |
कई ऐसे जुमले होते है जो सोचने पर मजबूर कर देते है की ये जुमला उसने मेरे बारे में क्यो कहा?
आज मै जुमला तो नही, पर एक सरकारी लाइन पर सोच में पड़ गई| दरअसल आज एक साक्षात्कार पढ़ रही थी उनका जो iयुवा है और अभी अभी चुनकर संसद में आए है !
उन्होंने कहा -महिलाओ के उत्थान के लिए प्रयत्न करेगे |
मैतब से सोच में हुँ महिलाओ के उत्थान का क्या अर्थ है ?
पुरुषों के उत्थान क्यो नही ?
अगर आप कुछ अर्थ बता सके तो आभारी रहूगी |
साथ ही


आओ थोड़ा मुसुकुरा ले


भूल जाओ राजनीती
भूल जाओ कूटनीति
जब कलिया खिली है
तो आओ
हम भी थोड़ा मुस्कुरा ले |

बंद कमरों से बाहर निकलकर
आओ थोड़ा हवा से बतिया ले
पडोसी का थोड़ा सा किवाड़
खटखटा ले
आओ थोड़ा सा मुस्कुरा ले |

बरसो बीत गये
मल्हार गाए हुए ,
झुला झूले हुए
इतने भी तने रहो
आओ थोड़ा सा मुस्कुरा ले |

कांटा छुरी छोड़कर
जमीन पर बैठकर
पावो को मोड़कर
थोड़ा सा झुक जावे
अन्न को हाथो का स्पर्श देकर
उसे अम्रत बना ले |
आओ थोड़ा सा मुस्कुरा ले |

कालिंदी का किनारा हो
व्रन्दावन सा नजारा हो
अपनों का सहारा हो
फ़िर देर किस बात की
कान्हा के गीत गुनगुना ले
आओ थोड़ा मुस्कुरा ले|

10 टिप्पणियाँ:

हरकीरत ' हीर' said...

बंद कमरों से बाहर निकलकर
आओ थोड़ा हवा से बतिया ले
पडोसी का थोड़ा सा किवाड़
खटखटा ले
आओ थोड़ा सा मुस्कुरा ले |

बहुत सुंदर.....!!

कांटा छुरी छोड़कर
जमीन पर बैठकर
पावो को मोड़कर
थोड़ा सा झुक जावे
अन्न को हाथो का स्पर्श देकर
उसे अम्रत बना ले |
आओ थोड़ा सा मुस्कुरा ले |

वाह....शोभना जी जीवन की एक गहरी सच्चाई को बयाँ करती हैं आपकी ये पंक्तियाँ ......हम आधुनिता और दिखावे में इतना अधिक खो गए हैं कि अब हमें जमीन पर बैठ भोजन करने में भी शर्म महसूस होती है ...... बहुत सुंदर रचना....बधाई .....!!

निर्मला कपिला said...

शोभिता जी सच मे आप सही कह रही हैं उत्थान तो पुरुष का ही होने वाला है ये बात किसी के मन मे क्यों नहीं आयी? अगर आदमी अपने को सुधार ले अपने अहँ से बाहर आये तो नारी के उत्थान की बात ही ना करनी पडे1कविता भी बहुत सुन्दर है आभार्

दिगम्बर नासवा said...

कालिंदी का किनारा हो
व्रन्दावन सा नजारा हो
अपनों का सहारा हो
फ़िर देर किस बात की
कान्हा के गीत गुनगुना ले
आओ थोड़ा मुस्कुरा ले

आप सही कह रही हैं............ पर जब हम सब बस राजनीति की ही भाषा में बोलने सुनने लगे हैं.........तो रणेताओं का क्या कसूर.............. आपकी रचना बहूत ही सुंदर, मधुर एहसास लिए है....... मुस्कुराने के लिए कुछ पल भी मिलें तो माआ अलग है

Mamta Sharma said...

sundar sahaj mithas se paripurn kavita badhai|

अमिताभ श्रीवास्तव said...

antim chhah panktiyo ne vakai aanand laa diya// bahut khoob likhi he// mujhe itani bhaai ki kai baar padhhi aour uskaa aanand liya///
muskurahat ke liye..yaa aanand ke liye esi panktiyo ki jaroorat hoti he, vakai..bahut achha likha he aapne//din-pratidin aapki kalam me ek nayaa andaaz dekhne ko mil rahaa he//shobhnaji, aap kamaal kar rahi he/
badhaai

M Verma said...

shobhana jee
bhawabhibhut hun main. sunder bhao ko chitere jaisa aapne piroya hai.
जब कलिया खिली है
तो आओ
हम भी थोड़ा मुस्कुरा ले |
Ashawad kee sunder abhivyakti prerit karti hai.

Poonam Agrawal said...

Behad sunder bbaav ....sachchai se bharee....badhai swikaariyega

Alpana Verma said...

जमीन पर बैठकर
पावो को मोड़कर
थोड़ा सा झुक जावे
अन्न को हाथो का स्पर्श देकर
उसे अम्रत बना ले |

-मन को छू गयीं ये पंक्तियाँ!
सच में एक पहल की आवश्यकता है ...हम में से बहुत इस आधुनिकता का आवरण छोड़ देंगे...
कविता में बहुत ही सहज रूप से आप ने इतनी गहरी बात कह दी...

महिलाओं के उत्थान की बात आप ने पूछी तो यही कहूँगी कि शोभना जी की उत्थान का अर्थ सिर्फ ऊँचें ओहदे पा लेने में या पुरुषों जैसे परिधान पहन कर खुले में घुमने में नहीं है...
कोई भी स्त्री कहीं भी रहती है किसी भी परिवेश में रह रही है,अगर वह अपने दिल की बात खुल के कह सकती है और दिल से खुश रह रही है तो वही उस के उत्थान की शुरुआत है...

कडुवासच said...

बंद कमरों से बाहर निकलकर
आओ थोड़ा हवा से बतिया ले
... bahut khoob, prabhaavashaalee abhivyakti !!!!!

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"कालिंदी का किनारा हो
व्रन्दावन सा नजारा हो
अपनों का सहारा हो
फ़िर देर किस बात की
कान्हा के गीत गुनगुना ले
आओ थोड़ा मुस्कुरा ले"
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.....